हम तो कहेंगे…. ललित जी फिर आना
ललित जी के विराट व्यक्तित्व को शब्दों में समेटना बहुत कठिन है

राजेश पांडेय
ललित जी के विराट व्यक्तित्व को शब्दों में समेटना बहुत कठिन है। उनकी शख्सियत के कई पहलू हैं। विविध रंग और तेवर हैं। वे एक साथ कई क्षेत्रों में सक्रिय थे। देशबन्धु के संपादन के साथ साहित्यिक, सांस्कृतिक और सामाजिक गतिविधियों में उनकी निरंतर भागीदारी रहती थी। उनकी दृष्टि का विस्तार अनंत था। वे अपने समय से बहुत आगे थे। इसकी झलक अखबार के पन्नों में मिलती थी। जितने विविध विषयों पर नए कॉलम और फीचर देशबन्धु में प्रकाशित होते थे, शायद उस समय किसी अन्य हिंदी अखबार में नहीं होते थे। वे बाबूजी (देशबन्धु के संस्थापक-संपादक मायाराम सुरजन) की समृद्ध विरासत के सर्वथा योग्य उत्तराधिकारी थे। बाबूजी ने अख़बार को प्रतिष्ठा के जिस शिखर पर पहुंचाया, उस वैभव का उन्होंने और आगे विस्तार किया। ललित जी की सभी गतिविधियों में श्रेष्ठ मानवीय गुणों की झलक मिलती थी।
देशबन्धु में 25 वर्ष से अधिक समय गुजारने के साथ मुझे उन्हें कई बार नजदीक से देखने का अवसर मिला। उनसे संभवतः पहली मुलाकात 1972-73 में देशबन्धु, जबलपुर के बल्देवबाग स्थित दफ्तर में हुई थी। मुझे अखबार में आए बमुश्किल डेढ़-दो साल हुए होंगे। उन्होंने, मेरे काम, रुचि और पारिवारिक पृष्ठभूमि की बारीकी से जानकारी ली। अंतरराष्ट्रीय मामलों, विज्ञान, खेलों और फिल्मों में मेरी दिलचस्पी जानकार उन्हें इन विषयों पर लिखने का सुझाव दिया। शायद इसका ही प्रभाव था कि मैंने अंतरराष्ट्रीय विषयों और क्रिकेट पर लेखन की शुरुआत कर दी।
उनकी सक्रियता के दौर में देशबन्धु ने अखबारों की दुनिया में विशिष्ट पहचान बनाई थी। मुझे कई बार इसका अहसास हुआ। 1983 में भारत-पाकिस्तान के बीच नागपुर में क्रिकेट टेस्ट मैच था। मैं उस समय देशबन्धु, जबलपुर में पहला पेज देखता था। संपादक देवेंद्र सुरजन से मैंने आग्रह किया कि मैं टेस्ट मैच देखने नागपुर जाना चाहता हूं। वे तैयार हो गए। उन्होंने नागपुर में कार्यरत वरिष्ठ पत्रकार प्रकाश दुबे से कहकर प्रेस गैलरी के लिए प्रवेश पत्र की व्यवस्था कराई।
उन दिनों टेस्ट मैच के तीसरे दिन के बाद एक दिन खेल नहीं होता था। इसलिए मैंने खाली समय में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुख्यालय जाने का निश्चय किया। वहां संयोग से संघ प्रमुख बालासाहेब देवरस से मुलाकात हो गई। वे दक्षिण भारत के दौरे से लौटे थे। वे बिना किसी अपाइंटमेंट के मुझसे मिलने को तैयार हो गए। बातचीत के बीच अचानक उन्होंने पूछा - मायाराम जी कैसे हैं। इन दिनों कहां हैं। एक और वाकया देशबन्धु जैसे प्रादेशिक अख़बार की प्रसिद्धि के दर्शन कराता है। 1984 में प्रेस इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया और प्रेस फाउंडेशन ऑफ एशिया, मनीला ने नई दिल्ली में डेवलपमेंट रिपोर्टिंग पर एक सप्ताह की वर्कशॉप का आयोजन किया था। ग्रामीण पत्रकारिता में देशबन्धु की पहचान बन चुकी थी। ललित जी ने मुझे वर्कशॉप में भेजा। वहां कई अंग्रेजी और भाषायी अखबारों के रिपोर्टर आए थे। लगभग सभी देशबन्धु को जानते थे। उस समय अपने संस्थान को लेकर गौरव की अनुभूति होना स्वाभाविक थी।
