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अखिलेश ने कैसे सपा-बसपा की उम्मीदों को जिंदा रखा

भले ही उनके राजनैतिक प्रतिद्वंद्वी उन्हें बबुआ कहकर बुलाते हों लेकिन उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन के शिल्पकार अखिलेश यादव ने वो कर दिखाया जिसका राज्य में होना नामुमकिन जैसा माना जाता था

अखिलेश ने कैसे सपा-बसपा की उम्मीदों को जिंदा रखा
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नई दिल्ली। भले ही उनके राजनैतिक प्रतिद्वंद्वी उन्हें बबुआ कहकर बुलाते हों लेकिन उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन के शिल्पकार अखिलेश यादव ने वो कर दिखाया जिसका राज्य में होना नामुमकिन जैसा माना जाता था। समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश ने जिस तरह से बहुजन समाज पार्टी सुप्रीमो मायावती को गठबंधन के लिए न केवल राजी किया बल्कि इसे सहज बनाए रखा, उसने उनके धुर आलोचकों के भी मुंह पर ताला लगा दिया है।

मायावती राजनीति में अपना अनुमान नहीं लगाई जा सकने वाली अवस्थितियों के लिए जानी जाती रहीं हैं। उन्होंने अखिलेश के पिता मुलायम सिंह यादव से अपना गठबंधन तोड़ दिया था और अटल बिहारी वाजपेयी, एल. के. आडवाणी और कल्याण सिंह जैसे मजे हुए राजनेताओं से भी अपनी राह अलग करने में देर नहीं लगाई थी।

लेकिन, सपा के लोगों का मानना है कि बीते कुछ महीनों में अखिलेश ने गठबंधन के मुद्दे को जिस परिपक्वता से संभाला, उससे इसकी संभावना बन रही है कि सपा-बसपा गठबंधन राज्य में विजेता बन कर उभर सकता है और अगर केंद्र में स्पष्ट बहुमत किसी को नहीं मिला तो उस स्थिति में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।

लोकसभा चुनाव के सातों चरणों में मायावती ने 22 बार अखिलेश के साथ मंच साझा किया और साथ मिलकर करीब आधा दर्ज रोडशो किए। कई लोगों को ताज्जुब में डालते हुए अखिलेश ने मायावती को मैनपुरी की एक रैली में मुलायम सिंह यादव के साथ भी मंच साझा करने के लिए राजी कर लिया।

सपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता आई.पी.सिंह ने कहा, "अखिलेश जी विनम्र और शालीन हैं। उनका सौम्य व्यवहार और मायावती के लिए सम्मान दोनों नेताओं के बीच की अच्छी साझेदारी की वजह है।"

सिंह ने कहा कि सपा और बसपा के कॉडर ने भी अच्छा संबंध बनाए रखा और यह उत्तर प्रदेश में आज से पहले धुर विरोधी रहे दोनों दलों के बीच पहली बार देखा गया।

पहले के चुनाव के नतीजे बताते हैं कि सपा हमेशा से शहरी सीटों पर कमजोर रही है। इसके बावजूद अखिलेश कई खास ग्रामीण सीटें बसपा को देने पर राजी हो गए और लखनऊ, वाराणसी या गाजियाबाद जैसी सीटों से चुनाव लड़ने पर सहमति जताई जहां से उनकी पार्टी की जीत की संभावना बहुत कम है।

इसके अलावा, सपा प्रमुख ने महत्वपूर्ण संयुक्त रैलियों के लिए जगहों के चयन का विकल्प मायावती को दिया। उन्होंने कई रोड शो और रैलियों के लिए प्रबंधन की भी जिम्मेदारी निभाई।

प्रदेश में सपा-बसपा की कुल 97 रैली हुईं जबकि भाजपा ने 407 रैली कीं। प्रचार और विज्ञापनों के मामले में भी सपा-बसपा, भाजपा से मीलों पीछे रहीं। चाहे, सोशल मीडिया हो या फिर टीवी और प्रिंट मीडिया, हर जगह भाजपा के मुकाबले गठबंधन की उपस्थिति नाममात्र की रही।

बसपा नेता डॉ.एम.एच.खान ने स्थानीय चैनलों पर इसकी वजह बताते हुए कहा, "हम मूल रूप से गरीब लोगों की पार्टी हैं। हमारे पास सीमित फंड है और हम अखबारों और चैनलों को विज्ञापन देने का बोझ वहन नहीं कर सकते। एक बात और साफ कर दूं कि बहनजी प्रचार में यकीन नहीं रखतीं। उनका विश्वास अपने समर्थकों में है।"

राज्य में प्रचार समाप्त होने के बाद भावी रणनीति के लिए अखिलेश ने मायावती के साथ कई बैठकें की हैं।


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