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लोकसाहित्य में प्रकृति के प्रति हमारी संवेदनाएं और सदभावनाएं सुरक्षित हैं

साहित्य अकादेमी द्वारा आयोजित प्रकृति और साहित्य: अंतस्संबंध विषय पर आयोजित परिसंवाद में सभी विद्वानों ने प्रकृति और साहित्य के रिश्ते पर अपने-अपने विचार प्रस्तुत किए

लोकसाहित्य में प्रकृति के प्रति हमारी संवेदनाएं और सदभावनाएं सुरक्षित हैं
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नई दिल्ली। साहित्य अकादेमी द्वारा आयोजित प्रकृति और साहित्य: अंतस्संबंध विषय पर आयोजित परिसंवाद में सभी विद्वानों ने प्रकृति और साहित्य के रिश्ते पर अपने-अपने विचार प्रस्तुत किए। प्राचीन काल से लेकर आज तक साहित्य की विभिन्न विधाओं में प्रकृति चित्रण को लेकर सभी ने उदाहरण के साथ अपनी बात रखी। बीज वक्तव्य देते हुए प्रसिद्ध हिंदी-मलयालम-संस्कृत विद्वान सुधांशु चतुर्वेदी ने कहा कि प्रकृति का वर्णन सभी साहित्यों में अनुभूति प्रधान और परंपरागत प्रधान के रूप में उपलब्ध है। अनुभूति प्रधान वर्णन जहाँ सहज और सरल है, वहीं परंपरागत प्रधान में परंपरा एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

उन्होंने संस्कृत साहित्य का उदाहरण देते हुए कहा कि वहां प्रकृति को देवी के रूप में चित्रित किया जाता है। उन्होंने कालीदास की रचनाओं से अनेक उदाहरण प्रस्तुत करते हुए कहा कि कौतूहल एवं दु:ख में भी प्रकृति अनेक रूप में रचनाकारों का साथ देती रही है। उन्होंने हिंदी और मलयालम् भाषाओं के लेखकों के भी कई उदाहरण प्रस्तुत किए।

पूर्णचंद टंडन ने हिंदी साहित्य में प्रकृति के विभिन्न चित्रों को प्रस्तुत करते हुए मध्यकाल से लेकर आधुनिक काल तक की रचनाओं और लेखकों के बारे में बताते हुए कहा कि छायावाद के बाद भी प्रकृति चित्रण की परंपरा बढ़ती रही है। उन्होंने रसखान, सूरदास से लेकर मैथिलीशरण गुप्त तक की रचनाओं के उदाहरण से स्पष्ट किया कि हिंदी में तो प्रकृति के नाम पर काव्य-संग्रहों के नाम तक रखे जाते रहे हैं।

दीप्ति त्रिपाठी ने संस्कृत साहित्य प्रो. सादिक ने उर्दू साहित्य एवं अशोक कुमार ज्योति ने सामाजिक सरोकारों से संबंधित प्रकृति चित्रण को श्रोताओं के सामने प्रस्तुत किया। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि रमाकांत शुक्ल ने प्रकृति और साहित्य के बीच भारतीय परंपरा को स्मरण करते हुए सभी भारतीय साहित्य में प्रकृति की विलक्षण भूमिका को सबके सामने प्रस्तुत किया। उन्होंने प्रकृति और स्वास्थ्य के बीच साहित्य के संबंधों के उदाहरण देते हुए कहा कि संपूर्ण भारतीय साहित्य विशेषकर वैदिक साहित्य प्रकृति और स्वास्थ्य के साथ मानव के सहज संबंधों को बहुत सुंदरता से प्रस्तुत करता है।

अध्यक्षीय वक्तव्य में प्रख्यात लोक कला विशेषज्ञ एवं विदूषी विद्या बिंदु सिंह ने लोक साहित्य में प्रकृति के कई बिंबों को प्रस्तुत करते हुए कहा कि भारतीय लोक साहित्य प्रकृति के बिना अधूरा है। उन्होंने अवधी भाषा के कई उदाहरण प्रस्तुत करते हुए प्रकृति और साहित्य के संबंधों को प्रस्तुत किया। कार्यक्रम के आरंभ में सभी प्रतिभागियों का स्वागत अकादेमी की उपसचिव (प्रशासन) रेणु मोहन भान द्वारा पुस्तकें भेंट करके किया गया। संचालन साहित्य अकादेमी के हिंदी संपादक अनुपम तिवारी ने किया।


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