हिंदी पत्रकारिता दिवस आज : हिंदी भाषा के बिना पत्रकारिता का भविष्य नहीं
प्रतिवर्ष 30 मई को हिंदी पत्रकारिता दिवस मनाया जाता है

- डॉ सूर्यकांत मिश्रा
वर्तमान में हम देख रहे हैं कि हिंदी भाषा को लेकर हमारे अपने देश में ही बड़ी खींचातानी मची हुई है। हिंदी पत्रकारिता देश की आजादी से पहले से चली आ रही है। देश की स्वतंत्रता में हिंदी पत्रकारिता का बड़ा योगदान रहा है। बाल गंगाधर तिलक से लेकर महात्मा गांधी और भगत सिंह जैसी हस्तियों ने देश को स्वतंत्र कराने के लिए पत्रकारिता का सहारा लिया।
प्रतिवर्ष 30 मई को हिंदी पत्रकारिता दिवस मनाया जाता है। इस दिवस के मनाने के पीछे क्या कारण रहा है? इसे जानना भी जरूरी है। इतिहास के पन्नों में देखें तो 30 मई को ही हिंदी पत्रकारिता दिवस मनाने के पीछे जो पुख्ता कारण नजर आता है, वह भारतवर्ष के सबसे पहले समाचार पत्र के स्थापना दिवस से संबंध रखता है। 30 मई 1826 को 'उदंत मार्तंड' समाचार पत्र का पहला अंक प्रकाशित किया गया था। यहीं से यह तय किया गया कि इस दिवस को हिंदी पत्रकारिता दिवस के रूप में आयोजित किया जाएगा। इस संदर्भ में देखें तो हिंदी पत्रकारिता दिवस ने अपने 196 वर्षों की यात्रा संपन्न कर ली है। इस वक्त हम हिंदी पत्रकारिता दिवस के 197 आयोजन को करने जा रहे हैं।
पत्रकारिता दिवस की बात हो और पत्रकारों को छोड़ दिया जाए तो दिवस की कोई मान्यता नहीं रह जाती है। पत्रकारों के अथक परिश्रम से पत्रकारिता जीवित है तो दूसरी ओर पत्रकारिता ही एक मंजे हुए पत्रकार की पहचान बन कर सामने आती रही है। वास्तव में देखा जाए तो पत्रकार समाज का आईना होते हैं। वे हमें सच्चाई से रूबरू कराते हैं और शासन- प्रशासन को व्यवस्था दुरुस्त करने के मार्ग में अपनी भूमिका का निर्वहन करते हैं। अपनी 196 वर्ष की यात्रा में पत्रकारिता ने बहुत से उतार- चढ़ावों को देखा है। पत्रकारिता के मामले में हिंदी ने अपार बदलाव देखे हैं। कभी समाज की मार्गदर्शक बनने वाली हिंदी भाषा आज अपनी शुद्धता खोती नजर आ रही है।
हिंदी भाषा में समाचार पत्रों का प्रकाशन करने वाले प्रकाशकों तथा सहयोगियों ने अपनी सहूलियत के हिसाब से दूसरी भाषाओं के साथ मिश्रण करते हुए हिंदी को विशुद्ध हिंदी नहीं रहने दिया है। समाचार पत्रों के एक पैराग्राफ के समाचार में हिंदी के साथ में अंग्रेजी की मिलावट अनिवार्य रूप से दिखाई पड़ने लगी है। यही कारण है कि हिंदी पत्रकारिता जो स्वतंत्रता से पूर्व अलग पहचान रखती थी, वह वर्तमान में कुछ कमजोर दिखाई पड़ रही है। इस संबंध में मेरे पाठकों को यह बता देना चाहता हूं कि भाषा को लेकर मेरे मन में कोई भी विरोधी बात नहीं उपजी रही है, बल्कि विचार विशेष रूप से हिंदी भाषा या हिंदी पत्रकारिता को लेकर उठ रहे हैं।
हिंदी पत्रकारिता ने शुरुआत से ही आम से लेकर खास वर्गों का जाग्रत किया है। आज उसके गिरते स्तर को देखकर कहीं न कहीं पत्रकारिता के मूल्यों का ह्रास मुझे नजर आ रहा है। सीधे शब्दों में कहूं तो मुद्दा हिंदी पत्रकारिता की जो अपनी पहचान है- उसे सदैव उजागर करते रहने की, उसे हमेशा जिंदा रखने की, यही विशेष रूप से उभर रहा है। हमने हमेशा हिंदी को बोलचाल की भाषा कह कर उसके साथ नाइंसाफी की है।
