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जातिवार जनगणना से जुड़ी अपार संभावनाएं

पहलगाम कांड के बाद प्रधानमंत्री और संघ प्रमुख की बैठक हुई तो मुल्क 'बड़े' फैसले की उम्मीद कर रहा था

जातिवार जनगणना से जुड़ी अपार संभावनाएं
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- अरविन्द मोहन

जाति गिनने वालों को भी वर्गीकरण और जातियों की संख्या या प्रकृति समझने में दिक्कत हुई लेकिन सबसे ज्यादा दिक्कत निम्न जातियों द्वारा खुद को ऊंचा बताने के दावों को मानने न मानने की हुई। अब आरक्षण का लाभ जुड़ा है तो इस बार खुद को छोटी जाति का या अंत्यज बताने की होड़ होगी। चुनावी राजनीति में संख्या बल का महत्व होने से छोटी-छोटी जातियों का एक नाम के तहत जुटान भी संभव होगा।

पहलगाम कांड के बाद प्रधानमंत्री और संघ प्रमुख की बैठक हुई तो मुल्क 'बड़े' फैसले की उम्मीद कर रहा था। फैसला बड़ा तो हुआ लेकिन पहलगाम के दोषियों को सख्त सजा देने का नहीं। यह कुछ नया ही विषय ऊपर ले आया और इसके चलते यह आरोप भी लगाने लगे कि प्रधानमात्री उस मामले में कुछ करने से बचना चाहते हैं और बढ़ते जनमत का ध्यान दूसरी तरफ मोड़ने के लिए उन्होंने जातिगत जनगणना का फैसला कर लिया। यह संयोग हो सकता है लेकिन यह फैसला इतना हल्का नहीं है। समाज और राजनीति के लिहाज से इसके दूरगामी परिणाम होंगे। चौंकाने और चालाकी का शक करने की एक और वजह संघ और भाजपा का पिछला रिकार्ड है जो आरक्षण की राजनीति, जातिगत जनगणना और हिन्दू समाज में 'भेद' के खिलाफ रहा है। लेकिन कहना होगा कि जब जागो तब सबेरा और यह बहुत बड़ा फैसला ही नहीं है, इसमें काफी सारी विसंगतियों को दूर करने का अवसर भी है। सबसे बड़ी विसंगति तो ओबीसी की संख्या जाने बगैर उसको आरक्षण देना है और सुप्रीम कोर्ट द्वारा पचास फीसदी की सीमा लगाना है जबकि हर अनुमान पिछड़ों-दलित और आदिवासियों की संख्या का अनुपात ज्यादा मानता है। साथ ही मौजूदा समाज में जाति के साथ पिछड़ेपन के और आधार हैं लेकिन उनको चलताऊ मान लिया गया है। कहीं महिलाओं तो कहीं विकलांगों को दो-एक प्रतिशत आरक्षण जैसे समाधान की कोशिश की गई है। परिणाम है कि रोज नए समूह आरक्षण की मांग लेकर मैदान में डटे रहते हैं।

इनमें सबसे ज्यादा तो वे किसान जातियां हैं जो आज भी खेती के मैदान में डटी हैं और उनकी खेती की आमदनी उद्योग, व्यापार और कथित सेवा क्षेत्र की तुलना में पिछड़ती जा रही है। जाट, मराठा, पटेल जैसी जातियां कभी आरक्षण को ठुकरा चुकी थीं लेकिन बदले हालात में उनका आंदोलन सबसे उग्र होता है। दूसरा अध्याय खुद को ओबीसी से अनुसूचित जाति या जनजाति वर्ग में डालने का है। रेडी, लिंगायत, विक्कलिगा और नायर जैसी जातियां क्रीमी लेयर के फार्मूले के खिलाफ लगी रहती हैं। अल्पसंख्यक जमातों को आरक्षण के दायरे में लाना, महिलाओं को आरक्षण देना, निजी क्षेत्र में आरक्षण देना और फौज तथा पुलिस में आरक्षण की मांग भी उठती रहती है। खैर मनाइए कि देसी भाषाओं से पढ़े बच्चों, गरीब और ग्रामीण समाज के वंचित बच्चों की तरफ से अभी तक जोरदार आवाज नहीं उठी है। इसलिए यह कहना एकदम उचित है कि जब समाज के हर वर्ग की संख्या और स्थिति का एक साथ व्यापक आंकड़ा आ जाएगा तो सारी वंचनाओं को मिटाने की तरफ कदम बढ़ाने वाली आरक्षण/विशेष अवसर की व्यवस्था लाई जा सकती है।

इसलिए यह हिसाब छोड़िए कि यह फैसला क्यों हुआ और यह पहलगाम से ध्यान भटकाने के लिए हुआ, बिहार के आगामी चुनाव के लिए हुआ, कांग्रेस और विपक्ष के दबाव से हुआ या भाजपा को इसका श्रेय उसी तरह मिलेगा जैसा वी पी सिंह को मिला। शायद वह दौर बीत चुका है और लोग यह भी भूल गए हैं कि भाजपा ने आरक्षण के मुद्दे पर ही बिहार में कर्पूरी ठाकुर और केंद्र में वी पी सिंह सरकार गिरा दी है। इतना बड़ा फैसला लेने का श्रेय नरेंद्र मोदी को दिया जाना चाहिए। और यह उम्मीद छोड़ देनी चाहिए कि इस बार भी मण्डल जैसा तूफान उठेगा या सारी राजनीति तथा संसद और विधान सभाओं का सामाजिक चरित्र बदल जाएगा। वोट भी एकदम से किसी एक तरफ जाए अब इसकी संभावना भी कम लगती है।

