Top
Begin typing your search above and press return to search.

नानी की अगर मानें तो भेड़िया जिंदा है

देश एक बार फिर लहूलुहान हुआ है और एक बार फिर लोग तमाशाई की भूमिका में आ गए हैं

नानी की अगर मानें तो भेड़िया जिंदा है
X

- सर्वमित्रा सुरजन

इस समय सही तस्वीर को देखने और समझने की ही जरूरत है। जैसे किसी जिग सॉ पहेली के अलग-अलग टुकड़ों को देखें तो सब कुछ बिखरा नजर आता है, लेकिन सारे टुकड़ों को सही तरीके से जोड़ने पर पूरी तस्वीर दिखती है, कु छ वैसा ही हाल आतंकी हमलों का भी है। इस बार के हमले में बताया जा रहा है कि आतंकी मुसलमान थे और पीड़ित हिंदू, लेकिन ये केवल पूरी पहेली का एक टुकड़ा भर है।

देश एक बार फिर लहूलुहान हुआ है और एक बार फिर लोग तमाशाई की भूमिका में आ गए हैं। 26 नवंबर 2008 को मुंबई पर किया गया हमला याद कीजिए, जिसे अक्सर 9/11 की तर्ज पर 26 /11 कहा जाता है। हालांकि अमेरिका की तर्ज पर चलना था तो फिर 11/ 26 कहना चाहिए था, खैर महीना पहले आया या तारीख पहले आई, ये बात कोई मायने नहीं रखती और ये केवल एक दिन का नहीं बल्कि तीन दिनों का हमला था, जिसमें मुंबई के कई जाने-माने स्थलों को आतंकियों ने अपने निशाने पर लिया था। कई जांबाज़ पुलिस और सैन्य अधिकारियों ने आतंकियों को खत्म करने में अपनी शहादत दी थी, हालांकि फिर भी डेढ़ सौ से अधिक लोग मारे गए थे।

तीन दिनों तक चले इस खूनी खेल में कई पत्रकार लाइव कवरेज के लिए पहुंच गए थे और कुछ तो ऐसे थे जिनकी तथाकथित जांबाज़ रिपोर्टिंग के कारण आतंकियों को खबर होती रही कि सुरक्षा बल कहां-कहां से उन्हें पकड़ने के लिए रास्ता बना रहे हैं। इस दौरान गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी भी फौरन मुंबई पहुंच गए थे, क्योंकि उन्हें तब सत्तारुढ़ कांग्रेस को घेरने और सवाल पूछने का अच्छा मौका मिला था।

आपदा में अवसर तलाशने की आदत काफी पुरानी मानी जा सकती है। और उस समय कई लोग हमलाग्रस्त इलाकों के आसपास की छतों पर चढ़कर ये देखने में जुटे थे कि कैसे आतंकियों को पकड़ने की कोशिश की जा रही है। हर साल दशहरे पर हम भारतीय रावण, मेघनाद और कुंभकर्ण के पुतले को जलते देखने के लिए जैसे जुटते हैं, कमोबेश उसी तर्ज पर 2008 में लोग जुट गए थे।

2008 के इस हमले को कांग्रेस सरकार की बड़ी विफलता के तौर पर आज तक पेश किया जाता है, इसमें कुछ गलत नहीं है। अगर सुरक्षा एजेंसियां समुद्री मार्ग से आने वाले आतंकियों की जानकारी नहीं रख पाईं और एक नहीं कई जगहों पर एक साथ हमले करने के बावजूद आतंकियों को फौरन नहीं पकड़ा जा सका, तो यह निश्चित ही विफलता है। ठीक ऐसी ही विफलता 2019 के पुलवामा हमले में भी हुई और अब 2025 के पहलगाम हमले में भी नजर आई है।

लेकिन अब मीडिया उस तरह से सरकार की नाकामियों की चर्चा नहीं करता है। और लोगों का एक बड़ा वर्ग भी तमाशाई की भूमिका में इस तरह आ गया है कि वह आतंकी हमले की आड़ में फैलाए जा रहे हिंदू-मुस्लिम नैरेटिव पर तो अपनी प्रतिक्रिया दे रहा है और भाजपा की तरह पूछ रहा है कि लोगों को मारने से पहले धर्म पूछा, जाति नहीं।

