इसी तरह बढ़ता रहा कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर तो होगी फसलों में जिंक की कमी जो बढाएगी कुपोषण
अध्ययन में कहा गया है कि कार्बन डाई ऑक्साइड का बढ़ता स्तर अपर्याप्त जिंक के सेवन के जोखिम को और बढ़ा सकता है।

अस्सी के दशक से ही भारत कुपोषण को समाप्त करने की दिशा में गंभीर प्रयास कर रहा है। इन प्रयासों में कुपोषण और रक्तहीनता से पीड़ित बच्चों की संख्या में कमी करना व बच्चों व माँओं में विटामिन ए की कमी की दर को कम करना शामिल है। लेकिन इन प्रयासों के बावजूद भारत के चिंतित होने की बात यह है कि एक नए शोध में दावा किया गया है कि इस अवधि में अपर्याप्त जिंक सेवन की दर बढ़ रही है।
यह शोध भारतीय व अमेरिकी वैज्ञानिकों के एक शोध दल द्वारा किया गया है। शोध बताता है कि इस अवधि में अपर्याप्त जिंक सेवन की दर, जो 1983 में 17 प्रतिशत थी, वह 2012 में बढ़कर 25 प्रतिशत हो गई। इसका सीधा सा अर्थ है कि 1983 की तुलना में 2012 में 82 मिलियन लोग और जिंक की कमी यानी ज़िंक डेफिशिएंसी का शिकार हो गए। हार्वर्ड टी.एच. चैन स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ द्वारा किया गया अध्ययन "भारत में अपर्याप्त जिंक का सेवन: अतीत, वर्तमान और भविष्य" आंखें खोलने वाला है।
शोध कहता है कि अगर कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर इसी तरह बढ़ता रहा तो यह कुछ दशक में ही 550 पीपीएम पहुंच जाएगा, जिसके चलते कई फसलों में जिंक की कमी हो सकती है और यह सीधे-सीधे कुपोषण बढ़ाएगा।
जिंक की कमी मानव स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले सबसे महत्वपूर्ण सूक्ष्म पोषक तत्वों के विकार में से एक है।
जिंक के अपर्याप्त सेवन की दर चावल खाए जाने वाले दक्षिणी व पूर्वोत्तर राज्यों केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, मणिपुर और मेघालय में अधिक थी। यह इसलिए भी हो सकता है क्योंकि चावल में अपेक्षाकृत जिंक की मात्रा कम होती है।
जिंक शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूत बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसलिए जिंक के अपर्याप्त सेवन से स्वास्थ्य पर गंभीर दुष्प्रभाव पड़ सकते हैं। इसकी कमी से छोटे बच्चों के मलेरिया, निमोनिया और दस्त संबंधी बीमारियों से पीड़ित होने का खतरा रहता है।
भारतीयों के आहार से मोटा अनाज जैसे जौ, बाजरा, चना गायब होता जा रहा है। पैक्ड आटे में से चोकर खत्म हो रहा है। यह भी जिंक के अपर्याप्त सेवन का एक कारक है।
शोध बताता है कि इधर प्रजनन क्षमता में कमी के चलते भारत में एक जनसांख्यिकी बदलाव हुआ है, जिससे बच्चों की अपेक्षा वयस्कों का अनुपात अधिक है।
वयस्कों की जनसंख्या बढ़ने से औसत भारतीय के लिए जस्ता की आवश्यकता 5% बढ़ गई है, क्योंकि वयस्कों को उचित शारीरिक क्रिया के लिए बच्चों की तुलना में अधिक जिंक की आवश्यकता होती है।
अध्ययन में कहा गया है कि कार्बन डाई ऑक्साइड का बढ़ता स्तर अपर्याप्त जिंक के सेवन के जोखिम को और बढ़ा सकता है।
शोधकर्ताओं में हार्वर्ड टी.एच. चैन स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ, बोस्टन, एमए, यूएसए के पर्यावरण स्वास्थ्य विभाग, के मैथ्यू आर स्मिथ, पारिस्थितिकीय, विकास और पर्यावरण जीवविज्ञान विभाग, कोलंबिया विश्वविद्यालय, न्यूयॉर्क, एनवाई, यूएसए के रूथ डेफ्रीज़ और इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस, हैदराबाद, भारत के अश्विनी छत्रे शामिल हैं।