देशबन्धु एक प्रादेशिक समाचार पत्र था लेकिन संपादकीय टिप्पणियों, खबरों के चयन, प्रस्तुतिकरण, कॉलम, फीचर, विशेषांकों, विशेषज्ञों के लेखों के मामले में उसका अंदाज किसी उत्कृष्ट राष्ट्रीय अखबार से कम नहीं था। इसके पीछे ललित जी और उनकी टीम की दृष्टि काम करती थी। अखबार की खबरों और अन्य सामग्री में निडरता, निष्पक्षता, संतुलन और सौम्यता झांकती थी। ये गुण ललित जी के व्यक्तित्व की पहचान थे। उनकी निर्भीकता लेखन के साथ सामान्य व्यवहार में दिखाई पड़ती थी। एक वाक़या है जिसका ज़िक्र उन्होंने "देशबन्धु के 60 साल लेखमाला" में किया है। 1979 में रायपुर में देशबन्धु के नए भवन के भूमि पूजन कार्यक्रम में तत्कालीन केंद्रीय मंत्री पुरुषोत्तम लाल कौशिक ने ऐन मौके पर आने से इनकार कर दिया था। उनका नाम निमंत्रण पत्रों पर छप चुका था। एक रात पहले रायपुर सर्किट हाउस में ललित जी ने श्री कौशिक से मुलाकात के दौरान कहा- आज आप संसद सदस्य हैं, कल नहीं रहेंगे लेकिन देशबन्धु रहेगा और तब मैं पूछूंगा कि आपने हमारे साथ ऐसा बर्ताव क्यों किया था।
कुछ और उदाहरणों पर गौर कीजिए। जुलाई-अगस्त 1997 में एक दिन मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह का फोन आया। उन्होंने कहा, ललित जी सितंबर में पचमढ़ी में कांग्रेस का चिंतन शिविर है। इसमें आपका सहयोग चाहिए। श्री सिंह चाहते थे कि उस शिविर में किसी एक समय के भोज का आयोजन देशबन्धु की ओर से हो। ललित जी का जवाब था - दिग्विजय जी यह तो आप उलटी गंगा बहा रहे हैं। प्रेस वाले क्यों राजनीतिक दल के कार्यक्रम मेें लंच - डिनर देंगे। दिग्विजय सिंह ने कहा लेकिन दूसरे अख़बार तो दे रहे हैं। ललित जी ने कहा, वे दे रहे होंगे। उनको पद्मश्री चाहिए। राज्यसभा में जाना होगा। और भी कोई काम होगा। मुझे यह सब नहीं चाहिए। मुझसे तो यह नहीं होगा। ज़ाहिर है, वे थोड़े से लाभ के लिए अपने सम्मान और गरिमा से समझौता नहीं कर सकते थे। इसी तरह 2003 में छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव के लिए देशबन्धु को कांग्रेस पार्टी के विज्ञापन जारी नहीं किए गए थे। ललित जी ने मुख्यमंत्री अजीत जोगी को फोन किया। जोगी जी ने कहा, अमित से बात कर लीजिए। ललित जी का जवाब था, अमित से बात करने का सवाल ही नहीं। आपको विज्ञापन देना है तो दीजिए, वरना अखबार आपकी कृपा के बिना भी चल जाएगा।
