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इस बार के इवेंट में आधी आबादी केंद्र में

लगभग तीन दशकों से देश पंचायत और शहरी निकायों में ऐतिहासिक 33 फ़ीसदी महिला आरक्षण का भी साक्षी रहा है

इस बार के इवेंट में आधी आबादी केंद्र में
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- वर्षा भम्भाणी मिर्जा़

लगभग तीन दशकों से देश पंचायत और शहरी निकायों में ऐतिहासिक 33 फ़ीसदी महिला आरक्षण का भी साक्षी रहा है। इन बातों में कोई दम नहीं है कि सरपंच पति या मुखिया पति बनकर महिलाओं के पति ही कामकाज चलाते हैं। जैसा पुरुष प्रधान हमारा समाज है वहां इस दौर से भी गुज़रना होगा। महिला किस तरह बेड़ियों को तोड़कर अपनी संवैधानिक ताकत को पहचानती है।

मूमल की मां रसोई में रोटी बेल रही थी कि मूमल के पिता ने तेज़ आवाज़ में कहा- 'अरे सुनो, महिला आरक्षण बिल पास होने वाला है। अब 33 फ़ीसदी महिलाएं लोकसभा और विधानसभा में आ जाएंगी। ये असली मास्टर स्ट्रोक है भई। अब कुछ नहीं हो सकता इस विपक्ष का।

सुनकर मूमल की मां के चेहरे पर मुस्कान खिल गई थी। 'यह तो कमाल हो गया... जो कोई न कर पाया वह इन्होंने कर दिखाया। इतने वर्षों में हम तो इसे भूल ही गए थे।' कहते-कहते मूमल की मां बेलन और मुस्कुराहट दोनों को लिए बैठक में आ गई थी।

'ज़्यादा खुश मत हो। यह इस बार नहीं होने वाला। अभी जनगणना होगी, फिर नई सिरे से संसदीय क्षेत्र बनेंगे, 2029 में होगा यह सब।' मूमल के पिता जिन्हें वे शर्माजी कहती थीं, उन्होंने अपनी गर्दन टेढ़ी करते हुए कुछ कहा। इतना सुनना था कि मूमल की मां की खिली मुस्कान एकदम से सिकुड़ गई। 'हे भगवान, फिर किसलिए इतना तामझाम! क्यों नहीं की अब तक जनगणना, क्यों नहीं इतने सालों में इस पर विचार किया? 2029 तो बहुत दूर है और कल को किसने देखा है।' वह निराश स्वर में बोली थी।

मूमल की मां जैसा हाल कई महिलाओं का है। उनकी ख़ुशी जैसे वक्त का ब्रेक साथ लेकर आई है। कुछ ने नाचने-गाने में भी देर नहीं की। यूं यह लोकप्रिय प्रधानमंत्री की लोकप्रिय शैली में शामिल है। कभी थाली बजवाना तो कभी सबको कतार में लगवा देना। उनकी छवि ऐसी भी है कि वे बस कर डालते हैं- तुरंत प्रभाव से। नोटबंदी, कोरोना में देशबन्दी, कश्मीर से धारा 370 की विदाई...। वे अधिक वक्त नहीं लेते। इस मामले में उन्होंने लम्बा वक्त लिया है। शायद चुनाव नज़दीक हैं इसलिए और 2024 में महिला वोट की अहमियत को समझते हुए भी। महिलाओं को लग रहा है कि इस बार कसौटी पर आधी आबादी की भावनाएं हैं और कहीं अब वे इवेंट की सियासत में इस्तेमाल न हो जाएं। सांसद वृंदा करात उस वक्त बेहद सक्रिय भूमिका में थीं जब यह बिल 2010 में राज्यसभा में पास हुआ था। वे लिखती हैं-'मुझे अफ़सोस है कि जिस बिल को लाने में तीन दशकों तक संघर्ष किया वह एक नाकाम सरकार का कवच बनकर सामने आया है। सरकार अब संसदीय कार्यवाही को भी 'धमाके' की तरह प्रस्तुत कर रही है। मुझे याद है कि तमाम विरोध के बावजूद उस रात बिल के पास होने के बाद सुषमा स्वराज जी और हम सबने गले मिलकर एक दूसरे को बधाई दी थी। बहरहाल आज भी यह एक बेहतरीन निर्णय ही है। इस मौकेे पर जहां उन सबको याद किया जाना चाहिए जिन्होंने इसके लिए लम्बी लड़ाई लड़ी और उन नेताओं को कभी माफ़ नहीं किया जाना चाहिए जिन्होंने अतीत में अड़ंगा डाला। विधेयक की प्रति छीनकर फाड़ दी गई और सक्रिय महिला सदस्यों को 'परकटी' कहा। प्रमिला दण्डवते को शरद यादव ने यही सम्बोधन दिया था।

