युद्धों से यारी के निहितार्थ ?
युद्ध में जीत की लालसा, राष्ट्रीय संप्रभुता का अहंकार और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की मुनाफे की चाहत हमें उस मुकाम तक ले आयी है

- अरुण कुमार त्रिपाठी
युद्ध में जीत की लालसा, राष्ट्रीय संप्रभुता का अहंकार और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की मुनाफे की चाहत हमें उस मुकाम तक ले आयी है, जहां हम जीत के लिए परमाणु बम की धमकी तक देने तैयार हैं और हार को झूठ के गुब्बारों से सजाकर जीत दिखाना चाहते हैं। लगता है, युद्ध एक स्थायी भाव है और युद्धविराम एक संचारी भाव। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के लिए युद्धविराम और शांति व्यापार करने का एक अवसर है और युद्ध हथियार बेचने, अमेरिका को महान बनाने और प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा करने की रणनीति का।
चार दिन चले 'आपरेशन सिंदूर' का वैसे तो युद्धविराम हो चुका है, लेकिन उसका 'शांतिपर्व' नहीं आया है। जिस तरह से दोनों ओर से युद्ध जीतने के दावे किए जा रहे हैं उससे तो नहीं लगता कि यह जल्दी आने वाला है, पर सवाल है कि पत्रकार, राजनेता, अधिकारी और पूरे समाज पर युद्धोन्माद का आख्यान आखिर इस तरह हावी क्यों है? जबकि पूर्व थलसेनाध्यक्ष जनरल नरवाणे कह चुके हैं कि युद्ध बालीवुड की फिल्म नहीं है, उसे आखिरी विकल्प के तौर पर ही रखना चाहिए। युद्ध का मौजूदा आख्यान पड़ौसी देश के विरुद्ध ही नहीं है, बल्कि उन नागरिकों, दलों और राजनेताओं के प्रति भी है जो सत्तापक्ष और सरकार से सवाल करते हैं।
अगर कोई राजनेता या सैनिक अधिकारी सच बोलने का साहस दिखाता है तो उस पर लोग ऐसे टूट पड़ते हैं जैसे कि वह देशद्रोही या गद्दार हो या राष्ट्रहित को चोट पहुंचाने वाली विवेकहीनता का प्रदर्शन कर रहा हो। हमारे 'चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ' (सीडीएस) जनरल अनिल चौहान ने सिंगापुर में जेट विमानों को क्षति पहुंचने की बात क्या स्वीकारी कि राजनयिक और रक्षा विशेषज्ञ उन पर टूट पड़े। लोग कह रहे हैं कि उन्होंने एक 'कार्यनीतिक चूक' स्वीकार करके पाकिस्तान की जीत के आख्यान को बढ़त का मौका दे दिया है, जबकि उन्होंने इस पूरे युद्ध पर एक विवेकपूर्ण टिप्पणी करते हुए यह भी कहा था कि दोनों ओर के सैनिक अधिकारियों में इतना विवेक था कि उन्होंने इस टकराव को नाभिकीय युद्ध तक नहीं जाने दिया।
युद्ध में जीत की लालसा, राष्ट्रीय संप्रभुता का अहंकार और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की मुनाफे की चाहत हमें उस मुकाम तक ले आयी है, जहां हम जीत के लिए परमाणु बम की धमकी तक देने तैयार हैं और हार को झूठ के गुब्बारों से सजाकर जीत दिखाना चाहते हैं। लगता है, युद्ध एक स्थायी भाव है और युद्धविराम एक संचारी भाव। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के लिए युद्धविराम और शांति व्यापार करने का एक अवसर है और युद्ध हथियार बेचने, अमेरिका को महान बनाने और प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा करने की रणनीति का।
जो स्थिति भारतीय उपमहाद्वीप में बनी है वह कमोवेश पूरी दुनिया में निर्मित हो रही है। भारत के मुख्यधारा के मीडिया पर जिस तरह से सेना के युद्धोन्मादी सेवानिवृत्त अफसरों के ढपोरशंखी बयानों और वक्तव्यों की बाढ़ आई हुई है उतना तो शायद दुनिया के किसी देश में नहीं है। रूस-यूक्रेन युद्ध या इजराइल-फिलस्तीन युद्ध ने तथाकथित सभ्य देशों को असभ्य देश के रूप में तब्दील कर दिया है और नहीं लगता कि उनके पास मौजूदा स्थिति का कोई समाधान है। विडंबना है कि भारतीय उपमहाद्वीप में इस दौरान शांति का स्वर हाशिए पर ठेल दिया गया है। युद्ध के शुरू होते ही मैग्सैसे पुरस्कार विजेता संदीप पांडेय और मेधा पाटकर ने युद्धविराम की अपील की थी, लेकिन उनके बयानों को कितना महत्त्व दिया गया, कहा नहीं जा सकता।
