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काश भाजपा जनसंघ जैसी ही बनी रहती!

करीब पांच दशक पहले यानी आपातकाल के बाद पांच दलों के विलय से बनी जनता पार्टी का प्रयोग हालांकि ज्यादा समय तक नहीं चल पाया था

काश भाजपा जनसंघ जैसी ही बनी रहती!
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- अनिल जैन

'पैसा फूंक तमाशा देख' के सिलसिले में अलग-अलग मौकों पर कैबिनेट यानी राज्य मंत्रिमंडल की बैठकों का आयोजन राजधानी भोपाल में न करते हुए प्रदेश के अलग-अलग स्थानों पर समारोहपूर्वक करना भी ऐसे ही तमाशों में से एक है। इस सिलसिले में 20 मई को राज्य मंत्रिमंडल की बैठक पूरे राजसी तामझाम के साथ इंदौर में होलकर शासकों के महल राजबाड़ा में हुई।

करीब पांच दशक पहले यानी आपातकाल के बाद पांच दलों के विलय से बनी जनता पार्टी का प्रयोग हालांकि ज्यादा समय तक नहीं चल पाया था लेकिन केंद्र सहित कई राज्यों में बनी जनता पार्टी की सरकारों ने कुछ काम बहुत अच्छे किए थे। मसलन, संवैधानिक प्रावधानों का सहारा लेकर देश पर तानाशाही थोपे जाने की राह को जनता पार्टी की केंद्र सरकार ने बहुत दुर्गम बना दिया था, नागरिकों के मौलिक अधिकार बहाल किए थे, कार्यपालिका की शक्तियां सीमित कर न्यायपालिका की आजादी सुनिश्चित की थी और भारत रत्न व पद्म अलंकरण जैसे सरकारी सम्मानों की बंदरबाट बंद कर दी थी। इसी तरह, राज्यों में बनी जनता पार्टी की सरकारों ने भी कुछ काम बहुत अच्छे किए थे, जो आज भी याद किए जाते हैं।

इस सिलसिले में मध्य प्रदेश से जुड़े एक वाकये का ज़िक्र करना इस समय प्रासंगिक है। आपातकाल से पहले तक मध्य प्रदेश में विधानसभा का ग्रीष्मकालीन सत्र पचमढ़ी में हुआ करता था। यह स्पष्ट रूप से एक सामंती व्यवस्था थी और जनता के पैसे का दुरुपयोग भी। इस व्यवस्था को 1977 में जनता पार्टी की सरकार ने खत्म कर दिया था। उस सरकार के मुख्यमंत्री कैलाश जोशी थे, जो जनता पार्टी में शामिल जनसंघ घटक के नेता थे। उन्होंने अपनी कैबिनेट की पहली ही मीटिंग में फैसला कराया था कि अब से विधानसभा का ग्रीष्मकालीन सत्र पचमढ़ी के बजाय भोपाल में ही हुआ करेगा। चूंकि कैलाश जोशी बेहद भले और ईमानदार व्यक्ति थे, इसलिए जनता पार्टी में उनके ही घटक यानी जनसंघ के एक गुट ने शुरू दिन से उनके खिलाफ साजिश रचनी शुरू कर दी थी, जो कि कुछ महीनों बाद सफल भी हो गई। कैलाश जोशी को एक अज्ञात बीमारी का शिकार बता कर मुख्यमंत्री पद से हटा दिया गया।

बहरहाल इस किस्से का जिक्र इसलिए कि कैलाश जोशी तो अब इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन मध्य प्रदेश में सरकार उनकी ही पार्टी की है, मगर सरकार चला रहे लोगों और कैलाश जोशी जैसे नेताओं के चाल, चरित्र और चेहरे में जमीन-आसमान का फर्क है। अब प्रदेश में जनता के पैसे का बेरहमी से दुरुपयोग करते हुए नित नए ऐसे-ऐसे नाटक किए जा रहे हैं, जिनका जनता के हितों से कोई सरोकार नहीं है। बड़े शहरों से लेकर छोटे-छोटे गांव-कस्बों तक के नाम बदलकर धार्मिक प्रतीकों के आधार पर उनके नए नाम रखे जा रहे हैं। प्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव पर नाम बदलने की ख़ब्त इस कदर सवार है कि उन्होंने कुछ दिनों पहले अपने गृह नगर उज्जैन में स्थित विक्रम विश्वविद्यालय का नाम बदल कर सम्राट विक्रमादित्य विश्वविद्यालय कर दिया।