जो हो सकता है वह बहुत बड़ा है। इसमें सबकी जाति को गिनना, समझना और उसका वर्गीकरण करना एक जटिल काम है और जब जातिवार जनगणना होती थी और फिर रोकी गई तब ये सारे फैक्टर थे। जाति गिनने वालों को भी वर्गीकरण और जातियों की संख्या या प्रकृति समझने में दिक्कत हुई लेकिन सबसे ज्यादा दिक्कत निम्न जातियों द्वारा खुद को ऊंचा बताने के दावों को मानने न मानने की हुई। अब आरक्षण का लाभ जुड़ा है तो इस बार खुद को छोटी जाति का या अंत्यज बताने की होड़ होगी। चुनावी राजनीति में संख्या बल का महत्व होने से छोटी-छोटी जातियों का एक नाम के तहत जुटान भी संभव होगा। पर अगर एक साफ और सभी तरह की वंचनाओं को समेटने वाली व्यवस्था बने, जिसमें जातिगत भेदभाव का वेटेज(वजन) सबसे ज्यादा रखा जाए, तो न सिर्फ सर्वस्वीकृत आरक्षण व्यवस्था कायम होगी बल्कि इसमें कथित क्रीमी लेयर के भी स्वत: छंटते जाने का काम होता जाएगा।

कभी जेएनयू के नामांकन में सौ अंकों का बीस फीसदी हिस्सा विभिन्न तरह की वंचनाओं के लिए अलग-अलग वेटेज के आधार पर तय होता था। इसमें जाति, आर्थिक स्थिति, लड़का-लड़की, गांव-शहर और अंग्रेजी स्कूल की पढ़ाई हुई या नहीं, इस आधार पर अलग-अलग अंक थे। जाति और आर्थिक स्थिति में भी कई श्रेणियां और उनके हिसाब से अंक थे। पर कुल विशेष अंक की सीमा बीस ही थी। अगर कोई लड़की बाकी कोई अंक नहीं पाती तो उनको जेंडर के दो या तीन विशेष अंक तो मिल जाते थे। गांव से आया सवर्ण और अच्छी आय वाले बच्चों को भी अंग्रेजी न जानने के नुकसान की भरपाई के दो या तीन अंक मिल जाते थे। दलित और आदिवासी को ज्यादा विशेष नंबर थे लेकिन ओबीसी समूह को भी ठीक ठाक विशेष अंक मिलते थे। जिसके परिवार की कमाई बढ़ी, शहरी हुआ, अंग्रेजी पढ़ाई शुरू हुई तो वह खुद ब खुद क्रीमी लेयर के ऊपर हों जाता था जिसमें दलित-आदिवासी भी हो सकते थे और ओबीसी भी। और इसी के चलते वहां के छात्र समुदाय का चरित्र एकदम अलग बना। उनका अकादमिक प्रदर्शन कैसा हुआ यह बताने की जरूरत नहीं है।

जनगणना में सामाजिक स्थिति जानने के दसियों आंकड़े इकठ्ठे किए जाते हैं। 2011 की जनगणना में तो जातियों का पता करने के साथ खेती-बाड़ी, मकान, दूकान, चारपहिया-दो पहिया, रंगीन टीवी, मोबाइल जैसी सारी सूचनाएं इकठ्ठा की गई थीं जिनमें कुछ जारी हुए कुछ दबा लिए गए। इस बार तो अज्ञात कारणों से जनगणना ही रोककर रखी गई है और जातिवार जनगणना ही नहीं महिलाओं का आरक्षण और संसदीय सीटों का पुनर्गठन भी आगे के लिए टाला गया है। गृह मंत्री का दावा है कि अगली जनगणना में बहुत व्यापक सूचनाएं जुटाई जाएंगी। सो जातिगत वंचना या जेंडर की स्थिति के साथ ही दूसरी वंचनाओं का हिसाब लगाना आसान होगा। फिर इस बीच लंबी चर्चाओं से जानकार लोगों से पिछड़ेपन के मानकों और वेटेज का एक सर्वमान्य फार्मूला भी तय कर लिया जाए। इसमे जन्मानुगत वंचनाओं का वेटेज ज्यादा होना चाहिए। पर खेतिहर समाज, मजदूरी वाले वर्ग, ग्रामीण और आदिवासी समाज की तकलीफों का भी महत्व समझना होगा। और जब कुल हिसाब होगा तो सचमुच में वही जमात सामने आएगा जिसे विशेष अवसर की जरूरत है। सो राजनीति चले कोई हर्ज नहीं, वोट की मारामारी हों कोई हर्ज नहीं लेकिन शासन से जुड़े लोगों को इस बीच पिछड़ेपन और वंचनाओं की पहचान और वर्गीकरण का काम पूरा कर लेना चाहिए जिससे आंकड़े आते ही एक व्यापक लाभ देने वाली व्यवस्था खड़ी हों जाए और रोज-रोज की राजनीति खत्म हो। पिछड़ापन शर्म की बात है, गर्व की नहीं।


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