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आसमान में सूराख कैसे करेगी कांग्रेस

छह दिसंबर 1992 का दिन था, जब ऐतिहासिक बाबरी मस्जिद को तोड़कर, भाजपा की सत्ता की नींव देश में मजबूती से रख दी गई थी

आसमान में सूराख कैसे करेगी कांग्रेस
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- सर्वमित्रा सुरजन

कांग्रेस को अगर वाकई देश के लोकतंत्र को बचाना है तो उसे जनता को यह समझाना होगा कि छह दिसंबर 1992 को देश ने क्या खोया है। और इसमें केवल भाजपा की बुराई या श्री मोदी का मखौल उड़ाने से काम नहीं चलेगा। कांग्रेस को ये भी साबित करना होगा कि उसके शासन में अभी से बेहतर क्या हो सकता है।

छह दिसंबर 1992 का दिन था, जब ऐतिहासिक बाबरी मस्जिद को तोड़कर, भाजपा की सत्ता की नींव देश में मजबूती से रख दी गई थी। अब उस जगह पर भव्य राम मंदिर बन कर लगभग तैयार है, जिसका उद्घाटन कर अगले कई दशकों तक भाजपा अपनी सत्ता को पक्का बना लेना चाहती है। 1956 के बाद 1992 को बाबा अंबेडकर की दोबारा मौत हुई थी। एक बार स्वाभाविक मृत्यु आने के बाद, दूसरी बार बाबा साहब के सपनों को कुचलकर मौत देने से उन्हें कितनी तकलीफ हुई होगी, यह बताने के लिए वे भौतिक तौर पर उपस्थित नहीं हैं। लेकिन आसपास नजर उठाकर देख लीजिए, गैरबराबरी के शिकार लोगों की तकलीफें उसी पीड़ा को अभिव्यक्त करेंगी, जो डॉ.अंबेडकर और पूरी संविधान सभा के लोगों को हुई होगी। छह दिसंबर को बाबरी मस्जिद प्रत्यक्ष तौर पर तोड़ी गई थी, मगर उसके साथ-साथ संविधान को भी तहस-नहस किया गया था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिंदू परिषद, भाजपा और यहां तक कि कांग्रेस में भी बहुत से लोग होंगे, जो इस दिन को भारत के लिए गौरवशाली मानते होंगे, मगर आने वाली पीढ़ियां शायद इस बात को समझेंगी कि संवैधानिक मूल्यों को सहेज कर न रख पाने की कितनी बड़ी कीमत देश को चुकानी पड़ रही है।

अभी पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव खत्म हुए हैं और इसके बाद आम चुनाव की चर्चा तेज हो गई है। पांच में से तीन राज्यों में जीत कर भाजपा अब हैट्रिक की बात करने लगी है। ये हैट्रिक तीन राज्यों की जीत की नहीं, बल्कि सत्ता में लगातार तीसरी बार आने के लिए कही जा रही है। प्रधानमंत्री मोदी ने तो इस बार लालकिले से ही ऐलान कर दिया था कि मैं ही अगली बार भी झंडा फहराने आऊंगा। तब विधानसभा चुनाव होने वाले थे और उससे पहले कर्नाटक में भाजपा मात खा चुकी थी, फिर भी श्री मोदी इस तरह के दावे कर रहे थे और अब तो तीन जीतों के साथ यह दावा और पुख्ता हो गया है। हालांकि ये बात तब भी लोकतंत्र के खिलाफ थी और अब भी है कि बिना चुनाव हुए ही, किसी की जीत या सत्ता वापसी की मुनादी कर दी जाए।

