Top
Begin typing your search above and press return to search.

देखी तेरी तानाशाही!

चुनाव के पलटने का पहला इशारा तो, जिसकी ओर हमने अपनी पिछली टिप्पणियों में भी ध्यान खींचा था

देखी तेरी तानाशाही!
X

- राजेन्द्र शर्मा

चुनाव के पलटने का पहला इशारा तो, जिसकी ओर हमने अपनी पिछली टिप्पणियों में भी ध्यान खींचा था, 2019 के चुनाव के मुकाबले मत प्रतिशत में गिरावट होना ही है। बेशक, पहले दो चरणों में शुरूआती आंकड़ों के आधार पर, 6 फीसदी से ऊपर की जिस भारी गिरावट का अनुमान लगाया जा रहा था, वह चुनाव आयोग द्वारा असामान्य देरी से जारी किए गए मतदान के अंतिम आंकड़ों में, अपेक्षाकृत थोड़ी रह गई है। फिर भी, यह गिरावट 3 फीसदी के करीब बनी रही है।

क्या 2024 का चुनाव पलट चुका है? एक नहीं, कई इशारे हैं जो बताते हैं चुनाव पलट चुका है। बल्कि योगेंद्र यादव के शब्दों का सहारा लें तो इस बार चुनाव, 'मंझधार में पलट' चुका है। बेशक, तीसरे चरण के मतदान के साथ ही चुनाव आधे से ज्यादा गुजर चुका था। चौथे चरण की 96 सीटों पर 13 मई के मतदान के साथ, तीन-चौथाई चुनाव गुजर चुका है। जाहिर है कि अब तक चुनाव में सामने आए रुझानों को इस माने में इस पूरे चुनाव के रुझान की तरह लिया जा सकता है कि यहां से आगे बचे हुए चरणों में, बड़ी उलट-फेर की संभावना बहुत सीमित हो गई है।

चुनाव के पलटने का पहला इशारा तो, जिसकी ओर हमने अपनी पिछली टिप्पणियों में भी ध्यान खींचा था, 2019 के चुनाव के मुकाबले मत प्रतिशत में गिरावट होना ही है। बेशक, पहले दो चरणों में शुरूआती आंकड़ों के आधार पर, 6 फीसदी से ऊपर की जिस भारी गिरावट का अनुमान लगाया जा रहा था, वह चुनाव आयोग द्वारा असामान्य देरी से जारी किए गए मतदान के अंतिम आंकड़ों में, अपेक्षाकृत थोड़ी रह गई है। फिर भी, यह गिरावट 3 फीसदी के करीब बनी रही है और लगभग ऐसी ही गिरावट तीसरे चरण में भी दर्ज हुई है। इशारा साफ है कि 2019 में मोदी की भाजपा को तीन सौ पार कराने वाली लहर अब उतर चुकी है और जाहिर है कि मोदी के दस साल के राज पर लोगों की नाराजगी के धक्के सेे उतर चुकी है। और यह इस पूरे चुनाव का ही सच है, न कि सिर्फ शुरूआती चरणों का। और भाजपा के दुर्भाग्य ये, जिस हिंदी पट्टïी को वह अपना मुख्य आधार मानती है और जहां से ही 2014 तथा 2019 के आम चुनावों में उसे असली ताकत मिली थी, वहां पर यह उतार और भी ज्यादा रहा है, शेष देश के मुकाबले कम नहीं। चौथे चरण में भी उत्तर प्रदेश तथा बिहार में, मत फीसदी में 2019 से भारी कमी के ही संकेत हैं।

दूसरा इशारा, जो वास्तव में इस पहले इशारे से सीधे-सीधे जुड़ा हुआ है, विशेष रूप से पहले चरण के बाद से ही रंग-ढंग भांपकर, खुद प्रधानमंत्री मोदी की अगुआई में भाजपा के अपने दस साल के रिकार्ड से लेकर, अपने चुनावी घोषणापत्र तक और यहां तक कि मोदी की गारंटियों को भी बाजू में रखकर, हिंदुत्व की सांप्रदायिक दुहाई पर अपने प्रचार को केंद्रित करना है। बेशक, यह चुनाव आयोग की मदद के बिना नहीं हो सका है कि सिर्फ विरोधी राजनीतिक पार्टियों की ही नहीं, सामाजिक-नागरिक संगठनों की तमाम शिकायतों के बावजूद, मोदी की भाजपा ने इस खुल्लमखुल्ला सांप्रदायिक दुहाई को इस चुनाव में अपने प्रचार की स्थायी सिग्नेचर धुन बनाए रखा है।