भविष्य में हमें इससे बचने की जरूरत है। आज हिंदी पत्रकारिता दिवस के दिन इस बात का प्रण लेने की जरूरत है- कि हम हिंदी के उत्थान, हिंदी की शुद्धता, हिंदी की अखंडता और हिंदी की सत्यता को बचाने में अपना योगदान तन- मन से करते रहेंगे। विशुद्ध रूप से हिंदी में समाचारों का प्रकाशन करते समय हम हिंदी के साथ अन्य भाषाओं के शब्दों को जोड़ते चले आ रहे हैं। इससे कहीं न कहीं हिंदी पत्रकारिता की प्रकृति, उसका अपना रस विलुप्त हो रहा है। आज जरूरी यह है कि हम मिश्रित भाषाओं पर कम से कम ध्यान देते हुए समाचारों का प्रकाशन करें, जिससे हिंदी भाषा के विलुप्त होने की संभावना ही पैदा न हो।
वर्तमान में हम देख रहे हैं कि हिंदी भाषा को लेकर हमारे अपने देश में ही बड़ी खींचातानी मची हुई है। हिंदी पत्रकारिता देश की आजादी से पहले से चली आ रही है। देश की स्वतंत्रता में हिंदी पत्रकारिता का बड़ा योगदान रहा है। बाल गंगाधर तिलक से लेकर महात्मा गांधी और भगत सिंह जैसी हस्तियों ने देश को स्वतंत्र कराने के लिए पत्रकारिता का सहारा लिया। इसमें भाषायी पत्रकारिता, खासकर हिंदी पत्रकारिता का योगदान सबसे ज्यादा रहा है। हिंदी पत्रकारिता ने एक लंबा सफर तय किया है। यह सफर कोई चंद सालों का नहीं बल्कि 200 सालों को पूरा करने की ओर बढ़ रहा है। हर भाषा की अपनी पहचान होती है, अपना वर्चस्व होता है। हिंदी भाषा अथवा हिंदी पत्रकारिता ने अंग्रेजों पर भी खास प्रभाव डाला था।
पत्रकार तथा पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है। यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि भारत की आजादी में हिंदी पत्रकारिता की अहम भूमिका रही है। यह आकस्मिक नहीं है कि संपूर्ण भारत में जब साहित्यकार,पत्रकारों ने राष्ट्रीयता की अलख जगाई तब प्रत्येक भारतीय देश की आजादी के लिए कृत संकल्पित होता चला गया। दूसरे शब्दों में कहूं तो जो इतिहास हमारे स्वाधीनता का है वही हिंदी पत्रकारिता का भी रहा है। यही कारण है कि पत्रकारिता ने आज भी अपना निरंतर प्रभाव बनाए रखा है। हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में साहित्यिक पत्रिकाएं चाहे वह मासिक हों, त्रैमासिक हों, छमाही हों या वार्षिक हों, की भी अहम भूमिका रही है। चिंतन किया जाए तो साहित्यकार जीवन का दृष्टा होता है, और पत्रकारिता जीवन और जगत के अंत सूत्रों को जोड़ने वाली विधा है।
स्वतंत्रता से पूर्व की पत्रकारिता एक महान उद्देश्य को लेकर चल रही थी आज की पत्रकारिता से नितांत भिन्न। भारत की स्वतंत्रता पूर्व की हिंदी पत्रकारिता ने समाज की प्रत्येक दुखती हुई रग का स्पर्श कर समाज को जगाने का काम किया था। हिंदी भाषा के विकास में और भारतवर्ष को एकसूत्र में पिरोने का कार्य साहित्यिक पत्रिकाओं ने बखूबी किया है।
पत्रकारिता के इतिहास पर नजर दौड़ाएं तो देखने में आता है कि हिंदी पत्रकारिता ने हर समय अपनी भूमिका निभाई है चाहे वह आजादी के पहले की बात हो या आजादी के बाद की। वर्तमान समय में पत्रकारिता के बड़े मठाधीशों ने अथवा बड़े प्रकाशकों ने हिंदी पत्रकारिता के नाम पर केवल पत्रकारों को ठगा है। पत्रकारिता को एक मिशन बता कर पत्रकार तो पैदा किये जा रहे हैं, लेकिन उन्हें केवल अपने हित के लिए ही उपयोग किया जा रहा है। इस बात की चिंता करने वाला कोई नहीं कि एक पत्रकार का घर परिवार कैसे चल रहा है? वह समाज में अपनी इज्जत किस तरह से बनी पा रहा है? बस प्रतिष्ठा इस बात तक सीमित है कि चलो पत्रकार हैं, बड़े लोगों के साथ उठने-बैठने का मौका जरूर मिलेगा।
