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खालिस्तान मुद्दे का विदेश नीति पर प्रभाव

1947 में भारत को ब्रिटेन से आज़ादी मिलने के बाद, कुछ लोगों ने नहीं सोचा था कि इतने सारे अलग-अलग क्षेत्रों वाला देश एक साथ रह सकता है

खालिस्तान मुद्दे का विदेश नीति पर प्रभाव
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- गिरीश लिंगन्ना

खालिस्तान आंदोलन की जड़ें सिख धर्म में हैं, भारत में जिसके मानने अनुयायियों की संख्या लगभग 230 लाख और दुनिया भर में 30 लाख अतिरिक्त है। सिख धर्म की शुरुआत 15वीं शताब्दी में पंजाब में हुई, जो उत्तरी भारत का एक क्षेत्र था जिस पर उस समय मुगलों का नियंत्रण था। 1699 में, सिख धर्म के नेता, गुरु गोविंद सिंह ने धर्म में महत्वपूर्ण परिवर्तन किये। उन्होंने ऐसा इसलिए किया क्योंकि वह मुस्लिम शासन के अधीन रहने से नाखुश थे और उन्होंने सिख पुजारियों के बीच भ्रष्टाचार देखा था।

1947 में भारत को ब्रिटेन से आज़ादी मिलने के बाद, कुछ लोगों ने नहीं सोचा था कि इतने सारे अलग-अलग क्षेत्रों वाला देश एक साथ रह सकता है। भारत एकजुट रहने में कामयाब रहा है, लेकिन इसकी एकता के लिए चुनौतियां भी बनी रही हैं। एक महत्वपूर्ण चुनौती खालिस्तान आंदोलन है, जो सिखों के लिए एक अलग देश बनाना चाहता है। 18 सितंबर को केनेडा के प्रधान मंत्री जस्टिन ट्रूडो ने दावा किया कि खालिस्तान की आजादी का समर्थन करने वाले कनाडाई सिख नेता की गत जून में की गई हत्या के लिए भारत सरकार के एजेंट जिम्मेदार थे। भारत सरकार किसी भी संलिप्तता से इनकार करता है और केनेडा पर 'आतंकवादियों और अलगाववादियों' को पनाह देने का आरोप लगाता है। कितना गंभीर है खालिस्तान आंदोलन?

खालिस्तान आंदोलन की जड़ें सिख धर्म में हैं, भारत में जिसके मानने अनुयायियों की संख्या लगभग 230 लाख और दुनिया भर में 30 लाख अतिरिक्त है। सिख धर्म की शुरुआत 15वीं शताब्दी में पंजाब में हुई, जो उत्तरी भारत का एक क्षेत्र था जिस पर उस समय मुगलों का नियंत्रण था। 1699 में, सिख धर्म के नेता, गुरु गोविंद सिंह ने धर्म में महत्वपूर्ण परिवर्तन किये। उन्होंने ऐसा इसलिए किया क्योंकि वह मुस्लिम शासन के अधीन रहने से नाखुश थे और उन्होंने सिख पुजारियों के बीच भ्रष्टाचार देखा था। उनके सुधार, जिन्हें 'खालसा' परंपरा के रूप में जाना जाता है, ने सिख धर्म के तौर-तरीकों को बदला तथा उन्हें अनुयायियों को नये ढंग से संगठित किया। इसका एक राजनीतिक उद्देश्य भी था: पंजाब में सिख शासन स्थापित करना।

जब भारत को आजादी मिली, तो कुछ सिख अपना अलग देश बनाना चाहते थे, लेकिन उनकी संख्या ज़्यादा नहीं थी। 1941 की जनगणना के अनुसार ब्रिटिश काल के भारतीय पंजाब प्रांत में सिक्खों की संख्या लगभग 15 प्रतिशत थी। अंग्रेज़ों ने पंजाब को दो भागों में बांट दिया, कुछ हिस्सा भारत को और कुछ पाकिस्तान को दे दिया। पाकिस्तान की ओर रहने वाले अधिकांश सिखों ने भारत आने का फैसला किया।

इसके खालिस्तान बनाने का विचार दूर नहीं हुआ। यह 1970 के दशक के अंत और 1980 के दशक की शुरुआत में ब्रिटेन और केनेडा जैसे देशों में सिख समुदायों द्वारा संचालित होकर वापस आया। 1980 में, लंदन में जगजीत सिंह चौहान नाम के एक डॉक्टर ने 'खालिस्तान गणराज्य' का अध्यक्ष होने का दावा किया।