आज इस उपमहाद्वीप में जिस प्रकार से चीन और पाकिस्तान की ओर से भारत पर युद्ध थोपने की भविष्यवाणी की जा रही है, रणनीतिक और राजनयिक रूप से भारत जिस तरह से अलग-थलग पड़ता दिख रहा है वह सब एक भयावह परिदृश्य उपस्थित करता है। इससे निपटने का एक तरीका तो यह है कि लोगों की बुनियादी आवश्यकताओं में कटौती करते हुए निरंतर हथियार जमा किए जाएं, उनको टेक्नोलॉजी के लिहाज से उन्नत करते रहा जाए और भारत जैसी विशाल आबादी को सैन्य प्रशिक्षण अनिवार्य कर दिया जाए। दूसरा तरीका है कि इस उपमहाद्वीप से लेकर दुनिया के दूसरे हिस्सों तक शांति का वह अंतरराष्ट्रीय अभियान चलाया जाए जिसकी कल्पना रवींद्रनाथ टैगोर, महात्मा गांधी, मार्टिन लूथर किंग, लियो टालस्टाय, विनोबा, थोरो, क्रोपाटकिन और डेस्मांड टूटू जैसे विचारकों ने की थी। दूसरा रास्ता अधिक श्रेष्ठ और टिकाऊ है और उसकी चर्चा उसी तरह होनी चाहिए जिस तरह भीष्म ने 'शांतिपर्व' में की थी।
रवींद्रनाथ टैगोर ने 'गीतांजलि' के अलावा 'स्वर्ग का गीत' जैसी कविताओं में 'हार की गरिमा' का वर्णन किया है तो महात्मा गांधी ने अहिंसा को परमाणु बम से भी श्रेष्ठ हथियार माना है। टैगोर कहते हैं कि हार जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। इससे व्यक्ति अधिक मजबूत और विनम्र बनता है और आध्यात्मिक रूप से प्रेरित करने वाला अनुभव प्राप्त करता है। वे कहते हैं कि हार निराशा और कमजोरी नहीं है, बल्कि सीखने और विकास का अवसर है। हार से घबराना नहीं, बल्कि इससे जीवन की गहरी समझ हासिल की जा सकती है। हार भगवान के करीब ले जाती है।
गांधी कहते हैं, 'जहां तक मैं देख सकता हूं, परमाणु बम ने उस उत्कृष्ट भावना को जड़ बना दिया है जिसके सहारे मानव जाति युगों से जीवित रही है। एक समय तथाकथित युद्ध नियम हुआ करते थे जो उन्हें सह्य बनाते थे। अब जो नग्न सत्य है उसे हम जानते हैं। युद्ध में सिवाय पशुबल के कोई नियम नहीं होता। परमाणु बम ने 'मित्र शक्तियों' को खोखली विजय दिलाई, लेकिन उसके परिणामस्वरूप कुछ काल के लिए जापान की आत्मा की ही हत्या हो गई है। संहारक राष्ट्र की आत्मा का क्या हुआ है उसे देखने का समय अभी नहीं आया है। (परमाणु और अहिंसा, हरिजन, सात जुलाई 1946)।
नार्वे के समाजशास्त्री योहान गाल्तुंग का कहना है कि हिंसा तीन तरह की होती है। एक प्रत्यक्ष हिंसा, दूसरी संरचनात्मक हिंसा और तीसरी सांस्कृतिक हिंसा। इनमें से बाद की दो किस्म की हिंसा अदृश्य रहती हैं, लेकिन वे अधिक शक्तिशाली होती हैं। वे हिंसा दूर करने के लिए विवाद के समाधान की बजाय विवाद के रूपांतरण की बात करते हैं। विवाद का समाधान अस्थायी होता है, जबकि विवाद का रूपांतरण समस्या की जड़ तक जाकर उसका हल करना होता है।
मानव सभ्यता की प्रगति के साथ युद्ध के विरोध की एक चेतना निर्मित हुई है, लेकिन इक्कीसवीं सदी में जिस तरह विचार शून्यता, बड़बोले नेतृत्व और खतरनाक हथियारों की निर्मिति हुई है उससे फिर एक बार युद्ध का डंका बजना तेज हो गया है। 'संयुक्त राष्ट्र संघ' के गठन के साथ अमेरिकी विश्वविद्यालयों में सैन्य शास्त्र के प्रोफेसरों की जरूरत पर प्रश्न चिह्न लग गया था, आजकल सैन्य विशेषज्ञों की ही धूम मची है। ऐसे में अगर मानव को अपनी सभ्यता का 'शांतिपर्व' स्थापित करना है तो एक ऐसे समाज की कल्पना करनी होगी जो अहिंसक हो और हत्याविहीन हो। एक ऐसी विश्व व्यवस्था हो जो समस्याओं की जड़ में जाकर विवादों का रूपांतरण करे।
यह तभी हो सकता है जब शांति और अहिंसा वाली अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था निर्मित हो जो राष्ट्रीय संप्रभुता के हिंसक रूप और राजनेताओं के विजय के अहंकार का शमन करे और शांति को एक वैश्विक मूल्य के रूप में पोषित करे। 16 अप्रैल 1953 को समाचार संपादकों द्वारा अमेरिकी समाज को दिया गया वह संबोधन उल्लेखनीय है कि 'प्रत्येक बंदूक जिसका कि निर्माण हुआ है, प्रत्येक युद्धपोत जिसका कि जलावतरण हुआ है तथा प्रत्येक रॉकेट जिसको कि छोड़ा गया है, अंतिम अर्थ में उनसे चोरी है जो भूखे हैं, जिन्हें भोजन नहीं कराया गया है तथा वे जो युद्ध से प्रभावित हैं और जिनके पास वस्त्र नहीं है।'


