Top
Begin typing your search above and press return to search.

हिंदी पत्रकारिता : दो सदी पर खड़े कुछ अहम सवाल

30 मई 1826 को बंगलाभाषी कोलकाता से हिन्दी का पहला अख़बार 'उदन्त मार्तण्ड' 500 प्रतियों के साथ आरंभ हुआ

हिंदी पत्रकारिता : दो सदी पर खड़े कुछ अहम सवाल
X

- अरविंद कुमार सिंह

आज भी हिंदी में अनुवाद की पत्रकारिता का बोलबाला बरकरार है और कई हिंदी अखबारों पर टीवी चैनलों और सोशल मीडिया की भाषा का असर भी साफ दिखता है। यह सत्य भी अपनी जगह है कि हिंदी पत्रकारिता ने देश की आजादी और राष्ट्र निर्माण दोनों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आजादी की लड़ाई का वास्तविक प्रतिबिंब भी हिंदी पत्रकारिता में दिखता है। पंडित माखनलाल चतुर्वेदी से लेकर गणेशशंकर विद्यार्थी जैसी पत्रकार परंपरा हिंदी में रही है।

30 मई 1826 को बंगलाभाषी कोलकाता से हिन्दी का पहला अख़बार 'उदन्त मार्तण्ड' 500 प्रतियों के साथ आरंभ हुआ। केवल 79 अंक निकले औऱ इसका जीवनकाल एक साल सात माह रहा। 4 दिसम्बर 1826 को यह बंद भी हो गया। इसके संस्थापक पं. युगलकिशोर शुक्ला ने हिन्दी पत्रकारिता की आदि प्रतिज्ञा निर्धारित की, 'हिन्दुसस्तारनियों के हित हेतु'।

1976 में आपातकाल के दौरान जब इसके प्रकाशन का 150 साल हो रहा था तो लखनऊ में हजारी प्रसाद द्विवेदी के अध्यक्षता में पत्रकारों के जमावड़े के बीच 30 मई को पत्रकारिता दिवस मनाने का फैसला हुआ। तब से अब तक हिंदी हिंदी पत्रकारिता का जमीनी आधार बहुत मजबूत हो चुका है। हिंदी में नए अखबारों के साथ स्थापित अखबारों के नए संस्करण निकल रहे हैं। वेतन और सुविधाओं के मामले में हिंदी पत्रकारों की दशा पहले से बेहतर हुई हैं। इलेक्ट्रानिक मीडिया के विस्तार के बावजूद हिंदी और भाषाई अखबारों का प्रसार बढ़ता जा रहा है। चैनलों और सोशल मीडिया के प्रवाह के बाद भी खबरों को विस्तार से जानने का सबसे भरोसेमंद साधन हिंदी और भाषाई अखबार ही बने हुए हैं। अधिकतर चैनल और सोशल मीडिया पर भी हिंदी और भारतीय भाषाएं ही मजबूत हैं।

देश की राजधानी रहने के कारण कोलकाता 5 भाषाओं की पत्रकारिता का प्रारंभिक केंद्र रहा। अंग्रेजी पत्रकारिता (1780), बांग्ला पत्रकारिता (1818), उर्दू और फारसी पत्रकारिता (1822) में आरंभ हुई। पर हिन्दी पत्रकारिता का अजीब दुर्भाग्या यह रहा कि पं. युगलकिशोर शुक्ल8 का कोई चित्र भी नहीं मिलता। सप्रे संग्रहालय के संस्थापक विजयदत्त श्रीधरजी ने इस विषय पर काफी काम किया है। उनका कहना है कि कुछ लोगों ने आचार्य शिवपूजन सहाय के चित्र को शुक्ला जी के चित्र के रूप में प्रसारित कर रखा है। यह खुशी की बात है कि माधवराव सप्रे स्मृति समाचारपत्र संग्रहालय एवं शोध संस्थािन 'उदन्ते मार्त्तण्ड ' की द्वि शताब्दी् समारोह श्रृंखला 21 जून, 2025 से आरंभ कर रहा है जो 30 मई, 2026 तक चलेगा।

आजादी के पहले भारत में किसी हिंदी अखबार की प्रसार संख्या 30 हजार से ज्यादा नहीं थी आज इनका व्यापक प्रसार है। विशुद्ध क्षेत्रीय माने जाने वाले कई अखबार चाहे वे कहीं से निकल रहे हों, उन्होंने राष्ट्रीय कहे जाने वाले अखबारों को भी पीछे छोड़ दिया है। ग्रामीण अंचलों में उनकी जड़ें मजबूत हैं। हिंदी पत्रकारिता ही नहीं विश्व पटल पर हिंदी की हैसियत भी इतनी बढ़ चुकी है कि10 जनवरी, 2006 के बाद से विश्व हिंदी दिवस भी मनाया जा रहा है।


दुनिया के कई विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ाई जा रही है और तमाम बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने लोगों को हिंदी सिखा रही हैं। अपनी शक्ति के कारण ही हिंदी विश्व में बोली जाने वाली तीसरी सबसे प्रमुख भाषा बन सकी है। अंग्रेजी और मंदारिन के बाद हिंदी का स्थान है। फिर स्पेनिश औऱ फेें्रच का। पहले शिकायतें होती थी कि हमारे नेता हिंदी में नहीं बोलते हैं, लेकिन अब ये बात भी नहीं है।