दरअसल अब चुनाव में प्रचार और रणनीतियां जमीनी तौर पर कम और दिमागी तौर पर अधिक असर करने वाली बनाई जाने लगी हैं। यह हिटलर के सहयोगी गोएबल्स का तरीका है कि किसी झूठ को सौ बार दोहराओ तो वो सच लगने लगता है। इस समय देश में भी झूठ और सच सब आपस में गड्ड-मड्ड हो गए हैं। फिलहाल सच यही है कि छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस का शोर होने के बावजूद भाजपा जीत गई है। बताया जा रहा है कि इस जीत पर अंदरखाने भाजपा के लोगों को भी यकीन नहीं हो रहा है। मध्यप्रदेश में पिछली बार भी कांग्रेस की जीत हुई थी और उसके बाद ज्योतिरादित्य सिंधिया की बगावत के कारण सत्ता हाथ से निकल गई थी।

कांग्रेस को उम्मीद थी कि इस सत्ता चोरी का जवाब जनता उसके हक में देगी। खुद श्री सिंधिया के साथ गए कई पूर्व कांग्रेसियों ने घरवापसी कर ली थी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का नाम लेने से बचते रहे। जब उम्मीदवार खड़े करने की बारी आई तो भाजपा ने सात सांसदों को मैदान में उतारा। इस बीच आदिवासी पेशाब कांड, महाकाल में मूर्तियों का गिरना, तरह-तरह के घोटाले और धांधलियों के कारण भाजपा की छवि खराब हुई।

इन सबसे यही समझ आ रहा था कि जीत कांग्रेस को ही मिलने वाली है। लेकिन कांग्रेस की यह उम्मीद झूठी साबित हुई। या तो कांग्रेस अतिआत्मविश्वास और कमलनाथ पर यकीन करने का शिकार हो गई, या फिर जैसा आरोप लगाया जा रहा है ईवीएम की गड़बड़ी के कारण उसे हार मिली। दिग्विजय सिंह और कमलनाथ ईवीएम में धांधलियों की शिकायत कर रहे हैं। लेकिन एक सच ये भी है कि मध्यप्रदेश में नरोत्तम मिश्रा जैसे नेता भी हार गए हैं। तो क्या ईवीएम की गड़बड़ी भी सोच-समझकर की गई है। ईवीएम को लेकर शिकायतें एक साल की बात नहीं है, हर साल, हर चुनाव में ईवीएम पर कई सवाल उठते हैं। चुनाव आयोग इस पर अडिग है कि ईवीएम में छेड़छाड़ नहीं हो सकती।

भाजपा भी ईवीएम को लेकर सकारात्मक है, लेकिन कांग्रेस को शिकायत है और उसे लोकतंत्र पर ईवीएम से खतरा दिखाई दे रहा है तो फिर इस पर केवल रोना रोने से बात नहीं बनेगी। कांग्रेस को जमीन पर उतरकर बड़ा आंदोलन करना चाहिए। और इसका भी जिम्मा राहुल गांधी पर न छोड़कर उन नेताओं को सामने आना चाहिए, जिन्होंने सालों-साल कांग्रेस की सत्ता का सुख भोगा है। अन्ना हजारे से और कोई सबक कांग्रेस ने भले न लिया हो, शहीद होने की मुनादी करते हुए आंदोलन खड़ा करने का सबक तो ले ही लेना चाहिए।

अन्ना तो गांधी के नाम को भाजपा के हक में इस्तेमाल कर गए और कांग्रेसी हाथ मलते रह गए। ईवीएम की जगह मतपत्रों से चुनाव करवाने की मुहिम छेड़ते हुए अगर अभी से आमरण अनशन पर बड़े कांग्रेस नेता बैठ जाएं, तो क्या इसका असर देश भर में नहीं जाएगा। राहुल गांधी ने तो 4 हजार किमी कदमों से नाप लिए, क्या दूसरे कांग्रेस नेता आमरण अनशन करने का कष्ट नहीं उठा सकते। अगर केवल समय बिताने के लिए शिकायतें करनी हैं, तब तो कोई बात नहीं। लेकिन अगर वाकई सूरत बदलनी है, आसमान में सूराख करना है तो पत्थर तबियत से उछालना ही होगा।