बिल से देश की जनता वाकिफ़ है, इसकी ज़रूरत से भी और अगर सरकार गंभीर है तो यह जल्द मिलना चाहिए। बिल टालने की वैचारिकता और लाने की सियासत को सूट करने की हालत में बिलकुल नहीं फंसना चाहिए। नहीं होगा, क्योंकि इस बार आधी आबादी केंद्र में है और लंबा इंतज़ार भी उन्हीं के हिस्से में आया है। नई संसद में दाखिल होने के ऐतिहासिक दिन राष्ट्रपति महोदया की अनुपस्थिति भी समझ से परे है। वे यहां सेंगोल की स्थापना के समय भी अनुपस्थित थीं। ऐसा क्यों है कि सत्तापक्ष सदैव श्रेय की होड़ में नज़र आता है? प्रधानमंत्री कहते हैं-'महिला आरक्षण बिल पर काफी चर्चा हुई, लेकिन यह सपना अधूरा था। ईश्वर ने ऐसे कामों के लिए मुझे चुना है।' फिर पहलवानों के यौन शोषण, मणिपुर में महिलाओं के ख़िलाफ़ यौन हिंसा, बिलकिस बानो के अपराधियों की समय से पहले रिहाई को किसने चुना है? यहां ईश्वर के चुने हुए प्रिय पात्र मौन क्यों रखते हैं? कठुआ, हाथरस में जब स्त्री की अस्मिता और वजूद तार-तार होते हैं तब भी मौन क्यों रहा जाना चाहिए। बहुत मायने रखता है कि आपका अपना ट्रैक रेकॉर्ड महिला को न्याय देने में बेहतर हो। बेशक़ महिला आरक्षण बिल का लाना अच्छी सोच है लेकिन महिला की सामाजिक हैसियत का भी मज़बूत होना ज़रूरी है कि वह खुद अपने लिए लड़ सके और गरिमा के साथ जी सके।

अब जब लोकसभा में महिला आरक्षण विधेयक पास हो गया है और लगभग सारे सांसद इसके समर्थन में हैं तो अगली की अगली (2029) लोकसभा में महिला सांसदों की संख्या 182 तो न्यूनतम होगी ही। परिसीमन के बाद यह बढ़ भी सकती है। हमारी संसद और विधानसभाओं में यह 15 प्रतिशत से ज़्यादा कभी नहीं रही। यहां तक कि पाकिस्तान (20 प्रतिशत), नेपाल (21) और बांग्लादेश (33) में भी महिला सांसदों की संख्या हमसे ज़्यादा है। दुनिया का औसत भी 26 फ़ीसदी है। भारत दुनिया में 141वें क्रम में है। यानी 140 देश महिलाओं को चुनने में हमसे आगे हैं। वर्तमान लोकसभा में सर्वाधिक महिला सांसद (82 ) हैं। सभी दलों ने बिल का स्वागत तो कर दिया है लेकिन ये खुद कभी अपने दलों में 33 फ़ीसदी टिकट महिलाओं को नहीं देते। केवल तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस ही थोड़े बेहतर हैं।

