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आजादी के इंतजार में आधी आबादी

देश स्वतंत्रता प्राप्ति की 76वीं वर्षगांठ मनाया है। हमने अपना 'अमृत महोत्सव' भी मना लिया। 'विश्व गुरु' होने को लालायित हम हर क्षेत्र में उल्लेखनीय वृद्धि कर रहे हैं

आजादी के इंतजार में आधी आबादी
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- कविता त्रिवेदी

भारतीय समाज में अभी भी यह अवधारणा है कि समाज पुरुषों से चलता है। लड़़की का होना ही एक बोझ माना जाता है। उसके जन्म होने के पहले ही उसे खत्म करने की साज़िश शुरू हो जाती है और पैदा हो जाए तो बचपन से अधिकतर परिवारों में वे लड़की होने के अपराध बोध से ग्रस्त रहती हैं। यह मानकर चला जाता है कि वह पराया धन है।

देश स्वतंत्रता प्राप्ति की 76वीं वर्षगांठ मनाया है। हमने अपना 'अमृत महोत्सव' भी मना लिया। 'विश्व गुरु' होने को लालायित हम हर क्षेत्र में उल्लेखनीय वृद्धि कर रहे हैं। विश्व की पांचवीं अर्थव्यवस्था से ऊपर छलांग लगाने की लालसा भी है, लेकिन 'यूनाइटेड नेशंस डेवलेपमेंट प्रोग्राम' (यूएनडीपी) के 'जेंडर सोशल इंडेक्स' की ताजा रिपोर्ट कुछ और बताती है। 'यूएनडीपी' ने चार आयामों :राजनीतिक, शैक्षिक, आर्थिक और भौतिक अखंडता में महिलाओं के प्रति लोगों के नज़रिये को ट्रैक किया। इसकी रिपोर्ट के मुताबिक लगभग 90फीसदी लोग अभी भी महिलाओं के खिलाफ कम-से-कम एक पूर्वाग्रह रखते हैं। दूसरे देशों की तुलना में भारतीय महिलाओं के लिए यह कहीं ज्यादा है। यहां राजनीतिक पूर्वाग्रह 68.9 प्रतिशत, शैक्षणिक 38.5 प्रतिशत, आर्थिक 75.1 प्रतिशत और भौतिक अखंडता पर पूर्वाग्रह 92.4 प्रतिशत है।

'यूएनडीपी' की रिपोर्ट को मैदानी अनुभवों से जोड़कर देखें तो तीन महीने से जातीय हिंसा की आग में जलकर खाक हो रहा उत्तर-पूर्व का राज्य मणिपुर दिखाई देता है। वहां की राज्यपाल महामहिम अनुसुइया उइके ने भी स्वीकार किया है कि ऐसी हिंसा उन्होंने अपने जीवन में कभी नहीं देखी। इस जातिगत हिंसा का शिकार कौन बना? दोनों ओर की महिलाएं ही? वे न आतंकवादी थीं, न राष्ट्रवाद विरोधी और न ही खूनी या डकैत। वे किसी की मां, बहन एवं बेटी थीं। एक कारगिल के जवान की पत्नी थीं, तो एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी की पत्नी थीं। ऐसी कई बहन-बेटियां मारी गईं या जला दी गईं। कैसे और किसने? उसी समुदायों के पुरुषों ने जिन्होंने यह मान रखा है कि किसी भी महिला पर अत्याचार करना उनका जन्मजात हक़ है और ऐसा करने में उन्हें न कोई शर्म है, न समाज, शासन, प्रशासन का कोई भय।

भारतीय महिलाओं की समाज में उल्लेखनीय भूमिका है। हर वर्ग की स्त्रियां अपने शारीरिक,सामाजिक, व्यावहारिक एवं आर्थिक योगदान से समाज को, परिवार को, देश को परोक्ष या अपरोक्ष रूप से सहायता प्रदान कर रही हैं। बावजूद इसके कश्मीर से कन्याकुमारी हो, या राजस्थान से मणिपुर, महिलाओं पर होने वाले उत्पीड़न एवं अत्याचारों की संख्या 'ट्रिलियन डालर इकानामी' की तरह बढ़ती ही जा रही है और इस मामले में कोई भी वर्ग अछूता नहीं है।

