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मैं शेरनी हूं!

सोनिया गांधी ने कहा मजाक में मगर यह सबसे सही है। मैं शेरनी हूं। वाकई एक शेरनी की तरह वह लगातार लड़ रही हैं

मैं शेरनी हूं!
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- शकील अख्तर

आज ममता बनर्जी की बहुत बात की जा रही है। विपक्ष में सीटें जीतने के मामले में वह तीसरे नंबर पर रहीं। बंगाल में उन्होंने मोदी को रोक दिया। कांग्रेस सौ के बाद सपा 37 और ममता 29 पर रहीं। तो ममता का जिक्र हम इसलिए कर रहे थे कि उस समय 1997 में जब उन्होंने कांग्रेस छोड़ी तो वे सोनिया से मिलकर उन्हें पूरी बात बता कर गईं थीं कि कैसे नरसिम्हा राव सीताराम केसरी बंगाल के नेताओं से मिलकर उन्हें परेशान कर रहे हैं।

सोनिया गांधी ने कहा मजाक में मगर यह सबसे सही है। मैं शेरनी हूं। वाकई एक शेरनी की तरह वह लगातार लड़ रही हैं। कांग्रेस संसदीय दल की नेता चुने जाने के बाद उन्होंने मोदी पर तीखा हमला करते हुए कहा कि वे हार गए हैं। नेतृत्व करने का अधिकार खो चुके हैं। सोनिया को अब यह सब कहने और करने की जरूरत नहीं है। राहुल, प्रियंका और पार्टी नई ताकत के साथ सामने आए हैं। मोदी को साधारण बहुमत से भी पीछे रोक दिया। मगर जैसा कि खुद सोनिया ने कहा और सही कहा कि वे स्वभाव से शेरनी हैं।

राहुल का सबसे बड़ा गुण उनकी निडरता माना जाता है। पिछले दस साल में जब अच्छे-अच्छे डर गए। व्यक्ति क्या संवैधानिक संस्थाएं डर गईं तब भी राहुल डटे रहे। इसी पृष्ठभूमि में अमेठी से जीते किशोरी लाल शर्मा की पत्नी ने राहुल के लिए सोनिया गांधी से कहा कि आपने शेर बच्चा पैदा किया है।

दरअसल किशोरी लाल शर्मा का परिवार पंजाबी हैं। और पंजाबी में आम मुहावरा है- शेर पुत्तर! वही उन्होंने हिन्दी में कहा। और सोनिया ने हंस कर जवाब दिया कि मैं भी तो शेरनी हूं।

इस दिलचस्प वाकये के एकाध दिन पहले ही हमने ट्वीट किया था कि संजय गांधी के लड़के को डरते हुए देखना बहुत दुखद है। हमने उसमें कहा था कि सिर्फ डीएनए ही कुछ नहीं होता है। परवरिश, माहौल भी बड़ी चीज होती है। जिसने संजय गांधी को देखा है वह जानता है कि डर और दबना क्या होता है वह संजय जानते ही नहीं थे। उन्हीं के बेटे वरुण को जब भाजपा ने टिकट नहीं दिया तो वे चुप रहे। सब सोचते थे कि वे निर्दलीय या किसी पार्टी से चुनाव लड़ेंगे। यूपी में जिस तरह कांग्रेस और समाजवादी पार्टी को जबर्दस्त सफलता मिली है उस माहौल में वरुण का जीतना कोई बड़ी बात नहीं थी। मगर ठीक है वह नहीं लड़े। लेकिन फिर उन्होंने भाजपा का भी प्रचार किया। मेनका गांधी फिर भी हारीं। और उनकी राजनीति खतम हो गई। मगर इसके साथ मेनका ने बेटे का राजनीतिक कैरियर भी दांव पर लगा दिया। वरुण की पहचान गांधी होने के कारण ही थी। और केवल नाम से टाइटल से कुछ नहीं होता है। वह गुण परिवार का आना चाहिए। नहीं तो केवल नाम तो अरुण नेहरू का भी था। मगर आज कौन जानता है? किस को याद है? संजय गांधी का नाम सबको याद है। सबको याद रहेगा। वे तो केवल एक बार ही सांसद बने। और कुछ ही दिन रहे। मगर वरुण तो तीन बार सांसद रहे। लेकिन क्या अगर वे ऐसे ही डरे रहे तो कल कोई उन्हें याद करेगा?

इसी संदर्भ में हमने लिखा था कि संजय गांधी के बेटे को डरा हुआ देखकर दु:ख होता है। मगर साथ ही यह कहा था कि परवरिश बहुत महत्वपूर्ण होती है। और यही फर्क है सोनिया गांधी और मेनका में। सोनिया गांधी को भी अपने बच्चे बिना पिता के पालना पड़े। छोटे भाई संजय की तरह राजीव गांधी भी असमय चले गए। सोनिया पर भी दुखों का वैसा ही पहाड़ टूटा। परिवार कभी उस समय की तकलीफों, लोगों का साथ छोड़ जाने की बात नहीं करता है। बहुत बड़प्पन के साथ उसने अपना बुरा वक्त काटा। जो जानता है उसे मालूम है कि किस तरह उस वक्त राजीव गांधी के नजदीक रहे लोगों ने भी सोनिया के साथ धोखा किया। सोनिया गांधी के खिलाफ क्या क्या नहीं बोला।