भारत 120 करोड़ मोबाइल फोन धारकों के साथ दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा दूरसंचार बाजार है। गरीब की झोपड़ी से लेकर अट्टालिकाएं तक संचार और सूचना क्रांति से आलोकित हैं। भारत में इंटरनेट उपभोक्ताओं की संख्या 94.49 करोड़ तक पहुंच गयी है। इस ताकत पर भी हिंदी की शक्ति में काफी इजाफा हुआ है। हिंदी भाषी इलाकों में साक्षरता की दर तेजी से बढ़ी है लिहाजा बड़ा पाठक वर्ग, दर्शक या श्रोता इससे जुड़ रहे हैं। अंग्रेजी के कई नामी पत्रकारों और दिग्गज नेताओं और मंत्रियों को भी हिंदी अखबारों में छपने का मोह प्राय: दिखता रहता है। विभिन्न माध्यमों के विस्तार के बाद भी हिंदी अखबारों और पत्रिकाओं की हैसियत काफी अधिक है। उनके रंग-रूप और कलेवर बदल गए और खबरों की दुनिया भी।

अंग्रेजी राज में अंग्रेजी पत्रकारिता को शासन से विशेष महत्व मिलता था, जबकि भाषाई पत्रकारिता का बागी तेवर था। तभी 1857 में लार्ड केनिंग का सबसे बड़ा प्रहार भाषाई पत्रकारों पर हुआ। तबसे नीति निर्माताओं के नजरिए में खास बदलाव नहीं आया है। खबरों के स्त्रोत को देखें तो पता चलता है कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं का पत्रकार भले ही जमीनी संपर्को के आधार पर बड़ी से बड़ी खबर ब्रेक कर दे पर उच्च नौकरशाही के स्तर पर उसे सीमित जानकारी केवल सूचना अधिकारियों के माध्यम से मिलती है।

राजनीतिक नेतृत्व जरूर भाषाई पत्रकारों को महत्व देता है क्योंकि वोट मांगना हो या फिर जनता के बीच संवाद, वह अंग्रेजी में संभव नहीं है। इस कारण महत्व देना पड़ता है। नौकरशाही आज भी हिंदी पत्रकारिता के प्रति अलग नजरिया रखती है। आज भी हिंदी में अनुवाद की पत्रकारिता का बोलबाला बरकरार है और कई हिंदी अखबारों पर टीवी चैनलों और सोशल मीडिया की भाषा का असर भी साफ दिखता है।

यह सत्य भी अपनी जगह है कि हिंदी पत्रकारिता ने देश की आजादी और राष्ट्र निर्माण दोनों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आजादी की लड़ाई का वास्तविक प्रतिबिंब भी हिंदी पत्रकारिता में दिखता है। पंडित माखनलाल चतुर्वेदी से लेकर गणेशशंकर विद्यार्थी जैसी पत्रकार परंपरा हिंदी में रही है।

लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, नेताजी सुभाषचंद्र बोस, विनोबा भावे, काका कालेलकर. कविगुरु रवींद्रनाथ टैगौर और सी राजगोपालाचारी जैसे अहिंदीभाषी मनीषियों ने हिंदी के पक्ष में पैरवी की। गांधीजी ने स्वाधीनता आंदोलन को लोकप्रिय और व्यापक बनाने में हिंदी का आश्रय लिया और गैर हिंदी इलाकों में हिंदी का प्रचार किया। नवजागरण काल में अहिंदी भाषी विद्वानों ने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की पैरवी की। यह दुख की बात है कि आजादी के इतने सालों बाद भी हिंदी पत्रकारिता एकमत होकर मानक शब्दों पर सहमति तक नहीं बना सकी है। इसके अभाव में हिंदी का पाठक भ्रम का शिकार बनता है। दुनिया के तमाम शहरों और विश्व नेताओं के नाम हिंदी के ही अखबारों में अलग-अलग छपते हैं।

भारत सरकार औऱ राज्यों में राजभाषा विभाग का व्यवस्थित तंत्र होने के बाद भी अधिकतर प्रेस नोट अंग्रेजी में जारी होते हैं। हिंदी और दूसरे भारतीय भाषाओं के पत्रकारों को उनका अनुवाद करना पड़ता है। कई अखबारों में विशेषज्ञों के लिखे अंग्रेजी आलेखों का कभी कभार अनुवाद की बात तो समझ में आती है, पर कुछ जगहों पर यह नियमित आयोजन सा दिखता है।

बेशक हिंदी पत्रकारिता अंग्रेजी जैसी नहीं है। अंग्रेजी के पास वैश्विक फलक है। विराट आकाश है। उससे तुलना लायक बनाने के लिए हिंदी को कम से कम बहुत से अवरोधों को दूर करना होगा। केवल प्रसार मात्र से संतोष करना उचित नही है। तेजी से बदल रही दुनिया के बीच हिंदी पत्रकारों को दूसरी भारतीय भाषाई भाषाओं की शक्ति और आपसी तालमेल से मौजूदा तस्वीर को बदला जा सकता है।

बेशक खबरों की खरीद-फरोख्त के धंधों से लेकर तमाम विकृतियों ने हिंदी और अन्य भाषाओं को आहत किया है। लेकिन इसके अपवाद भी मौजूद हैं और विरोध करने वाले भी। संपादक की संस्था कई जगह नहीं है, पर जिन जगहों पर है, वहां उसका असर साफ दिखता है। समग्र रूप में हिंदी पत्रकारिता की हैसियत और गुणवत्ता के विस्तार के लिए हिंदी जगत को नए सिरे से नए तेवर और कलेवर के साथ बहुत कुछ श्रम करने की जरूरत है। ज्ञान विज्ञान से लेकर साहित्य और खेती तक बहुत कुछ कमजोरियां दूर करने की जरूरत है।


Next Story

Related Stories

All Rights Reserved. Copyright @2019
Share it