बहरहाल, इसके साथ अपने मनुवादी चरित्र से प्रवाहित होते सवर्ण वर्चस्ववादी तथा मर्दवादी मूल्यों व आग्रहों के व्यवहार और विशेष रूप से महिलाओं समेत वंचित तबकों के शक्तिकरण के अपने विरोध को छुपाने की कोशिश को जोड़ते हुए, मोदी एंड कंपनी ने अपने बहुसंख्यकवादी सांप्रदायिक आग्रहों को जरा नवोन्मेषी शब्दावली देने की कोशिश भी की है। इसमें जाहिर है कि बिना किसी भी आधार के ही यह दावा किया जाता रहा है कि इंडिया गठबंधन की सरकार अगर आ गई तो वे दलितों, आदिवासियों, अन्य पिछड़े वर्ग को हासिल आरक्षण छीनकर, मुसलमानों को दे देेंगे, जो उनके वोट बैंक हैं! कहने की जरूरत नहीं है कि हालांकि इसमें आरक्षण के मुद्दे पर अपने संदिग्ध रुख तथा अपने नेताओं के बीच से आई संविधान ही बदल डालने की हूंकारों से, इसी सब के लिए विरोधियों पर ही हमला करके अपना बचाव करने कोशिश भी है; फिर भी इसमें भी केंद्रीय सूत्र मुस्लिमविरोधी दुहाई का ही है। मुसलमानों को आरक्षण दे देंगे के दावों के पीछे भी मुख्य धुन, हिंदू खतरे में है की ही है।
और चूंकि चुनाव जैसे-जैसे आगे बढ़ता गया है, वैसे-वैसे ठीक इसी धुन को तेज से तेज करने की हड़बड़ी बढ़ती गई है, इस आख्यान की सेवा के लिए प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाह परिषद तक को उतार दिया गया है। इस परिषद ने बिना किसी प्रसंग के चुनाव के बीचो-बीच एक परिपत्र प्रकाशित किया है, जो अब काफी पुराने पड़ गए आंकड़ों के सहारे, प्रकटत: तो यह साबित करने की कोशिश करता है कि अन्य अनेक देशों के विपरीत, भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यकों की स्थिति कैसे ठीक-ठाक है, लेकिन चुनाव के बीचो-बीच इसके खास संघी प्रचार को हवा देने का काम ही ज्यादा करता है कि भारत में हिंदुओं की आबादी घट रही है, जबकि मुसलमानों की आबादी बहुत तेजी से बढ़ रही है यानी हिंदू खतरे में हैं! कहने की जरूरत नहीं है कि भाजपा-आरएसएस के औपचारिक चुनाव प्रचार से भी बढ़कर, अनौपचारिक प्रचार में, इस 'खतरे' को जमकर उछाला गया है।

बेशक, इसी दौरान एक अवांतर प्रसंग के रूप में कांग्रेस के घोषणापत्र का नाम लेकर, पुनर्वितरण से जुड़ी धन्नासेठों की आशंकाओं से लेकर, साधारण लोगों की गलतफहमियों तक को भुनाने का भी प्रयास किया गया है। इसके पीछे वामपंथ का, संघ-भाजपा का बुनियादी डर भी काम कर रहा था, जिसके चलते कांग्रेस के घोषणापत्र पर यह कहकर हमला किया गया कि वह वामपंथ के प्रभाव में तैयार किया गया है! गहरी विडंबना है कि एक ओर आम लोगों की विपन्नता तथा साधनहीनता और दूसरी ओर मु_ïीभर डालर अरबपतियों की संपन्नता में धरती-आकाश के अंतर को अश्लीलता की हद तक बढ़ाने वाले प्रधानमंत्री मोदी ने ही कथित पुनर्वितरण के डर को, वंचित साधारण जन की अपनी नगण्य सी परिसंपत्तियों की हिफाजत की चिंताओं तक भी फैला दिया। इसी सब को आगे बढ़ाते-बढ़ाते प्रधानमंत्री, तेलंगाना में एक चुनाव सभा में कांग्रेस को निशाना बनाने के लिए, यह आरोप लगाने की हद तक चले गए कि उसे अडानी-अंबानी से टैंपो-टैंपो भर नोट मिले हैं!

