Top
Begin typing your search above and press return to search.

सूखे बुंदेलखंड के इस गांव में कैसे पहुंची हरियाली

सूखे और पानी की समस्या से ग्रस्त बुंदेलखंड के एक गांव को गांव वालों ने मिलकर हरा-भरा क्षेत्र बना दिया.

सूखे बुंदेलखंड के इस गांव में कैसे पहुंची हरियाली
X

यूपी के बुंदेलखंड इलाके में बांदा जिला मुख्यालय से करीब 30 किमी दूर एक गांव है जखनी. सूखे और जल संकट की मार झेल रहे बुंदेलखंड में यह गांव एक हरे टापू जैसा है. गांव में प्रवेश करते ही न सिर्फ हरे-भरे खेत और पेड़-पौधे दिखते हैं बल्कि कुंओं और तालाबों में लबालब पानी भी भरा रहता है और कहीं भी सूखे हैंडपैंप नहीं दिखते.

इस सूखे इलाके में हरा-भरा यह टापू बनाने का श्रेय गांव के ही रहने वाले उमाशंकर पांडेय को जाता है जिन्हें अब नीति आयोग ने भी अपनी जल संरक्षण समिति का सदस्य बनाया है ताकि उनके जलग्राम बनाने के प्रयासों को और विस्तार दिया जा सके.

यह भी पढ़ेंः बुंदेलखंड में बगैर पानी के बीवी भी नहीं मिलती

डीडब्ल्यू से बातचीत में उमाशंकर पांडेय बताते हैं, "हमने यहां कुछ नहीं किया बल्कि उन चीजों को ढूंढ़ने और बचाने की कोशिश की जो हमारे पुरखे छोड़ गए थे. जल संरक्षण और खेती के लिए हमने ‘खेत पर मेड़ और मेड़ पर पेड़' लगाना शुरू किया और आज उसका नतीजा सबके सामने है. दूसरी बात, इस काम में हम सभी गांव वालों ने मिलकर काम किया और आज भी कर रहे हैं. उसी का नतीजा है कि जहां बुंदेलखंड में गर्मी शुरू होते ही पानी के लिए त्राहि-त्राहि होने लगती है, हमारे तालाब और कुंए पानी से भरे रहते हैं.”

खेत पर मेड़, मेड़ पर पेड़'

उमाशंकर पांडेय पिछले 25 साल से वर्षा जल संरक्षण के मकसद से ‘खेत पर मेड़, मेड़ पर पेड़' अभियान चला रहे हैं और उनके इस अभियान की प्रशंसा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी कर चुके हैं. उनके इस अभियान में उनके गांव वाले पूरा सहयोग देते हैं और आज सभी लोग इसका पूरा लाभ भी ले रहे हैं. इनके प्रयासों का नतीजा यह है कि पूरे बुंदेलखंड में जल स्तर भले ही 200-250 फुट नीचे चला गया हो लेकिन यहां के कुंओं में जलस्तर इतना ऊपर है कि हाथ में बाल्टी लेकर भी कोई पानी निकाल सकता है. गांव के कई तालाब झील का आकार ले चुके हैं और सभी तालाबों में साल भर पानी भरा रहता है.

उमाशंकर पांडेय बताते हैं कि पंद्रह-बीस साल पहले उनके गांव की भी स्थिति वैसी ही थी जैसी कि बुंदेलखंड के दूसरे गांवों की है, लेकिन गांव वालों के सम्मिलित प्रयास और सोच ने सब कुछ बदलकर रख दिया. वो कहते हैं, "हमारा गांव कभी गरीबी, भुखमरी, अपराध और तमाम विवादों के कारण पूरे जिले में चर्चित था. आज वर्षा जल बूंदों को रोकने के कारण गांव का जलस्तर ही नहीं बढ़ा बल्कि गांव में समृद्धि आई और लोगों के पास पैसा आया.

यह भी पढ़ेंः बुंदेलखंड के सूखे गांव में प्यास बुझा रहीं 'वाटर वीमेन'

इस सूखे इलाके में हम लोग न सिर्फ धान की खेती करते हैं बल्कि दाल, तिलहन और सब्जियां भी उगाते हैं. तालाबों में मछलियां पाली जाती हैं. इसका परिणाम यह हुआ कि वर्षों से हमारे गांव में अपराध नहीं हुआ है, शिक्षा के मंदिर खुल गए हैं और हिंदू-मुस्लिम भाईचारा बनाए हुए सभी अपने काम में लगे हैं. इस छोटे से गांव में 50 से अधिक ट्रैक्टर हैं, हार्वेस्टर मशीन है, आधुनिक और परंपरागत दोनों तरह के कृषि यंत्र हैं. इन सबकी बदौलत बेहतरीन किस्म का हम बासमती चावल पैदा कर रहे हैं जिसकी मांग न सिर्फ बांदा में है बल्कि इसके बाहर भी है.”