आज जब हिंदी पत्रकारिता के अनेक बड़े पत्रकार उपेक्षित हो रहे हैं, तब उन्हें लग रहा है कि कहीं न कहीं त्रुटियां हुई हैं, लेकिन अब बहुत देर हो चुकी है। पत्रकारिता अब मिशन न होकर व्यवसाय बन चुका है। इसका फायदा मीडिया संस्थान के मालिक ही उठा रहे हैं। कुछ वर्ष पूर्व हिंदी पत्रकारिता को लेकर एक सर्वे भी कराया गया था, जिसमें इस बात पर चिंता व्यक्त की गई थी कि हिंदी मीडिया संस्थानों में यदि सबसे कम वेतनमान किसी का है तो, वह हिंदी पत्रकारों का है। इस संस्थान के अन्य विभागों में काम करने वाले कर्मचारी पत्रकारों से कहीं ज्यादा वेतन पा रहे हैं। कहने का तात्पर्य यह कि हिंदी पत्रकारिता के नाम पर केवल दिखावा ही किया जा रहा है।
कई ऐसे संस्थान भी है जो वेतनमान तो नहीं दे रहे बल्कि पत्रकारिता के नाम पर संस्थान का आईकार्ड जारी कर अपेक्षा रखते हैं कि पत्रकार उनके संस्थान के लिए आर्थिक संसाधन मुहैया कराएगा। फिर वह विज्ञापन के तौर पर हो या फिर पेड न्यूज के तौर पर। यह बड़ा ही दुखद मंतव्य है जो हिंदी पत्रकारिता को गर्त पर ले जाने का काम कर सकता है। पत्रकारों के हित में मजीठिया वेतनमान की सिफारिश लागू की गई , किंतु एक भी हिंदी मीडिया संस्थान ऐसा नहीं जो इस सिफारिश पर अमल करे! कहने को तो एक-एक संस्थान कई-कई संस्करण निकाल कर अपने को देश का सर्वश्रेष्ठ समाचार पत्र साबित करने में लगा है, किंतु उस संस्थान के अंदरूनी हालात क्या हैं, यह केवल पत्रकार ही बता सकता है। बेरोजगारी के इस दौर में पत्रकार अपनी विवशता के चलते हिंदी मीडिया संस्थानों के साथ जुड़ा हुआ है।
हिंदी के समाचार चैनल टीआरपी में नंबर एक बने हुए हैं। वहीं अगर व्यावसायिक प्रोफेशन की बात की जाए तो हिंदी का नंबर काफी पीछे चला जाता है। हिंदी पत्रकारिता दिवस के अवसर पर अखबारों में कालम पढ़ लें या फिर इसका कितना भी विश्लेषण कर लें कोई खास फायदा दिखाई नहीं पड़ रहा है। आज हिंदी पत्रकारिता दिवस के अवसर पर मैं यही कहना चाहता हूं कि सरकार यदि चाहे तो हिंदी के पत्रकारों के सुनहरे दिन आ सकते हैं। सरकारें अपने वोटिंग परसेंटेज को देख कर हर वर्ग और समाज के लिए कुछ न कुछ ललचाई योजनाएं जरूर लेकर आती रही हैं।
आज जरूरत है लंबे समय से पत्रकारिता के क्षेत्र में अपना योगदान देने वाले, कम से कम वेतन पाने वाले, लोगों को सुरक्षा प्रदान करने की। यह सुरक्षा इस रूप में सामने आनी चाहिए कि पत्रकार को भी सरकार द्वारा बनाए गए नियमों के तहत कम से कम 20 से 25 वर्ष मीडिया संस्थानों में काम करने के उपरांत, ज्यादा नहीं तो 20,000 रुपए पेंशन के रूप में प्रदान किए जायेंगे। यदि इस तरह की योजना केंद्र सरकार से लेकर सभी प्रादेशिक सरकारें लागू करती हैं, तो मुझे यह कहने में कोई झिझक नहीं कि देश और दुनिया को जगाने वाले पत्रकार अपनी पूरी ऊर्जा के साथ अपनी जवाबदारी का निर्वहन करते रहेंगे । हिंदी पत्रकारिता दिवस को सार्थकता प्रदान करने के लिए उसकी 200 वर्षों के आयोजन से पूर्व इस तरह की योजना सभी सरकारों को प्राथमिकता में शामिल करना चाहिए।


