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अपनी ही पार्टी को उसके हाल पर छोड़ चुके हैं मोदी?

पांच राज्यों के लिये निर्धारित विधानसभा के चुनाव जैसे-जैसे नजदीक आ रहे हैं

अपनी ही पार्टी को उसके हाल पर छोड़ चुके हैं मोदी?
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- डॉ. दीपक पाचपोर

तीनों राज्यों में बड़ी संख्या में केन्द्रीय मंत्रियों व नेताओं को उतारा गया है जो इन सभी राज्यों में तकलीफदेह साबित हो रहा है। हार या जीत दोनों ही परिस्थितियों में आंतरिक संघर्ष देखने को मिलेंगे, यह भी तय है। इतना ही नहीं, तीनों ही राज्यों में स्थानीय चेहरों व सबसे बड़े नेताओं की उपेक्षा कर मोदी को जो प्रमुख चेहरा बनाया गया है, वह भाजपा के खिलाफ जा सकता है।

पांच राज्यों के लिये निर्धारित विधानसभा के चुनाव जैसे-जैसे नजदीक आ रहे हैं, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की चुनावी मंचों से लम्बी अनुपस्थिति सवाल पैदा कर रही है कि क्या उन्होंने भारतीय जनता पार्टी को उसके हाल पर छोड़ दिया है। ऐसा इसलिये महसूस होता है क्योंकि जैसी अराजकता व भ्रम चुनावी राज्यों में दिख रहा है वह मोदी के चुनाव संचालन को अपने हाथों में रखे रहने से सम्भव नहीं था। यदि ऐसा है तो इससे पार्टी की मुश्किलों में इज़ाफ़ा होगा तथा उसे चुनौती देती कांग्रेस और मजबूत होगी। दशक भर यानी जब से भारत के राजनैतिक परिदृश्य में मोदी एक फिनोमिना बनकर उभरे और छाये हैं, तब से शायद ही कोई ऐसा चुनाव रहा होगा जिसमें उनकी उपस्थिति व दबदबा न रहा हो। अगले महीने की विभिन्न तारीखों में होने जा रहे चुनावों का ऐलान होने के पहले तो मोदी कई राज्यों में सभाएं लेते नज़र आये थे, पर अचानक उनकी अनुपस्थिति बहुत साफ महसूस हो रही है। कम से कम पिछले हफ्ते-दस दिनों में उनके द्वारा कोई बड़ी चुनावी रैली या सभा न करने से यह सवाल उठना स्वाभाविक है।

क्या मोदी स्वयं को हटा चुके हैं या भाजपा को संचालित व निर्देशित करने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा उन्हें किनारे होने के निर्देश मिले हैं? या उन्हें शीर्ष नेतृत्व द्वारा किसी सोची-समझी रणनीति के अंतर्गत पीएम को चुनावी परिदृश्य से स्थायी-अस्थायी तौर पर परे किया जा रहा है? कई प्रश्न हैं जो चुनाव को नज़दीक से देखने-समझने वाले जानना चाहते हैं। अगर ऐसा है तो आने वाले दिनों के लिये यह बड़ा संकेत है। उन्हें ताबड़तोड़ रैलियां, सभाएं, रोड शो करते हुए देखने का आदी हो चुका यह देश अगर इतने दिनों का भी अंतराल देखे तो उसके लिये यह सोचना बहुत स्वाभाविक है कि क्या मोदी की पकड़ अपनी पार्टी और देश पर से छूट रही है। हालांकि इसका सही जवाब तभी मिल सकेगा जब उन्हें फिर से चुनावी दृश्यावली का हिस्सा बनते हुए लोग देखेंगे।

सम्भव है कि मोदी चुनावों के ऐन वक्त पर धुंवाधार प्रचार में जुटेंगे। हालांकि कोई मान नहीं सकता कि जो व्यक्ति चुनाव हो या न हो, हर वक्त एक्शन मोड में दिखता हो और सारे साल जिसकी भाषा और कृत्य ऐसे होते हों मानो वह चुनावी रैली को सम्बोधित कर रहा हो; तो ऐसे मोदी जी कैसे इतने बड़े अवसर व मंच से खुद को विलग कर सकते हैं? अगर यह कोई सोची-समझी योजना है तो देखना होगा कि उस स्थिति में वे कितने प्रभावी होते हैं और भाजपा को उसका कितना लाभ मिलता है। पहले कई चुनावों में देखा गया है कि आचार संहिता लागू होने या चुनाव प्रचार बंद होने के कुछ मिनट पहले तक मोदी चुनावी सभाओं को सम्बोधित करते रहे हैं। हो सकता है कि इसी तर्ज पर वे अंतिम समय में नमूदार हो बड़े मजमे कर सबको चौंका दें।