आज ममता बनर्जी की बहुत बात की जा रही है। विपक्ष में सीटें जीतने के मामले में वह तीसरे नंबर पर रहीं। बंगाल में उन्होंने मोदी को रोक दिया। कांग्रेस सौ के बाद सपा 37 और ममता 29 पर रहीं। तो ममता का जिक्र हम इसलिए कर रहे थे कि उस समय 1997 में जब उन्होंने कांग्रेस छोड़ी तो वे सोनिया से मिलकर उन्हें पूरी बात बता कर गईं थीं कि कैसे नरसिम्हा राव सीताराम केसरी बंगाल के नेताओं से मिलकर उन्हें परेशान कर रहे हैं। ममता राजीव गांधी को हमेशा मानती रहीं। लेकिन उस समय और कांग्रेसी नेताओं ने नरसिम्हा राव और सीताराम केसरी को खुश करने के लिए सोनिया के खिलाफ खूब षडयंत्र किए। बहुत अभद्र भाषा का भी उपयोग किया।

लेकिन यहां यही बताने के लिए लिखा है कि इन सबसे सोनिया छोटी नहीं हुईं। उनके मन में बदला लेने किसी को नुकसान पहुंचाने की भावना नहीं आई। खुद उनके खिलाफ जो जितेन्द्र प्रसाद अध्यक्ष का चुनाव लड़े उनके न रहने के बाद उनकी पत्नी कान्ता प्रसाद को टिकट दिया। बेटे जितिन प्रसाद को भी मंत्री भी बनाया। वही जितिन भाजपा में जाकर वरुण की सीट पीलीभीत से चुनाव लड़े और जीते। राजनीति में यह आंख फेर लेने का सबसे बड़ा उदाहरण है।

राजीव और संजय दोनों के बेटों को धोखा देने का। खैर तो बात सोनिया की कर रहे थे। और इसलिए कि एक पूरी तरह अलग बैक ग्राउन्ड से आकर सोनिया जिस तरह भारतीय परिवेश में रच बस गईं और यहां के मुहावरे तक सीख लिए वह बहुत बड़ी बात है। नहीं तो यहां तो उत्तर भारत में ही एक बोली के मुहावरे दूसरी बोली वाले नहीं समझते। एक दूसरे की भाषा बोली का रोज मजाक उड़ाते हैं।

सोनिया ने हिन्दी सीखी। भारतीय परम्पराएं। आप कभी महिलाओं से बात करो तो वे सोनिया के साड़ी बांधने का जिक्र जरूर करती हैं। कहतीं हैं कि जिस ने शुरू से साड़ी नहीं देखी, पहनी हो उसका ऐसी अच्छी साड़ी बांधना बहुत बड़ी बात है।

सोनिया ने जीवन में जितने उतार-चढ़ाव देखे वैसा कम लोगों के साथ होता है। मगर उन्होंने कभी अपनी गरिमा नहीं खोई। विपक्ष में रहीं तब भी और सरकार में रहीं तब भी। दोनों स्थितियों में उन्हें बहुत विरोध का सामना करना पड़ा। जब राजनीति में आईं तो कांग्रेसियों ने किया। और फिर भाजपा ने।

विदेशी मूल का सवाल उठाकर उन्हें डराना चाहा। मगर सोनिया को अपने भारतीय बहू होने का इतना गर्व था कि वे पीछे नहीं हटीं। उनके आत्मविश्वास की वजह से ही आज वह आरोप जिसे भाजपा सबसे बड़ा हथियार समझती थी खतम हो गया।

अब सोनिया के खिलाफ उनके पास कुछ नहीं है। यह सोनिया की बहुत बड़ी जीत है। सोनिया दरअसल भारतीय महिला की उसी जिजीविषा का प्रतीक हैं जो हर विपरीत परिस्थिति में लड़ती रहती है। अपने अलग-अलग दायरों में। परिवार में, नौकरी में, सार्वजनिक जीवन में। और कभी हार नहीं मानती। हर हाल में अपने बच्चों को पाल पोस कर बढ़ा करती है।

यह देखने की बात है कि कैसे एक विदेशी परिवेश की लड़की ने दूसरे देश की सारी सभ्यता संस्कृति सीखी। भाजपा के लोग भी आज अपनी व्यक्तिगत बातचीत में सोनिया के संस्कारों की तारीफ करते हैं। चाहे एक पत्नी के रूप में, चाहे बहू के रूप में चाहे मां के रूप में। और राजनीति में एक ऐसी नेता के तौर पर जिसने प्रधानमंत्री पद ठुकरा दिया हो। लेकिन जनता से किए अपने सब वादे सरकार से पूरे करवाए हों।

किसान कर्ज माफी, मनरेगा, खाद्य सुरक्षा, शिक्षा का अधिकार, महिला बिल, आरटीआई सब लेकर आईं। उनकी लाई सरकार थी। मगर कांग्रेसी इनमें से एक भी कानून पर राज़ी नहीं थे। सोनिया को पग पग पर संघर्ष करना पड़ा। वह तो 2011 में वे इन कांग्रेसियों और केन्द्र एवं दिल्ली सरकार के भरोसे रह गईं कि वे अन्ना हजारे को समझा लेंगे। नहीं तो अगर वे खुद अपने हाथ में मामला रखती तो 2013 में न दिल्ली सरकार जाती और न 2014 में केन्द्र सरकार।

लेकिन सरकारें चली गईं। सोनिया का इकबाल नहीं गया। वह आज भी कायम है। और इसलिए जब वे कहती हैं कि मैं भी शेरनी हूं तो सबको लगता है कि बिल्कुल सही बात है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)


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