यानी कांग्रेस और इंडिया गठबंधन जो जाति जनगणना की मांग कर रहे हैं, उसका जवाब देने के लिए यही मौका भाजपा को मिला है। मीडिया के बनाए नैरेटिव में फंसे लोग यह क्यों नहीं देख रहे कि आतंकी हमले के फौरन बाद पीड़ितों की मदद के लिए आगे आए लोगों में हिंदू भी थे और मुसलमान भी, जो इन दोनों धर्मों की पहचान से पहले खुद को कश्मीरी मानते हैं।

सोशल मीडिया पर अब कई वीडियो सामने आ गए हैं, जिनमें दिखाया जा रहा है कि कैसे कश्मीर के लोग धर्म से ऊपर उठकर इस कठिन वक्त में मदद के लिए आगे आए हैं। एक बस में फंसे पर्यटकों की मदद के लिए पास की मस्जिद के लोग पहुंचे, उन्हें वेज बिरयानी और पानी दिया, और कहा कि जैसे ही रास्ता खुलेगा आप चले जाएंगे, लेकिन तब तक हम आपकी मदद के लिए हैं। एक मस्जिद से इस हमले की बाकायदा लाउड स्पीकर के जरिए निंदा की गई। हमले के फौरन बाद जब तक सरकारी मदद नहीं पहुंची, तब तक स्थानीय दुकानदारों, घोड़े वालों ने पर्यटकों को सुरक्षित नीचे पहुंचाने का काम किया। महाराष्ट्र से आई एक महिला एक वीडियो में बता रही है कि इस हमले को नेशनल मीडिया हिंदू-मुसलमान नैरेटिव में बदल रहा है, जबकि यहां कश्मीर में सारे लोग हमारी मदद कर रहे हैं।

एनडीटीवी की ही खबर है कि मृतकों में शामिल सैयद हुसैन शाह इसलिए मारा गया क्योंकि उसने आतंकियों से भिड़ने का साहस किया। एक वीडियो में जीटीवी के पत्रकार ने पीड़ितों और चश्मदीदों से पूछा कि क्या आतंकियों ने नाम पूछकर मारा और तमाम लोगों ने ना में उत्तर दिया। आजतक के जम्मू-कश्मीर संवाददाता ने बताया कि जहां हमला हुआ वहां कम से कम 2 हजार पर्यटक थे, लेकिन सुरक्षाबल नहीं था, यह बड़ी सुरक्षा चूक है। हालांकि जब पत्रकार ये बात कह रहे थे तब दिल्ली स्टूडियो में उनकी आवाज रोककर दूसरी ब्रेकिंग खबर चलाई जाने लगी। ये तीनों चैनल भाजपा के समर्थन में खबरें पेश करने वाले माने जाते हैं, लेकिन इनके जम्मू-कश्मीर के संवाददाताओं ने असल तस्वीर पेश कर दी है।

इस समय सही तस्वीर को देखने और समझने की ही जरूरत है। जैसे किसी जिग सॉ पहेली के अलग-अलग टुकड़ों को देखें तो सब कुछ बिखरा नजर आता है, लेकिन सारे टुकड़ों को सही तरीके से जोड़ने पर पूरी तस्वीर दिखती है, कु छ वैसा ही हाल आतंकी हमलों का भी है। इस बार के हमले में बताया जा रहा है कि आतंकी मुसलमान थे और पीड़ित हिंदू, लेकिन ये केवल पूरी पहेली का एक टुकड़ा भर है, इसके बाकी टुकड़ों को देखें तो आतंकी लश्कर-ए-तैयबा से जुड़े द रेजिस्टेंस फ्रंट (टीआरएफ) के बताए जा रहे हैं, जो भले इस्लाम धर्म के हों, लेकिन असल में वो इस्लाम की शिक्षाओं पर नहीं चल रहे हैं। मरने वालों में हिंदू अधिक थे, लेकिन फिर वही बात कि इनमें मुसलमान और ईसाई भी थे, यानी आखिर में इंसान का ही खून बहा, इंसानियत को ही निशाने पर लिया गया। इस पूरे मसले को हिंदू-मुसलमान तक सीमित कर दिया जाएगा तो फिर दहशतगर्द अपने मकसद में कामयाब समझे जाएंगे।