मोदी की अनुपस्थिति का एक कारण यह माना जा रहा है कि स्वयं उनकी पार्टी के भीतर धारणा बन चुकी है कि कांग्रेस के आक्रामक चुनाव प्रचार, उसके वादे व गारंटियों तथा उसके जवाबी हमलों के चलते भाजपा को न तो कुछ सूझ रहा है और न ही उसके पास कोई काट है। उनके मुंह से कांग्रेस के कथित भ्रष्टाचार, वंशवाद, उन्हें मिलता 140 करोड़ लोगों का आशीर्वाद, डबल इंजिन सरकारें, विश्व गुरु आदि की बातें सुनते हुए लोग ऊब चुके हैं। इसके विपरीत, विपक्षी गठबन्धन 'इंडिया' का नेतृत्व करने वाली कांग्रेस के बढ़ते जन समर्थन एवं नैतिक बल के सामने भाजपा पस्त दिखाई दे रही है। जहां एक ओर मोदी अपने चिर-परिचित तरीकों से व कड़े सुरक्षा घेरे में प्रायोजित कार्यक्रमों में अवतरित होते हैं वहीं कांग्रेसी नेता राहुल गांधी एक साधारण व्यक्ति की तरह लोगों एवं जन समुदायों से मिल रहे हैं। इससे जमीनी स्तर पर तैयार हो रहे विमर्श का शासकीय या अशासकीय जवाब भाजपा के पास नहीं है। सम्भवत: अब मोदी का जनता के सामने जाना कठिन हो गया हो इसलिये उन्होंने प्रचार अभियानों से दूरी बना ली हो।

जिन राज्यों में चुनाव होने जा रहे हैं, उनका अगर बारी-बारी से परीक्षण किया जाये तो कुछ कारण साफ हैं जिनके चलते मोदी ने इस समय चुनावी प्रचार से छुट्टी ले ली हो। शायद इन राज्यों में पार्टी के भीतर इस कदर अराजकता व भ्रम है कि मोदी के सामने तीनों ही सवाल हैं कि आखिर वे किस राज्य में जाएं, क्यों जायें और वहां क्या कहेंगे। मिजोरम की बात करें तो वहां के मुख्यमंत्री जोरामथंगा ने कह दिया है वे नरेन्द्र मोदी के साथ मंच साझा नहीं करेंगे। इसका कारण यह है कि मणिपुर के मामले में जैसी चुप्पी मोदी ने साध ली थी और वहां अराजकता होने दी, उसका गहरा असर मिजोरम पर भी पड़ा है। यहां भाजपा के खिलाफ लोगों में रोष है क्योंकि राज्य में बड़ी संख्या में ईसाई समुदाय के लोग रहते हैं। कहने को इस राज्य में सत्तारुढ़ मिजो नेशनल फ्रंट और भाजपा का गठबन्धन है पर वहां एमएनएफ के पास 26 विधायकों के साथ पूर्ण बहुमत है।

40 सीटों की विधानसभा में भाजपा का केवल एक ही सदस्य है। वैसे भी दोनों का गठबन्धन नाममात्र का है और जोरामथंगा पहले ही कह चुके हैं कि उन्हें भाजपा के सहयोग की ज़रूरत नहीं है। तेलंगाना की बात करें तो वहां पहले सत्तारुढ़ भारत राष्ट्रीय समिति के भाजपा के साथ अच्छे सम्बन्ध थे लेकिन मुकाबला भी इन दोनों के बीच ही था। राहुल गांधी द्वारा अपनी भारत जोड़ो यात्रा के दौरान राज्य में बिताए करीब दो हफ्ते तथा कांग्रेस की चुनावी रैलियों ने भाजपा को मुकाबले से बाहर कर दिया है। वहां अब खुद बीआरएस संकट में है और अपनी सरकार बचाने के लिये कांग्रेस से संघर्षरत है। हैदराबाद कौंसिल के मेयर पद के लिये यहां के मुख्यमंत्री सी चंद्रशेखर राव द्वारा भाजपा प्रणीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबन्धन से मदद मांगने की बात को सार्वजनिक कर मोदी ने दोनों के रिश्तों में जो खटास भर दी है उसका फायदा भी कांग्रेस को मिलना लाजिमी है।

हिन्दी पट्टी के राजस्थान, मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ में भी अलग-अलग कारणों से कांग्रेस सीधे-सीधे भाजपा पर हावी दिखाई दे रही है। राजस्थान में वसुंधरा राजे सिंधिया को लम्बे समय तक हाशिये में रखने और मुकाबले में ऐसे नेताओं को खड़ा करने से मामले को उलझा दिया गया है जो उनके सम्भावित प्रतिद्वंद्वी हो सकते हैं। ऐसे ही, मप्र में उनके भतीजे ज्योतिरादित्य सिंधिया भी उपेक्षा के शिकार हुए हैं। उनके तमाम समर्थकों के टिकट काट दिये गये हैं जिससे उनके खेमे में नाराजगी है। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस सरकार द्वारा किसानों को की गई कर्ज माफी, बोनस, न्याय योजनाएं आदि की सफलता भाजपा पर भारी पड़ रही हैं और उनकी कोई काट मोदी व राज्य ईकाई के पास नहीं है।

तीनों राज्यों में बड़ी संख्या में केन्द्रीय मंत्रियों व नेताओं को उतारा गया है जो इन सभी राज्यों में तकलीफदेह साबित हो रहा है। हार या जीत दोनों ही परिस्थितियों में आंतरिक संघर्ष देखने को मिलेंगे, यह भी तय है। इतना ही नहीं, तीनों ही राज्यों में स्थानीय चेहरों व सबसे बड़े नेताओं की उपेक्षा कर मोदी को जो प्रमुख चेहरा बनाया गया है, वह भाजपा के खिलाफ जा सकता है। यह भी एक कारण है जो मोदी को इन राज्यों में जाने से शायद रोक रहा है।
(लेखक देशबन्धु के राजनीतिक सम्पादक हैं)


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