पिछले ट्रेंड्स के अलावा, यह नया अध्ययन इस बात की भी पड़ताल करता है कि कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर किस तरह अगले तीन दशकों में बढ़ सकता है। अनुसंधान दल के दो सदस्यों डीआरएस मैथ्यू स्मिथ और हार्वर्ड के सैमुअल मायर्स ने पिछले साल दिखाया था कि वर्तमान में वायुमंडलीय परिस्थितियों के मुकाबले सन् 2050 तक कार्बन डाई ऑक्साइड बढ़ने से कई प्रधान फसलों में जिंक की कम हो जाएगी, जिससे दुनिया भर में कुपोषण बढ़ेगा, लेकिन भारत के लिए अधिक हानिकारक होगा।
भारत पर केंद्रित इस अध्ययन में शोधकर्ताओं के दल ने भारतीय आहार पैटर्न पर विस्तृत सर्वेक्षण डेटा का इस्तेमाल किया ताकि यह अनुमान लगाया जा सके कि बदलते वातावरण में अपर्याप्त जस्ता सेवन की दर कैसे बदल सकती है।
यह हालिया अध्ययन बताता है कि अगर कार्बन डाई ऑक्साइड का स्तर ऐसे ही बढ़ा तो भविष्य में खाद्य पदर्थों से महत्वपूर्ण पोषक तत्व खासकर रेशे गायब हो सकते हैं।
शोधकर्ता मैथ्यू स्मिथ के मुताबिक भारत पोषण और स्वास्थ्य के क्षेत्र में व्यापक सुधार की दिशा में निरंतर प्रयास कर रहा है, लेकिन भोजन में जिंक की मात्रा बढ़ाने की तरफ ध्यान देना अब पहले से अधिक ज्यादा जरूरी हो गया है।
कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय के पृथ्वी प्रणाली विज्ञान के एसोसिएट प्रोफेसर स्टीवन डेविस के एक शोध दल ने पिछले दिनों जीवाश्म ईंधन जलने और कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन के वर्तमान और अपेक्षित भविष्य के स्तर के आधार पर पूरा खाका खींचते हुए बताया था कि अगर ऐसे ही उत्सर्जन जारी रहा तो मानव प्रदत्त ग्लोबल वार्मिंग से पैदा हुए तेज सूखे और गर्मी, के कारण जौ की फसल की पैदावार में तेज गिरावट आएगी।
जलवायु परिवर्तन से संबंधित विज्ञान का आकलन करने के लिए संयुक्त राष्ट्र निकाय जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल (आईपीसीसी) की जलवायु परिवर्तन पर हाल में जारी की गई नवीनतम रिपोर्ट में भी चेतावनी दी गई थी कि वैश्विक तापमान उम्मीद से अधिक तेज गति से बढ़ रहा है। रिपोर्ट में कहा गया था कि कार्बन उत्सर्जन में समय रहते कटौती के लिए कदम नहीं उठाए गए तो इसका विनाशकारी प्रभाव हो सकता है।
पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन वार्ता (सीओपी-24) के सालाना सम्मेलन में जारी रिपोर्ट में बताया गया था कि दुनिया में कार्बन का सबसे ज्यादा उत्सर्जन करने वाले देशों में चीन, अमेरिका, भारत, रूस, जापान, जर्मनी, ईरान, सऊदी अरब, दक्षिण कोरिया और कनाडा शामिल हैं। 28 देशों का समूह यूरोपीय देश तीसरे स्थान पर था। इस लिहाज से देखा जाए तो कार्बन का अत्यधिक उत्सर्जन भारत के लिए चिंता का विषय है। लेकिन देखने में आ रहा है कि पर्यावरण और मानव जीवन से जुड़ा ये अहम मुद्दा हमारी राजनीति से सिरे से खारिज है। बल्कि सरकार अपनी पीठ थपाथपा रही है कि उसने पॉलिसी पैरालिसिस को समाप्त कर दिया है। मार्च 2016 में तत्कालीन वन एवं पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने बताया था कि राजग सरकार ने 20 महीने में 900 परियोजनाओं को मंजूरी दी, जो पूर्ववर्ता यूपीए सरकार ने पर्यावरण की रक्षा के नाम पर रोकी हुई थीं। और इसको नाम दिया गया “विकास”।
हमें सोचना होगा कि तथाकथित विकास की यह अंधी दौड़ हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए विनाश का कितना सामान तैयार कर रही है। कॉरपोरेट घरानों के लालच की पूर्ति के लिए प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन से वायु प्रदूषण बढ़ने से जलवायु परिवर्तन हो रहा है, जो इसी तरह जारी रहा तो वह दिन दूर नहीं जब हमारी धरती जीवनविहीन हो जाएगी। अभी भी समय है, हमें अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी।
{अमलेन्दु उपाध्याय, वरिष्ठ पत्रकार, राजनैतिक विश्लेषक, टीवी पैनलिस्ट व स्तंभकार हैं। }