परिसीमन बड़ी चुनौती इसलिए साबित हो सकता है क्योंकि जनसंख्या के आधार पर सीटें पाने में उत्तर भारत हावी रहा है। दक्षिण में शिक्षा और परिवार नियोजन अपनाने के बाद आबादी पर नियंत्रण हुआ है, उत्तर भारत की आबादी बढ़ती जा रही है। 1971 की जनगणना के बाद आखिरी बार यह संख्या 543 हुई। ज़्यादा आबादी ज़्यादा सीटों के फ़ॉर्मूले पर दक्षिण को एतराज़ है। जनगणना की प्रक्रिया अगले दो सालों में पूरी हो पाती है और उसके बाद परिसीमन की, तब ही 2029 की लोकसभा बढ़ी हुई महिला सदस्यों को देख पाएगी। भारतीय जनता पार्टी का यह मास्टर स्ट्रोक इसीलिए भी कहा जाना चाहिए क्योंकि उसने महिला मतदाता को खुद से न केवल 24 बल्कि 29 के आम चुनावों तक से जोड़ लिया है। यह सच है कि 19 वीं लोकसभा के लिए पुरुषों की तुलना में महिलाओं ने ज़्यादा मतदान किया और भाजपा अपनी सफलता में इसे भी एक बड़ा कारण मानती है। लगभग तीन दशक से अधर में झूल रहे इस बिल को आधार देने के प्रयास पर जनता की पैनी नज़र होगी। स्त्री शक्ति ने ऐसा सकारात्मक माहौल तो बनाया है कि अंदर से विरोध करती रही पार्टियों को भी आज समर्थन की मुद्रा में आना पड़ा है।

लगभग तीन दशकों से देश पंचायत और शहरी निकायों में ऐतिहासिक 33 फ़ीसदी महिला आरक्षण का भी साक्षी रहा है। इन बातों में कोई दम नहीं है कि सरपंच पति या मुखिया पति बनकर महिलाओं के पति ही कामकाज चलाते हैं। जैसा पुरुष प्रधान हमारा समाज है वहां इस दौर से भी गुज़रना होगा। महिला किस तरह बेड़ियों को तोड़कर अपनी संवैधानिक ताकत को पहचानती है, उसके लिए नीना गुप्ता और रघुवीर यादव की वेब सीरीज पंचायत देखी जानी चाहिए। हल्ला 'कोटे में कोटा' का भी है। महिलाओं में भी पिछड़ी महिलाओं के आरक्षण की बात दलों के मुखिया कर रहे हैं। ओबीसी कोटा को शामिल करने का आग्रह है जबकि पुराने बिल में ऐसा नहीं था।

देखना होगा कि ये दल किस तरह सहमति बनाते हैं। यूं जिस शक्ति के साथ भारतीय जनता पार्टी अभी संसद में मौजूद है, इस बार सब कुछ कर सकती थी। महिला मतदाता अब बड़ी भूमिका में होंगी। मूमल की मां भी और नए दौर में उसे यह एहसास भी है कि लोकतंत्र की जननी कहे जाने वाले भारत की संसद में उसकी बेटियां अब ज़्यादा से ज़्यादा शिरकत करेंगी । दोहराना ज़रूरी है कि उन्हें चौकन्ना रहना होगा कि नीयत और इवेंट मैनेजमेंट के बारीक फर्क को भी समझ सकें। चुनावी वैतरणी पार करने के लिए उनकी भावनाओं का इस्तेमाल न हो सके। चुनकर वे ही महिलाएं आएं जो स्त्रियों की आवाज़ को लोकतंत्र के सर्वोच्च शिखर पर बुलंद कर सकें, दल की परछाई बनकर नहीं। नई संसद में सोनिया गांधी ने बहुत ठीक ही आग्रह किया- 'स्त्री के त्याग, स्त्री की गरिमा और स्त्री के धैर्य को पहचान कर ही हम लोग मनुष्यता की परीक्षा में पास हो सकते हैं।' नारी शक्ति वंदन अधिनियम नेताओं की असल परीक्षा होगी और रिपोर्ट कार्ड में स्त्रियां अंक भरेंगी।

(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं )


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