भारत सरकार पहले खालिस्तान को लेकर ज्यादा चिंतित नहीं थी क्योंकि वे भारत के एक राज्य पंजाब की राजनीति को लेकर ज्यादा चिंतित थे। 1970 के दशक में, पंजाब में लोग अधिक स्व-शासन और सिखों के पक्ष में नीतियों की मांग कर रहे थे। उस समय भारत में सत्तारूढ़ दल, कांग्रेस ने सोचा कि ये अनुरोध भारत से अलग होने की दिशा में एक कदम था। 1980 के दशक में पंजाब में स्वशासन की यह मांग हिंसात्मक आंदोलन में बदल गई।

कुछ हिंसा इसलिए हुई क्योंकि अधिक से अधिक लोग जरनैल सिंह भिंडरावाले का अनुसरण कर रहे थे, जो एक चरमपंथी विचार वाले उपदेशक थे। उन्होंने कहा कि स्वतंत्र भारत में सिख 'गुलाम' की तरह थे और वे चाहते थे कि वे अपने धर्म की मूल मान्यताओं पर वापस लौटें। भिंडरावाले ने खुले तौर पर खालिस्तान की आजादी की मांग नहीं की, लेकिन उन्होंने कहा कि अगर इसकी पेशकश की गई तो वह इनकार नहीं करेंगे। उनके शब्दों ने लोगों के विभिन्न समूहों के बीच हिंसा को और भी बदतर बना दिया।

सबसे महत्वपूर्ण क्षण 1984 में हुआ। उस समय, भिंडरावाले और उसके अनुयायियों ने पंजाब के अमृतसर शहर में स्थित सिख धर्म के सबसे पवित्र स्थान स्वर्ण मंदिर पर कब्जा कर लिया था। वे वहां से अपने विद्रोह का नेतृत्व करने की कोशिश कर रहे थे। जैसे ही राज्य में हिंसा फैली, भारत सरकार ने आतंकवादियों को हटाने के लिए मंदिर में जाने का निर्णय किया।

ऑपरेशन ब्लू स्टार का खालिस्तान आंदोलन पर काफी प्रभाव पड़ा। अनुमान है कि इस ऑपरेशन के दौरान 3,500 से अधिक लोगों की जानें चली गईं, जिनमें कई सरकारी सैनिक, तीर्थयात्री और यहां तक कि खुद भिंडरावाले भी शामिल थे। इस हिंसा ने सिख समुदाय पर गहरा असर डाला और एक स्थायी भावनात्मक घाव पैदा कर दिया। कुछ ही समय बाद, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, जिन्होंने ऑपरेशन का आदेश दिया था, की उनके सिख अंगरक्षक द्वारा हत्या कर दी गई। इस घटना के कारण और भी अधिक हिंसा हुई, पूरे भारत में सिखों पर हमले हुए, जिसके परिणामस्वरूप हजारों लोग मारे गये।

परिणामस्वरूप, खालिस्तान आंदोलन को बल मिला। भारत और अन्य देशों में सिख इस मुद्दे में शामिल हो गये और खालिस्तानी आतंकवादियों द्वारा हिंसा बढ़ गई। 1985 में खालिस्तानी आतंकियों ने मॉन्ट्रियल से लंदन जा रहे एयर इंडिया के विमान में बम रख दिया था। इस भयावह कृत्य के परिणामस्वरूप 329 लोगों की जानें चली गई, जिनमें मुख्य रूप से कनाडाई थे।

समय के साथ भारत में खालिस्तान आंदोलन कमजोर पड़ गया। यह कुछ हद तक सरकारी कार्रवाइयों और अर्थव्यवस्था में सुधार के कारण था। जबकि कुछ सिख अभी भी भिंडरावाले को एक शहीद के रूप में देखते हैं, बहुत कम लोग उसके रास्ते पर चलने का प्रयास करते हैं, और जो ऐसा करते हैं उन्हें तुरंत रोक दिया जाता है। खालिस्तानी स्वतंत्रता का समर्थन करने वाली एकमात्र राजनीतिक पार्टी को हालिया राज्य चुनाव में 3 प्रतिशत से कम वोट मिले।

भारत के बाहर खालिस्तान आंदोलन सक्रिय रहता है। संयुक्त राज्य अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन और केनेडा में ऐसे समूह हैं जो अभी भी अलगाववाद की वकालत करते हैं। निज्जर की हत्या और टू्रडो के भारत पर आरोप लगने से पहले से ही केनेडा के साथ भारत के संबंध तनावपूर्ण थे। इसी तरह का तनाव दूसरे देशों के साथ भी पैदा हो सकता है। खालिस्तान का मुद्दा भारत की आंतरिक एकता के लिए फिलहाल खतरा नहीं हो सकता है, परन्तु इसका उसकी विदेश नीति पर प्रभाव पड़ना जारी है।


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