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हेट स्पीच : सुप्रीम कोर्ट की नाराजगी जायज है

जिन कड़े शब्दों के साथ सर्वोच्च न्यायालय ने देश भर में अपनाई जा रही नफरत की भाषावली के खिलाफ बात कही है

हेट स्पीच : सुप्रीम कोर्ट की नाराजगी जायज है
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जिन कड़े शब्दों के साथ सर्वोच्च न्यायालय ने देश भर में अपनाई जा रही नफरत की भाषावली के खिलाफ बात कही है, वह यही दर्शाता है कि पानी नाक तक पहुंच गया है। यह देश की सरकार, उसके विभिन्न अंगों एवं संवैधानिक संस्थाओं के लिये भी पर्याप्त बड़ी चेतावनी है जो इस बात की ओर साफ इशारा कर रही है कि अगर जल्दी ही आग उगलती भाषा और बयानों पर रोक न लगाई गई तो स्थिति हाथ के बाहर चली जायेगी। भारत पिछला कुछ काल अभूतपूर्व हिंसक व नफरती बोलों का ज्वार देश रहा है जो देश व समाज को तोड़ने पर आमादा है।

आजाद भारत ने जिस प्रकार बड़ी कठिनाई से समाज के विभाजन को कम करने की कोशिशें की हैं, उस पर हालिया परिस्थितियां पानी फेरती नज़र आ रही हैं। सुप्रीम कोर्ट का यह कहना कि 'राज्य नपुंसक व शक्तिहीन है। प्रदेश हेट स्पीच को रोकने की प्रणाली क्यों विकसित नहीं कर पा रहे हैं?' शीर्ष कोर्ट के ये शब्द उसकी नाराज़गी ही नहीं वरन उसकी चिंता और पीड़ा सब कुछ बयां करने के लिये काफी हैं। यह देश के हर संवेदनशील व समझदार नागरिक की निराशा का प्रतिबिम्ब है जो पिछले कुछ समय से इस तरह के बयानों की बाढ़ को सतत ऊंचा होते देख रहे हैं- लाचारी व भय के साथ।

बुधवार को जस्टिस केएम जोसेफ व जस्टिस बीवी नागरत्ना की एक बेंच ने ये विचार उस याचिका की सुनवाई के दौरान प्रकट किये जो महाराष्ट्र सरकार के खिलाफ इस आरोप को लेकर दायर की गई है कि वह रैलियों के दौरान हेट स्पीच के विरूद्ध तत्काल कार्रवाई लेने में नाकाम रही है। याचिकाकर्ता ने आरोप लगाया है कि सकल हिन्दू समाज ने महाराष्ट्र भर में करीब 50 रैलियों में एक वर्ग के खिलाफ नफरती व हिंसक भाषा का प्रयोग किया है। बेंच ने इसके पूर्व कार्यपालिका से स्वत: संज्ञान लेकर कार्रवाई करने के निर्देश दिये और कहा कि वह किसी के द्वारा शिकायत दर्ज करने का इंतज़ार न करे।

किसी भी देश और वहां की सरकार के लिए इससे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण कुछ नहीं हो सकता कि शीर्ष कोर्ट को ऐसी टिप्पणी करनी पड़े और इस आशय के निर्देश विशेष रूप से देने पड़ें जिसके बारे में कानून की किताबों में पहले से पर्याप्त प्रावधान हैं और कार्रवाई की स्पष्ट प्रक्रिया है। सवाल यह है कि हालात यहां तक कैसे पहुंचे और उसके लिये दोषी कौन हैं। जनसामान्य में यह बात अब बड़ी स्पष्ट है कि देश की मौजूदा तस्वीर हाल ही में उकेरी गई है।

सामाजिक धु्रवीकरण में राजनैतिक जीत व सत्ता हासिल करने का सफल नुस्खा ढूंढ़ लेने वाली भारतीय जनता पार्टी की यह साफ तौर पर देन कही जा सकती है। उसकी मातृसंस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वैचारिक खाद-पानी से सिंचित व विकसित हुई भाजपा की आईडियालॉजी समाज में विभाजन व परस्पर अलगाव को बढ़ावा देती आई है। नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में बनी 2014 और उसके बाद दोबारा सत्ता सम्भालने वाली भाजपा सरकार ने इस हेट स्पीच को खूब बढ़ावा दिया है। पार्टी के भीतर साम्प्रदायिक व सामाजिक विखंडन की एक प्रभावी प्रणाली तैयार कर दी गई है जिसका सूत्र संचालन मंत्री और बड़े नेता तक करते हैं।

केन्द्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर और सांसद प्रवेश वर्मा द्वारा दिये गये नफरत भरे भाषणों को कौन भूल सकता है जिसमें उन्होंने विरोधी विचारधारा के लोगों को गोली मारने की बात कही थी। साम्प्रदायिक सौहार्द्र व सामाजिक समरसता की इच्छा रखने वाला नागरिक हो या कानून के राज में विश्वास रखने वाली अवाम तब निराश हो जाती है जब कोर्ट ऐसे लोगों को यह कहकर बरी कर देती है कि 'मुस्कुरा कर किया गया अपराध कोई अपराध नहीं होता।' ऐसे ही, धर्म संसदों के जरिये एक वर्ग विशेष के नरसंहार का आह्वान करने वाले या तो पकड़ में नहीं आते अथवा जल्दी ही जमानत पर बाहर निकल आते हैं- नये सिरे से घृणा और हिंसा फैलाने के लिये। सत्ता चलाने वाले दल ऐसी तेजाबी बात कहने वालों के लिये उन्हें 'फ्रिंज एलीमेंट्स' कहकर उनसे पीछा छुड़ा लेते हैं। देश की आजादी में योगदान दिलाने वालों के खिलाफ भी नफरत फैलाई जाती है और समाज उसे बेबस होकर देखता रहता है।

ऐसा नहीं है कि न्यायपालिका ने पहली बार इस मामले पर नाराजगी जताई हो। इसी साल इसी बेंच ने इस प्रवृत्ति को 'गंदगी' बतलाते हुए चेतावनी दी थी कि यह 'राक्षस' का रूप धारण कर लेगी। देखना तो यह है कि क्या भाजपा समाज में अशांति, घृणा व हिंसा की कीमत पर सत्ता बनाये रखेगी या उच्चतम न्यायालय की उक्त टिप्पणी को गम्भीरता से लेकर हेट स्पीच पर ठोस नियंत्रण लाएगी। वैसे उपाय तो शीर्ष कोर्ट ने बताया ही है- धर्म को राजनीति से अलग कर दिया जाये।


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