भारतीय समाज में अभी भी यह अवधारणा है कि समाज पुरुषों से चलता है। लड़़की का होना ही एक बोझ माना जाता है। उसके जन्म होने के पहले ही उसे खत्म करने की साज़िश शुरू हो जाती है और पैदा हो जाए तो बचपन से अधिकतर परिवारों में वे लड़की होने के अपराध बोध से ग्रस्त रहती हैं। यह मानकर चला जाता है कि वह पराया धन है। दान दहेज दे, एक सुखी जीवन देने की आस में लड़कियों के परिवार के माता-पिता विवाह कर भार मुक्त हो जाते हैं, लेकिन शादी करके अपने पति के घर गई लड़की वैचारिक तौर पर परिवार के हर व्यक्ति से समझौता करती है। उसे यह शिक्षा दी जाती है कि वह निभाना एवं निभना सीखे। वहीं पारिवारिक संप्रभुता का वर्चस्व किसी भी महिला के साथ होने वाले मानसिक, शारीरिक एवं आर्थिक उत्पीड़न का कारण बनता है। बलात जबरदस्ती, दहेज़ प्रताड़ना, गाली देना, भूखे रखना, शराब पीकर महिलाओं को मारना, अपहरण हो लापता होना-ऐसे अनेक मामले हैं जिसने देश में महिलाओं का जीना दूभर किया हुआ है।

आज देश में महिलाओं का कार्य क्षेत्र बढ़ा है। वे हर मोर्चे पर आत्मविश्वास से काम कर रही हैं, लेकिन उनका प्रतिशत काफी कम है। उपयुक्त वातावरण का न मिल पाना उन्हें घर बैठने को मजबूर कर देता है। महिलाओं एवं लड़कियों के प्रति बढ़ रहे दुराचारों के मामले में बढ़ोतरी चिंता का विषय तो है। एक भययुक्त वातावरण में देश की महिलाएं जीने को मजबूर हैं, चाहे वे कितने ही उच्च पद पर आसीन क्यों न हो। राजनीति का क्षेत्र देश का सबसे मुखर क्षेत्र है। कहने-सुनने की आज़ादी एक प्रजातांत्रिक देश होने के कारण सबको मिलती है। उसमें भी सरपंच महिला हो या जनपद अध्यक्ष, यहां तक कि महिला पार्षद तक का प्रतिनिधित्व उनके पति करते हैं, न कि निर्वाचित महिलाएं। वर्तमान में संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 14.4 प्रतिशत है जो महिलाओं की संख्या की तुलना में बहुत कम है।

आर्थिक स्वावलंबन के लिहाज से देश की 60 प्रतिशत महिलाएं खेती जैसे असंगठित क्षेत्रों से जुड़ी हैं, दिहाड़ी पर काम करती हैं एवं उन्हें स्थायी कार्य का अवसर ही नहीं मिलता। ऐसी ही स्थिति शहरी क्षेत्रों में है जहां गांवों से पलायन कर रोजी-रोटी की तलाश में अपने परिवारों के साथ आई महिलाएं हैं जिनमें घरों में काम करने वाली महिलाओं की संख्या ज्यादा है। वे स्वीकार करती हैं कि पति अच्छे आचरण वाला हो तो ठीक, वरना प्राप्त पैसा भी बेकार हो जाता है। यही नहीं वे घर के लिए कोई चीजें खरीदें तो वे कम कीमत बताती हैं, क्योंकि वह घर परिवार में कलह एवं विवाद का कारण बन सकता है। देश में पुरुषों के मुकाबले कामकाजी महिलाओं की हिस्सेदारी 84 प्रतिशत के मुकाबले मात्र 24 प्रतिशत है, जो बांग्लादेश एवं नेपाल से भी कम है।

शारीरिक स्वास्थ्य के लिए अच्छा खानपान जरूरी है, लेकिन अधिकतर घरों में पुरुषों को भोजन कराने के बाद ही महिलाओं के खाने की परम्परा है। सीमित भोजन का पकना भी महिलाओं को पूर्ण आहार नहीं दे पाता। कमोबेश वही स्थिति घर की लड़की की भी होती है। अधिकतर महिलाएं एवं लड़कियां कुपोषण का शिकार होती हैं। यह स्थिति गांवों से ज्यादा शहरों में है। यही कारण है कि स्वास्थ्य एवं जीवन रक्षा इंडेक्स में भारत 150 वें नंबर पर है।

आजादी के 76 सालों में, माना कि महिलाओं की स्थिति में बहुत बदलाव आया है, लेकिन आबादी का आधा हिस्सा होने के बाद भी वे उस वैचारिक, सामाजिक, आर्थिक एवं स्वयं निर्णय लेने की प्रक्रिया में काफी हद तक नीचे और सामान्यत: वंचित हैं। आकांक्षा, इच्छा एवं कुछ कर गुजरने की चाहत हर महिला अपने मन में संजोए रहती है, लेकिन कम ही उस मुकाम तक पहुंच पाती हैं। जहां आबादी का आधा हिस्सा महिलाएं हों और वे हर स्तर पर प्रताड़ित हों तो सबसे बड़ी जरूरत है, सरकार हर स्तर पर महिलाओं को आगे लाए। समाज में व्याप्त असुरक्षा एवं भय के वातावरण से उन्हें मुक्ति मिले। आर्थिक, सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से संपन्न महिलाएं ही देश की तस्वीर बदल सकती हैं। वह तभी हो पाएगा, जब देश की महिलाओं को भी आजादी मिले।
(लेखिका सामाजिक, राजनीतिक चिंतक हैं।)


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