मध्यप्रदेश में भाजपा अपनी सत्ता बरकरार रखने के साथ छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भी सरकार बनाने में कामयाब हो गई। क्योंकि इन दोनों राज्यों में भी भाजपा को बहुत हल्के तरह से कांग्रेस लेती रही। दिल बहलाने को अब आंकड़े पेश किए जा रहे हैं कि कांग्रेस को मिजोरम छोड़ बाकी चारों राज्य मिलाकर 4,90,77,907 और भाजपा को 4,81,33,463 वोट मिले।

लेकिन जब खेल सीटों की गिनती का है, तो वहां वोटों की गिनती करने से क्या फायदा। कई बार बुद्धिमान विद्यार्थी सब कुछ जानते हुए भी सही तरह से पांच सवाल हल नहीं करता है और वहीं सामान्य बुद्धि लगाकर कोई औसत छात्र उन्हीं पांच महत्वपूर्ण सवालों पर पूरा ध्यान देकर सही जवाब लिखता है और प्रथम आ जाता है। अब आप शिकायत करते रहिए कि ये उससे होशियार है, लेकिन जहां अंकों की लड़ाई है, वहां अंक ही ज्यादा लाने होंगे, बुद्धि दिखाने से कुछ नहीं होगा। तो मौजूदा राजनीति का एक कड़वा सच यही है कि कांग्रेस अपने गौरवशाली इतिहास, गांधी, नेहरू की विरासत, राहुल गांधी की मेहनत, उनकी जनपक्षधरता सबका लाभ होने के बावजूद जनता की नब्ज पकड़ने वाले मुद्दों को नहीं समझ पाती और भाजपा उन्हीं मुद्दों के आधार पर चुनाव में अधिक सीटें ले आती है। अपनी बुद्धि के कारण प्रथम आने का मौका छात्र ने गंवा दिया और अब भी सही सवाल पर फोकस नहीं कर पा रही है।

कांग्रेस को अगर वाकई देश के लोकतंत्र को बचाना है तो उसे जनता को यह समझाना होगा कि छह दिसंबर 1992 को देश ने क्या खोया है। और इसमें केवल भाजपा की बुराई या श्री मोदी का मखौल उड़ाने से काम नहीं चलेगा। कांग्रेस को ये भी साबित करना होगा कि उसके शासन में अभी से बेहतर क्या हो सकता है। राहुल गांधी जिस सामाजिक न्याय की बात करते रहे हैं, उसे कांग्रेस के सभी लोगों को एक साथ पूरे देश में प्रचारित-प्रसारित करने की जरूरत है। राहुल गांधी जिस अहंकार को छोड़ने की सलाह श्री मोदी को देते आए हैं, उस सलाह पर कांग्रेस के भी कई नेताओं को अमल करने की जरूरत है।

भाजपा तीसरी बार भी सत्ता में आने का दावा करके मतदान से पहले ही जनता को संदेश दे रही है कि उसका वोट मिले न मिले, सरकार भाजपा की ही बनेगी। ये मामूली चुनौती नहीं है। कांग्रेस केवल शिकायतों के आधार पर इसका मुकाबला नहीं कर पाएगी। पिछले 10 सालों में कांग्रेस ने देख लिया है कि संवैधानिक संस्थाएं, मीडिया और काफी हद तक न्यायतंत्र भी भाजपा के पक्ष में ही झुका हुआ है। तो इस बड़ी चुनौती के लिए जवाब भी बड़ा ही तैयार करना होगा। तीन राज्यों की हार पर मंथन के साथ कांग्रेस यह भी सोचे कि किन वजहों से उसे कर्नाटक और अभी तेलंगाना में जीत मिली। कांग्रेस सोचे कि क्या उन्हीं तरीकों को देशव्यापी तौर पर आजमाया जा सकता है। क्योंकि अब सवाल उसकी जीत का नहीं, लोकतंत्र और संविधान बचाने का भी है।


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