सब जानते हैं कि नाम बदलने के इस उपक्रम के चलते सरकारी खजाने का लाखों-करोड़ों रुपया खर्च होता है। धार्मिक पर्वों और उत्सवों को भी सरकारी स्तर पर मनाया जा रहा है, जिस पर सरकारी खजाने के करोड़ों रुपये फूंके जा रहे हैं। ऐसे तमाशे सिर्फ मध्य प्रदेश में ही नहीं बल्कि उत्तर प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी चल रहे हैं, जहां भाजपा की सरकारें हैं।

मप्र में तो यह स्थिति तब है जब राज्य पर देश के कुल कर्ज का पांच फीसदी से ज्यादा कर्ज है। देश पर इस समय करीब 95 लाख करोड़ रुपये का कर्ज है, जिसमें मध्य प्रदेश का कर्ज करीब पांच लाख करोड़ रुपये है। इस आर्थिक बदहाली के चलते राज्य सरकार की कई कल्याणकारी योजनाएं ठप हैं और राज्य सरकार को अपना काम चलाने के लिए हर तीन महीने में पांच हजार करोड़ रुपये का कर्ज लेने पड़ रहे हैं।

'पैसा फूंक तमाशा देख' के सिलसिले में अलग-अलग मौकों पर कैबिनेट यानी राज्य मंत्रिमंडल की बैठकों का आयोजन राजधानी भोपाल में न करते हुए प्रदेश के अलग-अलग स्थानों पर समारोहपूर्वक करना भी ऐसे ही तमाशों में से एक है। इस सिलसिले में 20 मई को राज्य मंत्रिमंडल की बैठक पूरे राजसी तामझाम के साथ इंदौर में होलकर शासकों के महल राजबाड़ा में हुई। बैठक के लिए राजबाड़ा के दरबार हॉल की ठीक उसी अंदाज में सजावट की गई जैसे होल्कर शासकों का दरबार लगता था।

पूरे राजबाड़ा की नए सिरे से रंगाई-पुताई कराई गई और उसे बिजली के रंग-बिरंगे लट्टुओं से सजाया गया। राजबाड़ा के बाहर मीडिया और आम लोगों यानी भाजपा कार्यकर्ताओं के बैठने के लिए बड़े-बड़े वातानुकूलित पांडाल बनाए गए। यह सब इंतजाम करने के लिए कैबिनेट की बैठक के दो दिन पहले से राजबाड़ा के आसपास के सभी मार्गों पर वाहनों की आवाजाही बंद कर दी गई, जिससे पूरे शहर में अफ़रा-तफ़री का माहौल बना रहा। राजबाड़ा के आसपास का पूरा इलाका व्यावसायिक क्षेत्र है, लेकिन वाहनों की आवाजाही बंद होने से कारोबारी गतिविधियां पूरी तरह ठप रहीं।

इससे पहले उज्जैन, महेश्वर, सिंग्रामपुर (दमोह), जबलपुर आदि शहरों में भी कैबिनेट की बैठकें हो चुकी हैं और वहां भी यही सब कुछ हुआ था। अब कैबिनेट की अगली बैठक अगले महीने की 3 तारीख को पचमढ़ी में होगी। अधिकारियों को निर्देश दिए गए हैं कि वे ऐसे और संभावित स्थानों को चिन्हित करें जहां कैबिनेट की बैठकें हो सकें।

राजधानी से बाहर होने वाली इन बैठकों के लिए हफ्तों पहले से तैयारियां शुरू होती हैं, जिनमें जिले का पूरा प्रशासनिक अमला बाकी सारे काम छोड़कर जुटता है। जिस स्थान पर बैठक होनी होती है, उसे और उसके आसपास के इलाके को सजाने-संवारने, मुख्यमंत्री, मंत्रियों व राज्य के वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारियों के ठहरने की व्यवस्था आदि पर करोड़ों रुपयों का खर्च होता है।

