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क्या हम बहुसंख्यक तानाशाही के दौर में प्रवेश कर चुके हैं ?

महज तीन साल पुरानी बात है जब बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के सामाजिक विज्ञान संकाय प्रमुख ने अपने अधीन समन्वित ग्रामीण विकास केंद्र में छात्रों को गाय के गोबर के उपले बनाने का प्रशिक्षण देने के लिये कार्यशाला आयोजित की और खुद ही उसका वीडियो वायरल किया

क्या हम बहुसंख्यक तानाशाही के दौर में प्रवेश कर चुके हैं ?
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महज तीन साल पुरानी बात है जब बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के सामाजिक विज्ञान संकाय प्रमुख ने अपने अधीन समन्वित ग्रामीण विकास केंद्र में छात्रों को गाय के गोबर के उपले बनाने का प्रशिक्षण देने के लिये कार्यशाला आयोजित की और खुद ही उसका वीडियो वायरल किया। इससे घटना से कुछ ही दिनों पहले दिल्ली विश्वविद्यालय के सर्वाधिक प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों में से एक हंसराज कॉलेज में महर्षि दयानन्द सरस्वती के नाम पर गौ संवर्धन एवं अनुसंधान केंद्र खोलने की खबर आई थी और इससे भी कुछ बरस पहले मध्यप्रदेश में एक संघनिष्ठ कुलपति ने शहर के बाहर बनने वाले विश्वविद्यालय के नये परिसर में गौशाला स्थापित करने का निर्णय कर लिया था। उन्होंने महापरिषद और प्रबंध समिति की मंजूरी के बिना गौशाला के संचालन के लिए अख़बारों में निविदा विज्ञप्ति तक जारी कर दी थी, ये बात और है कि उस फ़ैसले पर अमल नहीं किया जा सका।

ये बातें याद इसलिये आईं कि सोशल मीडिया पर फिर एक वीडियो वायरल हुआ है जिसमें एक महिला किसी कक्षा की दीवार पर गोबर लीप रही है। बताया गया कि ये मोहतरमा दिल्ली के लक्ष्मीबाई कॉलेज की प्राचार्य प्रत्यूष वत्सला हैं। वे संस्थान परिसर में गाय पालती हैं और अभी हनुमान जयंती पर कॉलेज में सुंदरकांड का पाठ भी उन्होंने करवाया। इतना ही नहीं, नवरात्र के दौरान वे कॉलेज में दुर्गा स्थापना भी करवाती हैं। किसी उच्च शिक्षा संस्थान में धार्मिक कर्मकांड का यह अकेला मामला नहीं है। हाल ही में उत्तर प्रदेश के एक विश्वविद्यालय में, नये विभागाध्यक्ष ने पदभार ग्रहण करने से पहले पूजा-पाठ करवाया। दूसरी तरफ तमिलनाडु के राज्यपाल ने संविधान और अपने पद की गरिमा के खिलाफ़ जाकर मदुरै के एक इंजीनियरिंग कॉलेज में छात्रों से जय श्रीराम का नारा लगवा दिया।

इन घटनाओं के बरक्स मेरठ,भागलपुर और शिमला में जो हुआ, उसे देखा जाना चाहिये। मेरठ के चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय में उर्दू विभाग द्वारा पिछले दिनों ईद मिलन समारोह आयोजित किया जाना था। इसका पता चलते ही एक छात्र नेता ने धमकी दी कि शिक्षा के मंदिर में किसी तरह के भी धार्मिक कार्यक्रम का आयोजन नहीं किया जाना चाहिये और अगर विश्वविद्यालय परिसर में ईद मिलन का कार्यक्रम आयोजित होता है तो फिर वह खुद विश्वविद्यालय के मुख्य द्वार पर हनुमान चालीसा का पाठ करेगा। इस धमकी का नतीजा यह हुआ कि ईद मिलन का कार्यक्रम रद्द कर दिया गया। भागलपुर के टीएनबी कॉलेज में शिक्षक संघ ने ईद मिलन समारोह का आयोजन किया तो अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने आपत्ति जताई और कहा कि नवदुर्गा के समय कॉलेज प्रशासन ने गरबा के लिये जगह नहीं दी थी, इसलिये कॉलेज में ईद मिलन भी नहीं होना चाहिये।

शिमला के एक निजी स्कूल में नर्सरी से दूसरी कक्षा तक के छात्रों के लिए ईद मनाने का कार्यक्रम तय किया था और इसके लिये छात्रों को कुर्ता-पायजामा, टोपी पहनकर आने और टिफिन में सेवइयां लाने को कहा गया था। स्कूल प्रशासन के इस निर्देश पर हिंदू संगठनों ने कड़ा ऐतराज जताया। उन्होंने इसे हिंदू संस्कृति के खिलाफ़ साजिश बताया और कहा कि यह भारत के संविधान के धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत के विरुद्ध है। उन्होंने चेतावनी दी कि यदि स्कूल ने अपना निर्देश वापस नहीं लिया गया तो स्कूल का घेराव किया जायेगा और कानूनी कार्रवाई भी की जायेगी। मजबूर स्कूल प्रबंधन ने ईद मनाने का कार्यक्रम को रद्द कर दिया। हालांकि उसने साफ़ किया कि यह आयोजन केवल सांस्कृतिक विविधता को समझाने और छात्रों को विभिन्न त्योहारों से परिचित कराने के उद्देश्य से किया जा रहा था।

क्या यह हास्यास्पद नहीं है कि किसी शैक्षणिक परिसर में पूजा-पाठ, यज्ञ-हवन होने, धार्मिक ग्रंथों का पाठ करने, दुर्गोत्सव और गणेशोत्सव मनाने जैसे क्रियाकलाप हों तब किसी को याद नहीं आता कि कोई एक नहीं, बल्कि सारे ही शिक्षा संस्थान, शिक्षा के मंदिर हैं। संवैधानिक पद पर आसीन व्यक्ति द्वारा छात्रों से जय श्रीराम के नारे लगवाने पर किसी को धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत का ख्याल नहीं आता। लेकिन अगर कोई आयोजन दूसरे धर्म से जुड़ा हो और उससे सांप्रदायिक सद्भाव बढ़ता हो तो बहुसंख्यकों को तुरंत अपना धर्म खतरे में नज़र आने लगता है। क्या इसके मायने ये हैं कि बहुसंख्यक मनमानी करें तो जायज है और अल्पसंख्यक अगर अपनी खुशियां भी बांटना चाहे तो बेजा हरकत! और क्या बच्चों को सर्वधर्म समभाव की सीख देना भी गुनाह हो गया है!

इन सब बातों से सवाल उठता है कि हमारे देश में लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता अभी भी ज़िंदा हैं या हम बहुसंख्यक तानाशाही के दौर में प्रवेश कर चुके हैं। अभी तक हमने दुनिया के कई मुल्कों में में और थोड़ी-बहुत अपने यहां भी, सत्ता की तानाशाही देखी है लेकिन अब समाज में इस प्रवृत्ति को पनपते देखना दुखद है।


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