बेशक, मोदी को फौरन इसका एहसास हो गया कि विपक्ष पर प्रहार करने की हड़बड़ी में, वह तो अपने पक्के दोस्तों पर ही चोट कर बैठे थे और उसके बाद दोबारा मोदी की जुबान पर यह दलील नहीं आई। बहरहाल, विपक्षियों के संपत्ति छीन लेने के 'डर' को शुरू से ही, 'मुसलमानों को बांट देंगे' के साथ जोड़ने के बावजूद, इसका खास असर न होता देखकर, मोदी और उनकी भाजपा ने संपत्ति छिनने के डर से हटाकर, 'आरक्षण छीन कर मुसलमानों को दे देंगे' की ओर बढ़ा दिया। और मोदी की पिछली सारी गारंटियों को किनारे कर अब एक नयी गारंटी दी जाने लगी—'जब तक मोदी जिंदा है, दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों का आरक्षण छीनकर मुसलमानों को देने नहीं देगा'; 'धर्म के आधार पर (यानी मुसलमानों और ईसाइयों को भी) आरक्षण देने नहीं देगा! ऐसा लगता है कि मोदी की भाजपा, जाति के छोंक के साथ, सांप्रदायिकता की इसी दुहाई के सहारे, अब अपना बाकी सारा का सारा चुनाव अभियान चलाने जा रही है।

बहरहाल, हाथ से फिसलते लग रहे चुनाव पर अपनी पकड़ बनाए रखने के लिए मोदी की भाजपा एक ओर अगर चुनाव आयोग की मदद से, सांप्रदायिकता के हथियार का खुलकर इस्तेमाल कर रही है, तो दूसरी ओर उसी चुनाव आयोग की मदद से, चुनाव की सीधी लूट का और जनता की जनतांत्रिक राय को कुचलने का सहारा ले रही है। सूरत से लेकर इंदौर तक और उससे पहले खजुराहो में तथा बाद में गांधीनगर में जो कुछ हुआ, उसे तो बेशक एक हद तक जनमत के स्तर पर दर्ज भी किया गया है, लेकिन चौथे चरण के मतदान की पूर्व-संध्या में कश्मीर में जो हुआ है और मतदान के दिनों में उत्तर प्रदेश से लेकर गुजरात तक, अनेक मुस्लिम इलाकों में जो कुछ हुआ है, उसे जनतंत्र की लूट ही कहना पड़ेगा। और इस जनतंत्र की लूट को और बहुत बड़ा बनाता है साधारण जनता के बीच बैठाया गया और चुनाव प्रचार के नाम पर लगातार पुख्ता किया जाता रहा आतंक, जो साधारण लोगों के लिए स्वतंत्रता से और स्वविवेक से, अपनी राय बनाने का रास्ता ही, एक पक्की दीवार खड़ी कर के बंद करने की कोशिश करता है। वैकल्पिक मीडिया में आ रहीं अनेक मैदानी रिपोर्टें अब धीरे-धीरे इस सच्चाई को सामने ला रही हैं कि आम लोगों के बीच फैला आतंक, न सिर्फ उनकी राय को अभिव्यक्त होने से रोकता है बल्कि स्वतंत्र रूप से उस राय के बनने को भी बाधित करता है। यही हरेक तानाशाही का लक्ष्य होता है।

इस सब के बावजूद, सारे इशारे इसी के हैं कि जनता मौजूदा निजाम की तानाशाही को खारिज कर रही है, बीच मंझधार में चुनाव पलट रहा है। अनेक इशारों के बीच इसका एक इशारा गोदी मीडिया के एक हिस्से में स्वरों का बदलना शुरू होना है। एक ओर इशारा शेयर बाजार का उतार-चढ़ाव और देसी-विदेशी निवेशकों का बाजार से अपने हाथ पीछे खींचना है। बेशक, इस बदलाव का सबसे बड़ा साधन है, विपक्ष का हमलावर तेवर के साथ, लड़ाई के मैदान में उतरना और सत्ता को सीधे चुनौती देना। यह मौजूदा सत्ता के वर्चस्व को ही नहीं, लोगों के बीच उसके आतंक को भी तोड़ रहा है। लेकिन, हताश तानाशाह क्या आसानी से सत्ता हाथ से निकल जाने देगा। वह भी तब जब उसे चुनाव आयोग जैसी पालतू संस्थाओं का सहारा हासिल है। इसीलिए, जितनी उम्मीद की जगह है, उतनी ही दु:शंकाओं की वजह भी है। बेशक, जनता और तानाशाह की लड़ाई में हमेशा जीत जनता की ही होती है। लेकिन, अक्सर भारी कीमत चुकाने के बाद।
(लेखक साप्ताहिक पत्रिका लोक लहर के संपादक हैं।)


Next Story

Related Stories

All Rights Reserved. Copyright @2019
Share it