कैबिनेट की बैठक इंदौर में आयोजित करने के बारे में जो संदर्भ बताया गया वह भी बेहद हास्यास्पद है। बताया गया कि अहिल्याबाई होलकर की 300वीं जयंती के अवसर पर उन्हें सम्मान देने और उनके व्यक्तित्व व कृतित्व से प्रेरणा लेने के लिए इंदौर में कैबिनेट की बैठक रखी गई।

दरअसल इंदौर से अहिल्याबाई के नाम को जोड़ने की यह कोशिश नई नहीं है। इंदौर के जनजीवन में भी जब कुछ अच्छा-बुरा होता है तो लोग भावुकता, मूर्खता या पाखंडवश अहिल्याबाई होलकर को याद करने लगते हैं। कुछ अच्छा हो तो कहा जाने लगता है 'अहिल्याबाई का शहर गौरवान्वित हुआ'। कुछ बुरा हो तो कहा जाता है कि 'अहिल्याबाई का शहर कलंकित हुआ'। जबकि ऐतिहासिक तथ्य यह है कि इंदौर से अहिल्याबाई का कभी कोई संबंध रहा ही नही।

इंदौर को अहिल्याबाई का शहर बताने और मानने वालों को न तो इंदौर के इतिहास की जानकारी है और न ही होलकर रियासत की। अहिल्याबाई के बारे में भी ये लोग कुछ नहीं जानते। दरअसल जब मंशा ही इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने और उसे अपनी राजनीतिक सुविधा के मुताबिक पेश करने की हो तो सच्चाई जानने की जरूरत भी कहां रह जाती है!

नर्मदा घाटी मार्ग पर स्थित इंदौर शहर को 310 साल पहले यानी 1715 में स्थानीय (कम्पेल गांव के) जमींदारों ने व्यापारिक केंद्र के रूप में बसाया था। उस समय इसका नाम इंद्रपुरी हुआ करता था। यह नाम इसे यहां बने प्राचीन इंद्रेश्वर महादेव मंदिर की वजह से मिला था। बाद में पेशवा के सेनापति और होलकर रियासत के संस्थापक मल्हारराव होलकर ने इसे अपनी राजधानी बनाया और अपभ्रंश होकर इसका नाम इंदूर हो गया, जो बाद में अंग्रेजों के समय इंदौर हुआ।

यह सही है कि मल्हारराव होलकर की बहू अहिल्याबाई इंद्रेश्वर महादेव को अपना आराध्य मानती थीं लेकिन अपने पति की मृत्यु होने पर शासन की बागडोर संभालने के तुरंत बाद वे अपनी राजधानी को इंदौर से स्थानांतरित कर नर्मदा नदी के किनारे बसे महेश्वर ले गई थीं। अहिल्याबाई ने 1767 से 1795 तक शासन किया और तब तक उनकी रियासत की राजधानी महेश्वर ही रहा। उनकी मृत्यु के बाद तुकोजीराव होलकर (प्रथम) ने शासन के सूत्र संभाले और फिर से इंदौर को अपनी राजधानी बनाया। इसलिए इंदौर को च्मां अहिल्या की नगरी' कहना सही नहीं है। वस्तुत: यह मल्हारराव होलकर और तुकोजीराव होलकर का शहर है।

जो लोग इंदौर को 'देवी अहिल्याबाई का शहर' बताते हुए तमाम तरह के राजनीतिक और सामाजिक धतकर्मों में लगे रहते हैं, उनका चाल-चलन भी अहिल्याबाई होलकर के शील, संघर्ष, जनसेवा और न्यायप्रियता से नहीं बल्कि तुकोजीराव होलकर (तृतीय) के विलासी व्यक्तित्व और कृतित्व से ही मेल खाता है। हालांकि तुकोजीराव लफंगे नहीं थे और उनके शासन में भी ऐसी लफंगई या गुंडई नहीं चलती थी, जैसी कि इंदौर सहित पूरे मध्य प्रदेश में समय-समय पर अलग-अलग रूपों में देखने को मिलती है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)


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