सूखे इलाके में बासमती चावल की पैदावार

गांव के ही रहने वाले रामविलास कुशवाहा बताते हैं कि वो हर साल करीब सात-आठ लाख रुपये का बासमती चावल बेचते हैं. धान के अलावा कुशवाहा बैंगन, लौकी, तुरई और करेले जैसी सब्जियां भी उगाते हैं, वो कहते हैं, "हम लोग इतनी सब्जी उगाते हैं कि जिले भर में हमारी सब्जी मशहूर है. हमारे गांव का परवल तो बांदा के बाहर भी बिकता है. हम लोग यह खेती इसलिए कर पा रहे हैं कि यहां पानी का संकट नहीं है. हमने पानी की एक-एक बूंद को बचाने का हुनर सीखा है और आज भी वही काम कर रहे हैं. पानी और अपनी मेहनत की बदौलत आज हमें अपने गांव में ही अच्छा काम मिला हुआ है और अच्छी आमदनी हो रही है.”

यह भी पढ़ेंः आत्महत्या को मजबूर बुंदेलखंड के किसान

उमाशंकर पांडेय बताते हैं कि जल संरक्षण की प्रेरणा उन्हें गांधीवादी विचारक और प्रसिद्ध पर्यावरणविद अनुपम मिश्र से मिली. वो कहते हैं कि इसके लिए उन्होंने एक सूत्र का पालन किया कि ‘पानी की एक बूंद भी बर्बाद नहीं करनी है.' पांडेय कहते हैं, "दरअसल इसके लिए हमारे पूर्वजों ने जो समाधान ढूंढ़ा था, हमने उसी को अपनाया. हम लोगों ने एक संगठन बनाकर अपने गांव के पुराने तालाबों और कुंओं के जीर्णोद्धार का बीड़ा उठाया. कुंओं और तालाबों की सफाई की, वहां पड़े अतिक्रमण को खत्म किया, खेतों की मेड़बंदी की और घरों की नालियों के पानी को भी खेतों में पहुंचाया. हमने किसी भी तालाब के किनारे को पक्का नहीं किया बल्कि वो जैसा था, वैसा ही रहने दिया है. करीब दो दशक की मेहनत का नतीजा आज सबके सामने है.”

इस गांव में करीब आधे दर्जन बड़े तालाब और कई छोटे तालाब हैं. कुछ तालाब तो इतने बड़े हैं कि वहां नावें चलती हैं. तालाबों में बरसात के पानी को संरक्षित किया जाता है, जिसका उपयोग सिंचाई में तो होता ही है, जलस्तर भी नहीं घटने पाता. यह सब काम करने के लिए गांव के लोगों ने पंद्रह साल पहले जलग्राम समिति नाम की एक कमेटी बनाई थी जिसमें उमाशंकर पांडेय समेत कुल 15 सदस्य हैं. यह समिति इन सबके रख-रखाव और निर्माण पर ध्यान देती है और दूसरे लोगों को प्रेरित करने का भी काम करती है.

पांडेय बताते हैं कि वे लोग खेती में जैविक खाद का ही प्रयोग करते हैं, रासायनिक खाद का प्रयोग बहुत कम होता है. गांव के कई लोगों ने अब आस-पास के इलाकों में भी ठेके पर जमीन लेकर खेती करने का काम शुरू किया है जिससे उन्हें भी आमदनी हो रही है और जिन लोगों के खेत ये लेते हैं उन्हें तो इसका लाभ मिलता ही है.

पानी बनाया नहीं, सिर्फ बचाया जा सकता है

उमाशंकर पांडेय कहते हैं कि पानी बनाया नहीं जा सकता बल्कि इसे केवल बचाया जा सकता है. वो कहते हैं कि उन लोगों ने यह सब सिर्फ अपने प्रयास से किया, कोई सरकारी मदद नहीं ली. बाद में जखनी गांव की इस हरियाली को अन्य लोगों को दिखाने और प्रेरणा लेने के मकसद से बांदा जिला प्रशासन ने यहां के मेड़बंदी मॉडल को जल संरक्षण के लिए 470 ग्राम पंचायतों में लागू किया. इसके अलावा, उत्तर प्रदेश के कृषि उत्पादन आयुक्त ने पूरे प्रदेश के लिए उपयुक्त माना और भारत सरकार के जल शक्ति मंत्रालय ने इसे पूरे देश के लिए उपयुक्त. मंत्रालय ने देश के हर जिले में दो गांवों को जखनी की तरह जलग्राम के लिए चुना है. नीति आयोग ने भी इस जल संरक्षण विधि को मान्यता दी और इस आधार पर इसे आदर्श गांव माना है.


Next Story

Related Stories

All Rights Reserved. Copyright @2019
Share it