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गर्व कितना और कब तक!

कोई तीन-चार दशक पहले एक नारा बड़े ज़ोरशोर से उछाला गया था- गर्व से कहो हम हिन्दू हैं

गर्व कितना और कब तक!
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कोई तीन-चार दशक पहले एक नारा बड़े ज़ोरशोर से उछाला गया था- 'गर्व से कहो हम हिन्दू हैं'। इस नारे के जरिये जनता के एक बड़े हिस्से का भावनात्मक दोहन करते हुए हिंदूवादी ताकतों ने एक बार अटल जी और दूसरी बार नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सरकार बना ली। लेकिन प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी जी जब दक्षिण कोरिया गए तो वहां उन्होंने एक विवादास्पद बात कह डाली। उन्होंने कहा था कि ''एक समय था जब लोग...(कहते थे)...पता नहीं पिछले जन्म में क्या पाप किया था, हिन्दुस्तान में पैदा हुए। ये कोई देश है, ये कोई सरकार है। ये कोई लोग हैं...चलो छोड़ो चले जाएं कहीं और...और लोग निकल पड़ते थे...उद्योग जगत के लोग कहते थे कि भई अब यहां व्यापार नहीं करना है।'' यानी नारे के मुताबिक तो हिन्दू होना गर्व का विषय था लेकिन मोदी जी के अनुसार हिन्दुस्तानी होना शर्म का। यह प्रसंग बताता है कि फ़िरकापरस्ती की कोई एक ज़बान नहीं होती।

प्रधानमंत्री के इस कथन का तब भारी विरोध हुआ था और आज भी जब तब इसका ज़िक्र होता रहता है। हालांकि अब हिन्दुस्तानी होने पर शर्मिन्दा होने की बात छोड़कर लोगों को प्रत्यक्ष और परोक्ष-दोनों तरह से ये समझाया जा रहा है कि कब और किस बात पर गर्व करना है। मसलन-भारतीय मूल का कोई व्यक्ति किसी देश का प्रधान बन गया तो गर्व करो। किसी विदेशी ने भगवा वेश धारण कर लिया, हिन्दी या संस्कृत में कुछ कह दिया तो गर्व करो। किसी देश के प्रमुख ने हमारे प्रधानमंत्री के पैर छू लिए या उनकी तारीफ़ में कसीदे पढ़ दिए तो गर्व करो। कोरोना के चलते पश्चिमी देशों के लोग हाथ मिलाने के बजाय नमस्ते करने लगे तो कहा गया कि गर्व करो। प्राचीन मंदिरों के वास्तुशिल्प और मूर्ति शिल्प के वीडियो इन दिनों सोशल मीडिया में तैर रहे हैं और उनमें भी यही कहा जा रहा है कि हमें पुरातन काल की तकनीक और कारीगरी पर गर्व करना चाहिए।

बनाने बैठें तो गर्व करने लायक विषयों की ऐसी सूची बन सकती है, जिसका कोई अंत नहीं होगा। लेकिन उससे पहले यह समझना होगा कि भारतीय संस्कृति, सनातन धर्म और पुरातन ज्ञान को लेकर हर इस-उस बात पर गर्व करने के लिए कहने के पीछे आग्रह वही है- 'गर्व से कहो हम हिन्दू हैं।' सवाल ये है कि क्या भारत का एक ही धर्म और एक ही संस्कृति है। और पुरातन ज्ञान भी क्या केवल हिन्दुओं के पास ही है। अगर ऐसा है भी तो क्या पिछले कुछ बरसों में ही इसका पता चला है। क्या लोगों के पास अपना विवेक नहीं है जो उन्हें बताना पड़ रहा है कि आज इस पर गर्व करो, कल उस पर। क्या इससे पहले हम भारतीय अपनी संस्कृति, अपनी धरोहर, अपनी परंपराओं पर गर्व नहीं करते थे। और क्या हिन्दू होना, भारतीय होने से ज़्यादा मायने रखता है, जबकि हिंदुत्व या किसी और वाद की तुलना में भारतीयता एक व्यापक विचार है और मानवता उससे भी बड़ा।

ऐसा लगता है कि तमाम कोशिशों के बावजूद हिन्दुओं को जगाने में कहीं कोई कमी रह गई है या फिर इस बात का डर होगा कि कथित तौर पर जागा हुआ हिन्दू फिर कहीं सो न जाए, इसलिए उसे सुबह-शाम अलग-अलग तरीकों से गर्व की खुराक दी जा रही है। हिंदुत्व के झंडाबरदारों को यह भी आशंका होगी कि हिन्दू जनता का ध्यान महिला पहलवानों के यौन शोषण या दलितों और अल्पसंख्यकों की मॉब लिंचिंग जैसी बातों पर न चला जाए जिनसे उसका सर शर्म से झुक जाता हो, भ्रष्टाचार और बेरोज़गारी जैसे मुद्दों पर वह कहीं सवाल न पूछने लग जाए। वह यह न सोच पाए कि धार्मिक स्वतंत्रता या भुखमरी के वैश्विक सूचकांक में हम इतने नीचे क्यों हैं, इसलिए उसे लगातार यह बताया जाता रहे कि हमारी संस्कृति कितनी महान है, हमारे वेद-पुराणों में ज्ञान का कितना बड़ा भण्डार है या कि सनातन धर्म जैसा दूसरा कोई धर्म ही नहीं है।

धर्म, संस्कृति और पुरातन ज्ञान की महानता अपनी जगह है लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि अति हर चीज़ की बुरी होती है, ज़रुरत से ज़्यादा गर्व करने-करवाने की भी होगी। थोथे गर्व से भरे आदमी से ये नारा लगवा लेना बहुत आसान है कि दो रोटी कम खाएंगे, फलाने जी को लाएंगे, लेकिन सच्चाई यही है कि गर्व करने से पेट नहीं भरता, न ही ज़रूरी सवाल दफ़न हो जाते हैं। किसी दिन यही हिन्दू पूछने लगेंगे कि चलिए, आपके कहने से हमने फलां-फलां बात पर गर्व कर लिया, अब बताइए कि हमारे रोज़गार का क्या हुआ, महंगाई कब कम होगी, कॉर्पोरेट की लूट कब बंद होगी, कब हमें अपने अल्पसंख्यक पड़ोसी से सतर्क रहने के लिए नहीं कहा जाएगा, वो दिन कब आएगा जब बलात्कारियों के समर्थन में जुलूस नहीं निकाले जाएंगे या कब ऐसा होगा कि सरकार के ख़िलाफ़ बोलने पर हमें देशद्रोही नहीं ठहराया जाएगा।
क्या 'गर्व करो' का राग अलापने वालों के पास इन सवालों का कोई जवाब है?


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