जगमग भारत के अंधेरों की शिनाख्त
'जगमग अंधेरे में लोकतंत्र' कवि, पत्रकार रोहित कौशिक के आलेखों का संग्रह है

- कुमार मुकुल
'जगमग अंधेरे में लोकतंत्र' कवि, पत्रकार रोहित कौशिक के आलेखों का संग्रह है। इन आलेखों के संपादित अंश कई अखबारों में प्रकाशित हुए हैं। अखबारों में स्थान सीमित होता है लेकिन पुस्तक में इन आलेखों को पढ़ने पर सम्पूर्ण विश्लेषण हमारे सामने प्रकट हो जाता है। जैसा कि शीर्षक से जाहिर है पुस्तक में वर्तमान समय के अंधेरों की शिनाख्त है। यह पारंपरिक अंधेरा नहीं है बल्कि राजनीति और व्यवस्था द्वारा फैलाए जा रहे प्रचार की चकाचौंध से पैदा दृष्टिहीनता है।
पुस्तक के तीन खंड हैं। पहला खंड गांधी पर केंद्रित आलेखों का है। गांधी एक दौर के प्रतीक हैं। उन्हें व्यक्ति से ज्यादा एक दौर के रूप में देखने पर ही हमें कुछ हासिल हो सकता है। आजादी के आंदोलन का जो दौर रहा है गांधी उसके प्रतीक हैं। इस माने में गांधी, नेहरू, पटेल, सुभाष, अंबेडकर, सरहदी गांधी आदि को मिलाकर ही इस दौर की चर्चा हो सकती है। इन नेताओं के अंतरविरोधों को जानकर सचेत होना सही है पर उन्हें एक दूसरे के खिलाफ खड़ा करना आजादी के दौर की विरासत को कमजोर करना है। नेहरू, पटेल, अंबेडकर आदि को अलग-अलग दिशाओं में खींचकर हम कुछ प्राप्त नहीं कर सकते। रोहित कौशिक अपने आलेखों में इसी दृष्टि को जाहिर करने की कोशिश करते हैं। कुछ शक्तियों द्वारा एक सोची समझी साजिश के तहत गांधी को लेकर अनेक भ्रान्तियां फैलाई गई है। ये आलेख एक तरफ इन भ्रान्तियों को दूर करने का काम करते हैं तो दूसरी तरफ नई पीढ़ी में गांधी को समझने की दृष्टि भी विकसित करते हैं। निश्चित रूप से इस दौर में गांधी की प्रासंगिकता और बढ़ गई है।
पुस्तक के दूसरे भाग में समसामयिक विषयों पर टिप्पणियां हैं। यह पुस्तक का मुख्य खंड है। इसमें धर्म और जाति को लेकर बढ़ती कूपमंडूकता से आरंभ कर तमाम तात्कालिक मुद्दों पर प्रकाश डालने की कोशिश की गई है। इस खंड में लेखक ने आज के समय में एक लोकतांत्रिक देश के रूप में भारतीय समाज की कुछ मूलभूत समस्याओं की ओर हमारा ध्यान दिलाया है। इन समस्याओं के रहते किसी भी शासन व्यवस्था को जनहितकारी व्यवस्था नहीं माना जा सकता। जैसे अभिव्यक्ति पर अंकुश का सवाल है। किसी भी लोकतांत्रिक देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता उसका आदर्श होता है, जिसकी ओर उसे लगातार चलते रहना होता है। इस स्वतंत्रता के बिना लोकतांत्रिक देश होने का दावा बस दिखावा रह जाता है। धर्म या जाति के नाम पर हमारे मुल्क में तमाम तरह की अभिव्यक्ति को बाधित किया जाता रहा है। पत्रकारिता की गरिमा को बचाने का सवाल भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सवाल का ही हिस्सा है।
इस खंड में और भी कई महत्त्वपूर्ण विषयों को उठाया गया है जैसे फर्जी किताबों का धंधा, रैगिंग की बीमारी, लैगिंक भेदभावा आदि। किसान आन्दोलन के प्रतिरोधी स्वर को कुंद करने के लिए जिस सरकार ने किसानों को ही पंजाब का किसान और उत्तर प्रदेश का किसान जैसे खेमों में या धनी किसान और गरीब किसान के बीच बांटने की कोशिश की, वह लोकतंत्र को कमजोर करने वाला है। संसद के 90 फीसदी सदस्य करोड़पति हैं। यह सवाल क्यों नहीं उठता कि कोई करोड़पति बड़ी आबादी का प्रतिनिधित्व किस तरह कर सकता है भला ? पर यह सवाल उठाया गया कि पंजाब के किसानों का आन्दोलन वहां के समृद्ध और बड़े किसानों का आन्दोलन है। राहुल, प्रियंका, मोदी, योगी, अखिलेश, जयंत आदि की राजनीति का विश्लेषण भी है इन आलेखों में। इसके साथ मुसलमान, किसान और पत्रकारिता के लिए बुरे होते जाते इस वक्त की पहचान भी है।
पुस्तक का तीसरा भाग देश-दुनिया की कुछ शख्सियतों पर केंद्रित है। जिनमें कवियों के कवि शमशेर, अंबेडकर, भगत सिंह, ओम प्रकाश वाल्मीकि से लेकर स्टीफन हॉकिंग और विष्णु प्रभाकर तक पर केंद्रित आलेख हैं। यह देखकर खुशी हुई कि इस खंड के पहले आलेख में रोहित कौशिक ने अपने जनपद के कवि शमशेर बहादुर सिंह को याद किया है। इस खंड का दूसरा आलेख अंबेडकर पर है। रोहित कौशिक का कहना सही है कि हमें अंबेडकर की मूर्तियों पर राजनीति करने से आगे बढ़कर उनके विचारों पर बात करनी चाहिए। इसी तरह आज के युवा को भगत सिंह के आदर्शों व विचारों के आईने में खुद को देखना चाहिए। कुल मिलाकर नए पाठक के लिए पुस्तक उत्प्रेरक की तरह है। इससे गुजरकर वे आगे की विचारसरणियों में जाने को प्रेरित होंगे।


