हिंदी के घर हिंदी दिवस
'हिंदी दिवस' के अवसर पर शहर के प्रतिष्ठित इंग्लिश मीडियम स्कूल के कुछ सोशल मीडिया कवि टाइप हिंदी प्रेमी शिक्षक, हिंदी के घर पहुंचे

- मुकेश राठौर
'हिंदी दिवस' के अवसर पर शहर के प्रतिष्ठित इंग्लिश मीडियम स्कूल के कुछ सोशल मीडिया कवि टाइप हिंदी प्रेमी शिक्षक, हिंदी के घर पहुंचे ,जैसे 'वृद्ध दिवस' पर बेटे-बहू और 'शिक्षक दिवस' पर भूतपूर्व छात्र क्रमश: वृद्धाश्रम और विद्यालय पहुंचते हैं, पहुंचाना भी चाहिए क्योंकि जो दिवस जिसके लिए आरक्षित है,कम से कम उस दिन तो उसे याद करना बनता ही है, वरना दिवस बनाने और मानने का औचित्य ही क्या रह जायेगा ! मालूम हो कि हिंदी कभी इस स्कूल की प्रधान हुआ करती थी लेकिन जब से विद्यालय स्कूल बना और अंग्रेजी प्रिंसिपल हुई हिंदी 'अवशेषी अंग ' बनकर रह गई और फिर शनै-शनै अनियमित होते-होते एक दिन शाला त्यागी हो गई, जैसे घरों में डेढ़ सयानी बहूओं के आने के बाद सासों के साथ होता है,
सुना हैं कि अंग्रेजी पढ़ने-पढ़ाने वाले लोग सभ्य होते हैं, अंग्रेजी ओढ़ते हैं, अंग्रेजी बिछाते हैं, अंग्रेजी खाते हैं, अंग्रेजी पीते हैं, सभ्यता तो वैसे ही आ जाती है, कदाचित इसीलिए यहां के कुछ सुधि शिक्षक हर साल अपने स्कूल की संस्थापक भाषा हिंदी को याद कर लिया करते हैं. जैसे पार्टियों में मार्गदर्शक बनकर बैठे वरिष्ठ नेताओं को गाहे-बगाहे याद कर लिया जाता है. बहरहाल 'हिंदी डे' मनाने हेतु वे शॉल,श्रीफल,फूलमाला और प्रशस्ति पत्र लेकर पहुंचे। अपनी मातृभाषा के लिए इतना वार्षिक खर्चा तो बनता है. आजकल सम्मान पर होने वाले खर्च राशि,देने वाले हाथ और स्थान से सम्मान का वज़न तौला जाता है.
हिंदी प्रेमियों ने देखा एक पुराने से कमरे में घर की दादी माँ 'संस्कृत' खाट पर पड़े कराह रही है. दूसरे कमरे में मां 'हिंदी' उदास लेटी है, अपनों की उपेक्षा से संस्कृत की सांस रुद्ध हो रही थी तो हिंदी की हालत हिंग्लिश हो गई थी. सिरहाने और पैताने बोलियां खड़ी हैं. इस चिंता में कि किसी दिन दादी और मां को कुछ हो गया तो हमें घर में कौन पूछेगा ! 'मां तब तक मायका' अब जबकि हिंदी की ही एक बेटी 'निमाड़ी' का उन्नीस सितंबर को जन्मदिन आने वाला है ,लेकिन...! ' मां खुश नहीं तो कुछ नहीं' ओ मां, ओ मां...के बाद भी हिंदी द्वारा 'हुंकारा' तक न दिए जाने से इन हिंदी प्रेमियों को 'आवत ही हरषै नहीं,नैनन नहीं सनेह" वाली फीलिंग हुई, कुछ और बोलते इससे पहले ही एक बोली बतियाने लगी कि मां को साल भर बोलने के बदले एक दिन उन पर बोल कर सब पानी बोल डाल जाते हैं, मां जब विद्यालय जाती थी बहुत खुश थी, कहती अंग्रेजों के जमाने में बहुत दुख झेले। मैं ही नहीं मेरी बेटियां भी दुनिया पर राज करेगी।अफ़सोस अंग्रेज चले गए मगर अंग्रेजी छोड़ गए. जैसे-जैसे विद्यालय छूटा ,उम्मीद की डोर छूटती गई। वह आप से बात नहीं करना चाहती।
हिंदी के सम्मान की प्रतीक्षा में खड़े हिंदी प्रेमियों ने कहा कि हम हिंदी का दुख समझते हैं,हमें पता है कि वे स्वाभिमानी है। वे नहीं आएंगी तभी तो हम खुद चलकर आ गए। प्लीज उन्हें समझाइये। कुछ देर की तो बात है. यकीन मानिए सालभर डिस्टर्ब नहीं करेंगे। इस बीच हिंदी खुद आ गई। बोली मैं सम्मान के लिए तैयार हूं लेकिन घर बैठे नहीं !मुझे विद्यालय में सम्मानित कीजिये। मुझे मेरे पद पर प्रतिष्ठित कीजिये। हिंग्लिश बन चुकी हिंदी के फिर से स्कूल लौटने की बात पर हिंदी प्रेमियों के होश उड़ गए, कहां तो वे फॉरमैलिटी निभाने आये। थे और कहां हिंदी फिर फॉर्म में लौट आई. उन्हें अपने बच्चों और पेरेंट्स के हिंदी-हिंदी हो जाने का भय सताने लगा, वे सम्मान सामग्री वहीं छोड़ उल्टे पांव लौट गए।