किसी मुख्यमंत्री से इतनी बेबाकी से बिरले ही किसी अख़बार का मालिक या संपादक ही बात कर सकता था। इस साहस के पीछे नैतिकता, आदर्शों, मूल्यों और पेशे की गरिमा का कवच दमकता था। देशबन्धु ने अखबार की आड़ में किसी अन्य कारोबार को आगे नहीं बढ़ाया। इसकी झलक अखबार के तेवरों और ललित जी के लेखन में जगह-जगह पर मिलती है। उस समय दिग्विजय सिंह मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे। देशबन्धु को अपेक्षा के अनुरूप राज्य सरकार के विज्ञापन नहीं मिल रहे थे। वे इसका विश्लेषण करते हुए "देशबन्धु : चौथा खंभा बनने से इनकार" लेखमाला की एक किश्त में लिखते हैं- दिग्विजय सिंह अपने लिए राष्ट्रीय मंच पर बड़ी भूमिका निभाने का रास्ता बना रहे थे जिसमें देशबन्धु जैसे पूंजी विरत, लॉबिंग करने में असमर्थ, मूलत: प्रादेशिक समाचार पत्र की कोई उपयोगिता नहीं थी। उन्हें शायद अर्जुन सिंह के साथ हमारे संबंधों को लेकर भी संशय था क्योंकि उस समय मध्यप्रदेश से वे ही एक बड़े नेता थे जिनकी राष्ट्रीय स्तर पर उपस्थिति उनकी महत्वाकांक्षा में बाधा बन सकती थी। व्यक्ति केंद्रित राजनीति के नए युग में परंपरा, संबंध, सिद्धांतों की बात करना बेमानी थी। यही आज का भी सच है।
उनकी लेखनी वर्तमान हालात और भविष्य की स्थितियों में झांकने की कोशिश करती है। राजनीतिक, सामाजिक आर्थिक परिदृश्य के साथ पत्रकारिता की दुर्दशा का आईना भी पेश करती है। वे चौथा खंभा लेखमाला की एक कड़ी में लिखते हैं- दरअसल एलपीजी (उदारीकरण, निजीकरण, वैश्वीकरण) की अवधारणा जिसने 1980 के आसपास भारतीय राजनीति में सेंध लगाना शुरू किया था, दस साल बीतते न बीतते उसका दमदार हस्तक्षेप हमारे नागरिक जीवन के लगभग हर पहलू में होने लगा था। समाचारपत्र व्यवसाय भी इसकी चपेट में आ चुका था। अखबार में संपादक नामक संस्था विलोपित हो रही थी तथा पूंजीपति मालिकों के नुमाइंदे पत्रकार बनकर सत्ताधीशों से रिश्ते बनाने लगे थे। राजनेता हों या अफसर उनके दैनंदिन कार्य इन नुमाइंदों की मार्फत सध जाते थे। उधर मालिकों के साथ उनकी व्यापारिक भागीदारी आम बात हो गई थी। दोनों पक्षों के लिए इसमें फायदा ही फायदा था। इस अभिनव व्यवस्था में वह अखबार इनके लिए गैर उपयोगी ही था जिसका कोई व्यावसायिक हित न हो और जिसकी रुचि इवेंट मैनेजमेंट की बजाय मुद्दों की पत्रकारिता करने की हो।
ललित जी का चिंतन मानवीयता, न्याय, समानता, स्वतंत्रता, उदारता, खुलेपन का पक्षधर था। वे सांप्रदायिकता, धर्मांधता, कट्टरता, संकीर्णता और किसी भी तरह के भेदभाव के खिलाफ थे। उन्होंने हमेशा अपने सहकर्मियों को काम करने की पूरी आजादी दी थी। वे वर्तमान कालखंड से आगे बढ़कर सोचने वाले स्वप्नदर्शी थे। उन्होंने हमेशा नई प्रतिभाओं और संभावनाशील लोगों को आगे बढ़ाया। वे देशबन्धु को मध्यप्रदेश का प्रतिनिधि अखबार बनाना चाहते थे। भोपाल में देशबन्धु को दोबारा स्थापित करने का सपना देखते थे। उन्होंने, इस मकसद से 1985 में भोपाल से साप्ताहिक देशबन्धु की शुरुआत की थी। रायपुर से आए गिरिजा शंकर संपादक थे। मुझे उनके सहयोगी के बतौर जबलपुर से भेजा गया था। 