लेकिन इससे आगे बढ़कर ये समझने की कोशिश की जाएगी कि आखिर इस हमले का मकसद क्या था। क्यों ये बात फैलाई गई कि आतंकियों ने धर्म पूछकर मारा। जब आतंकी एक-एक का धर्म पूछ रहे थे और गोलियां चला रहे थे, तब सुरक्षा बल कहां था। एक मिनट में कोई बम धमाका हो और सुरक्षा बल तत्काल न पहुंचे, तब तो बात समझ आती है, लेकिन आतंकियों को लोगों से धर्म पूछने और कलमा पढ़ने के लिए कहने का वक्त कहां से मिला, ये सवाल पूछा जाना चाहिए। पुलवामा में आरडीएक्स कहां से आया, इसका जवाब आज तक नहीं मिला है, अब क्या ये पता चल पाएगा कि सैन्य अधिकारियों के भेस में आतंकी घुस गए और जांच एजेंसियों को खबर नहीं हुई।

हमला मंगलवार दिन में करीब ढाई बजे हुआ, लेकिन नरेन्द्र मोदी का पौने चार बजे का सऊदी अरब का वीडियो है, जहां प्रवासी भारतीय मोदी-मोदी के नारे लगा रहे हैं और मोदीजी गदगद हैं। क्यों प्रधानमंत्री तुरंत अपने विमान से नहीं लौटे, क्या उन्हें इस हमले की जानकारी नहीं दी गई थी, अगर ऐसा है, तो क्या ये प्रधानमंत्री के साथ ही बड़ा खेल नहीं है। आखिर गृहमंत्री अमित शाह और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल क्या कर रहे हैं। क्या ये लोग किसी भी हादसे या हमले के बाद केवल बैठक करने के लिए अपने पद पर बैठे हैं, या इससे आगे बढ़कर इनकी कोई जिम्मेदारी है। अगर ये जिम्मेदारी पूरी नहीं कर पा रहे तो क्या उन्हें इस्तीफा नहीं दे देना चाहिए।

इस समय हरेक नागरिक को ऐसे सवालों को सरकार के सामने रखना चाहिए। मगर सवाल पूछने की जगह लोग इस बात पर नाराज हैं कि आतंकियों ने धर्म पूछा और फिर गोली चलाई। नाराजगी सही जगह इस्तेमाल नहीं होगी तो फिर एक दिन ऐसा वक्त भी आ सकता है कि नाराज होने का हक भी छीन लिया जाए।
1997 में गुलजार ने एक लंबा गीत कश्मीर के आतंकवाद पर लिखा था, जिसकी कुछ पंक्तियां पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं-

इन बूढ़े पहाड़ों पर कुछ भी तो नहीं बदला।
सदियों से गिरी बफ़ेर्
और उनपे बरसती हैं हर साल नई बफ़ेर्
घर लगते हैं क़ब्रों से, घर लगते हैं क़ब्रों से,
ख़ामोश सफेदी में
कुतबे से दरख़्तों के,
——-
ना आब था, ना दाने
अलग़ोज़ा की वादी में
भेड़ों की गई जानें।
——
अब के तुग़यानी में कुछ डूब गये गांव
कुछ गल गये पानी में
चढ़ती रही कुर्बानी
अलग़ोज़ा की वादी में
भेड़ों की गयी जानें
——
फिर सारे गड़रियों ने उस भेड़िये को ढूंढा और मार के लौट आए।
उस रात एक जश्न हुआ और सुबह को जंगल में
दो और मिली खालें
——-
नानी की अगर मानें
तो भेड़िया जिंदा है
जायेंगी अभी जानें
इन बूढ़े पहाड़ों पर
कुछ भी तो नहीं बदला।।

यूनुस खान के ब्लॉग रेडियोवाणी पर यह पूरा गीत उपलब्ध है, जहां सुरेश वाडेकर की आवाज में इसे सुना जा सकता है।

भेड़िया न केवल जिंदा है, बल्कि अलग-अलग शक्लों और रूपों में आकर हमला कर रहा है, यही बड़ी चिंता है।


Next Story

Related Stories

All Rights Reserved. Copyright @2019
Share it