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ललित जी मालिक कम सम्पादक ज़्यादा थे

पत्रकारिता की बात आते ही ललित सुरजन जी का चेहरा सामने उभर आता है। पत्रकारिता से जुड़ा शायद ही कोई व्यक्ति होगा जिसने ललित जी की पत्रकारिता से कुछ सीखा न हो

ललित जी मालिक कम सम्पादक ज़्यादा थे
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-पुष्पेन्द्र पाल सिंह

(प्रधान संपादक : म.प्र. माध्यम, भोपाल)

पत्रकारिता की बात आते ही ललित सुरजन जी का चेहरा सामने उभर आता है। पत्रकारिता से जुड़ा शायद ही कोई व्यक्ति होगा जिसने ललित जी की पत्रकारिता से कुछ सीखा न हो। ललित जी को छात्र जीवन से ही सुनने और पढ़ने का मौका मिलता रहा है। उनसे मेरा बहुत लम्बा संपर्क रहा है। छात्र जीवन से ही हम उनसे किसी-न-किसी रूप में जुड़े रहे। उन्हें नजदीक से हमने पत्रकार और साहित्यकार के रूप में काम करते हुए देखा है। हमने एक पत्रकार के रूप में उनको सृजन करते हुए देखा है। मैंने जब यह याद करने की कोशिश की कि ललित जी से मेरा पहला परिचय कब हुआ? पहली मुलाकात और पहला परिचय दोनों में थोड़ा सा अंतर होता है। जब मैं विद्यार्थी था, डॉ हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर में, तो उस समय मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ एक ही राज्य हुआ करते थे। छत्तीसगढ़ का गठन नहीं हुआ था और मध्यप्रदेश के प्रमुख अख़बारों में देशबन्धु का नाम लिया जाता था और उसके संवाददाता बाकायदा वहां सागर में होते थे। उनसे हमारी मुलाकात होती रहती थी। साथ ही देशबन्धु भी हमे पढ़ने को मिलता रहता रहता था। अख़बार के माध्यम से हम लोग अपने विद्यार्थी जीवन से ही थोड़ा-बहुत ललित जी के बारे में जानने-सुनने लगे थे और फिर जब हम पत्रकारिता पाठ्यक्रम करने के लिए पहुंचे तथा पत्रकारिता के विद्यार्थी बने, तब भी पत्रकारिता की तैयारी के लिए हम बाबूजी (आ.मायाराम जी), ललित जी और देशबन्धु को पढ़कर ही सबसे ज़्यादा जानकारियां हासिल करते थे।

ललित जी कि जो पत्रकारिता थी उसको हम बहुत गहरे रूप से देखते और समझते रहे हैं। उनके संपादक काल में देशबन्धु आकार लेता रहा। उसके अलग-अलग जो कंटेंट होते थे, उसको हम बड़े गहराई से देखते और उससे सीखते थे। 1996 में मैंने माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय में अध्यापक के रूप में ज्वाइन किया, तब मुझे ललित जी से पहली मुलाक़ात का मौका मिला। हालांकि मेरी एक भेंट ललित जी से पहले भी हुई थी क्योंकि सागर विश्वविद्यालय में जब जर्नलिज्म का विद्यार्थी था, तब एक लेक्चर देने के लिए विभाग में उन्हें आमंत्रित किया गया था, जिसे मुझे भी सुनने का मौका मिला था। उसी दौरान उनके बारे में जाना। ललित जी माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के महापरिषद के सम्माननीय सदस्य थे और उस सदस्य के रूप में माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय जो कि देश का पहला पत्रकारिता विश्वविद्यालय था और हिंदी पत्रकारिता में सर्वाेच्च कार्य करने के लिए उसकी स्थापना की गई थी, उसको आकार देने वह उन्होंने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे। जब विश्वविद्यालय में मैं शिक्षक के रूप में काम कर रहा था, तब उनके साथ अच्छे से मिलने का हमे अवसर प्राप्त हुआ। वो हमारे लिए बड़े गौरव का क्षण था और उस समय मैंने उनके व्यक्तित्व को बहुत करीब से देखा और उसके बाद तो लगातार उनसे संपर्क होता रहा और फिर अंतिम समय तक उनसे मेरी बातचीत होती रही। कभी कवि सम्मेलनों, तो कभी अन्य मंचों पर उनसे मुलाकात होती रही। वे भोपाल जब भी आये, तब भी उनसे अक्सर मुलाकात होती रहती थी।

उनकी पत्रकारिता के बहुत से उदाहरण हमारे जेहन में है। उन्होंने जिस तरह की पत्रकारिता की, उससे हमे लगता था कि शायद ये काम देशबन्धु अथवा ललित सुरजन जी ही कर सकते हैं। हम लोग तो विद्यार्थी जीवन में भी देशबंधु पढ़ते थे और उसके बाद जब पत्रकारिता शिक्षक के रूप में काम शुरू किया, तब भी कई बार उनकी पत्रकारिता की शैली चर्चा में बनी रहती थी। ललित सुरजन जी के संपादन का ही प्रभाव था कि लगातार 10 वर्षों तक देशबन्धु को राष्ट्रीय स्तर का स्टेट्समैन ग्रामीण पत्रकारिता पुरस्कार मिला। ग्रामीण पत्रकारिता को नया आयाम देना ही ललित सुरजन जी की विशेषता थी। वो नए-नए विषयों पर रिपोर्टरों को काम करने के लिए कहते रहते थे। ये उनके संपादन में ही संभव था। देशबंधु समाचार पत्र को उन्होंने एक तरह से पत्रकारिता का प्रशिक्षण केंद्र भी बना दिया था और बहुत से लोगों को उन्होंने तैयार किया। उनका कहना था कि कोई भी रिपोर्टर कहीं भी जाये तो तैयारी के साथ जाए। इसलिए वे स्वयं तैयारी करवाते थे, उसके बाद उन्हें भेजते थे। उनका जो साहित्यिक योगदान था, वह भी उल्लेखनीय है। देशबन्धु का रविवारीय परिशिष्ट पूरी तरह से साहित्य पर केंद्रित होता था। वह दरअसल एक साहित्यिक पत्रिका की तरह था। उसमें फिल्म, संगीत, साहित्य, कविताएं, नाटक आदि होते थे।

कोई भी वक़्त हो, कोई भी मौका हो - ललित जी मालिक कम और सम्पादक ज़्यादा दिखाई देते थे, जो उनकी सबसे ख़ास बात थी। वे अपने कर्मचारियों और उनके परिवार की पूरी जानकारी रखते थे तथा उनकी ज़िम्मेदारियों को भलीभांति समझते थे। उनके व्यक्तित्व के इतने सारे आयाम हैं जिनपर हम घंटो चर्चा कर सकते है। उनको मैंने सदैव बहुत ही विनम्र, बहुत ही संवेदनशील, बहुत ही आत्मीय इंसान के रूप में पाया। आखिरी समय तक मेरी उनसे बातचीत होती रही। मैं उनसे हमेशा जुड़ा रहा। हमेशा वो पूरे उत्साह से लबरेज रहते थे। मुझे लगता है की ललित सुरजन जी का नाम इतिहास में दर्ज होगा। आने वाली पीढ़ियों के लिए पत्रकारिता किस तरह की हो सकती है, इसके लिए वे पहले भी प्रेरणा देते थे और आगे भी देते रहेंगे। पत्रकारिता के मूल्यों को समझना हो तो ललित सुरजन जी को समझना आवश्यक है। उनकी स्मृतियों को भूला पाना बेहद मुश्किल है।


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