16 पेज के टेबलॉयड अख़बार ने पूरे प्रदेश में दस्तक दी थी। राज्य के लगभग सभी जिलों में उसके संवाददाता थे। साप्ताहिक देशबन्धु ने दैनिक अखबार के लिए अच्छी ज़मीन तैयार की थी। लेकिन, बदलते राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक परिवर्तन और साधनों की कमी से दैनिक अखबार वांछित कामयाबी हासिल नहीं कर सका।
ललित जी ने मुझे देशबन्धु भोपाल में राजनीतिक संपादक और स्थानीय संपादक की जिम्मेदारी सौंपी थी। पूरे कार्यकाल में मुझे कभी भी किसी किस्म के दबाव का सामना नहीं करना पड़ा। काम करने की ऐसी छूट अकल्पनीय है। आर्थिक कठिनाइयों के बावजूद कभी मीटिंग में इन बातों का ज्यादा जिक्र नहीं होता था। संपादक से उनकी बातचीत खबरों, मुद्दों, कॉलम और अखबार के प्रस्तुतिकरण पर केंद्रित रहती थी। वे अपने सहयोगियों के काम में मीन-मेख निकालने की बजाय उसके अच्छे पहलुओं पर अधिक ध्यान देते थे। देशबन्धु में काम करने और प्रतिभा निखारने के जितने मौके मिलते थे, शायद वैसे बहुत कम हिंदी अखबारों में लोगों को नसीब होते होंगे। ललित जी अपने हर साथी की वास्तविक जरूरतों का ख्याल रखते थे। उनकी कोशिश होती थी कि स्टाफ़ को सभी जरूरी सुविधाएं और अवसर मिलें। सीमित साधनों के बावजूद देशबन्धु में आर्थिक रूप से समृद्ध अन्य अखबारों की तुलना में वेतन और सुविधाएं ठीक थीं।
मैंने 1998 में देशबन्धु छोड़कर दैनिक भास्कर, भोपाल में पत्रकारिता की अगली पारी शुरू की। उसके बाद भी उनसे लगातार संपर्क बना रहा। फोन पर देश- विदेश, समाज, पत्रकारिता सहित अन्य ज्वलंत मुद्दों पर उनसे चर्चा होती रही। उनसे बातचीत और उनके लेखन को पढ़ना किसी स्मरणीय सबक से कम नहीं रहता था। वे सही मायनों में आधुनिक पत्रकारिता के स्कूल थे। उनके पास असंख्य आइडिया रहते थे। देशबन्धु ने 1980 और 1990 के दशक में जिन आइडिया पर काम किया, उन्हें हम आज भी कई सफल अखबारों में नए कलेवर और साज-सज्जा के साथ लागू होते देखते हैं।
ललित जी से फोन पर मेरी अंतिम बातचीत उनके निधन से कुछ दिन पहले ही हुई थी। यह शायद नवंबर 2020 के अंतिम दिन थे। ललित जी दिल्ली में इलाज कराकर रायपुर लौटे थे। उन्होंने बताया, कि वे दीपावली के लिए रायपुर आए हैं। अब फिर दिल्ली लौटना है। वहां से लौटकर विस्तार से बात होगी। लेकिन वह दिन नहीं आया। 2 दिसंबर को उनके निधन की खबर मिली। हमारे जैसे लोगों के लिए वे महानायक थे। उनका मुस्कुराता, आत्मविश्वास से दीप्त चेहरा कुछ नया करने और लगातार जूझने की प्रेरणा देता है। हम तो कहेंगे, नमस्कार ललित जी ! फिर आना। आज की दुनिया में ललित जी जैसी शख़्सियत की बहुत ज़्यादा जरूरत है। मूल्यहीनता, निर्ममता और मतलब परस्ती के अंधकार में ललित जी की ऊर्जा, उत्साह और गरिमा अलग रास्ता दिखाते हैं।


