तमिल में हिंदी भाषा के विरोध का इतिहास पुराना
केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने पिछले हफ्ते हिंदी दिवस के अवसर पर एक बयान दिया

चेन्नई। केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने पिछले हफ्ते हिंदी दिवस के अवसर पर एक बयान दिया, जिसके बाद से तमिलनाडु की क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियों और केंद्र के बीच हिंदी भाषा के इस्तेमाल को लेकर तनातनी बढ़ गई है।
क्षेत्रीय पार्टियां देश की एक भाषा वाले उनके बयान को लेकर स्पष्टीकरण की मांग कर रही हैं, लेकिन तमिल में हिंदी भाषा के विरोध का इतिहास दशकों पुराना रहा है।
हिंदी विरोधी आंदोलन की शुरुआत सर्वप्रथम तमिलनाडु में 1965 से शुरू हुई और इसे मुद्दा बनाकर डीएमके जैसी पार्टियों को बहुत ज्यादा राजनीतिक लाभ पहुंचा। इसका परिणाम यह रहा कि वह राज्य में एक बड़ी शक्ति बनकर उभरी।
राज्य ने सर्वप्रथम 1965 में एक मजबूत हिंदी विरोधी आंदोलन देखा, जिस कारण पुलिस गोलीबारी में कई प्रदर्शनकारियों की मौत हुई।
इस आंदोलन का नेतृत्व डीएमके ने किया, जिसके परिणामस्वरूप 1967 में कांग्रेस को हराकर द्रविड़ियम पार्टी राज्य में सरकार बनाने में कामयाब रही।
यहां तक की 1930 के दशक से लेकर 1947 में भारत की स्वतंत्रता तक जब हिंदी को स्कूलों में एक विषय के रूप में पढ़ाने की पेशकश की गई तो इस मांग का तत्कालीन मद्रास प्रेसीडेंसी ने विरोध किया।
हालके समय में भी मोदी सरकार द्वारा हिंदी के प्रचार प्रसार को लेकर दिए कई बयानों, कदमों और फैसलों के बाद इस बाबत विवाद देखने को मिले।
इस क्रम में गृहमंत्री शाह का बयान रहा। उन्होंने कहा था, "यह बहुत जरूरी है कि पूरे देश की एक भाषा हो, जो दुनिया में हमारी पहचान बने और ऐसा करने में केवल हिंदी भाषा सक्षम है।"
तमिलनाडु और कनार्टका की राजनैतिक पार्टियों ने इसे हिंदी थोपे जाने के कदम जैसा बताया और घोषणा की वह इसके खिलाफ जरूरत पड़ने पर आंदोलन करेंगे।
हालांकि, शाह के बयान पर आई कई प्रतिक्रियाओं के बाद गृहमंत्री शाह ने बुधवार को इस बात को स्पष्ट किया कि उन्होंने कभी हिंदी को दूसरी भाषाओं के ऊपर थोपने की कोशिशे नहीं की। उन्होंने कहा कि उन्होंने सिर्फ एक आग्रह किया था कि हिंदी को मात्र भाषा के साथ दूसरी भाषा के रूप में पूरे देश में अपनाए जाने की आवश्यकता है।
क्षेत्रीय पार्टियों को स्पष्ट रूप से शाह ने कहा कि वह खुद एक ऐसे राज्य गुजरात से आते हैं, जो हिंदीभाषी नहीं है।


