हाईवे को छोड़ पगडंडी पर चलने वाले गुरूजी
गुरूजी ने हिन्दी-अंग्रेजी के अक्षरों से चित्र बनाने की दृष्टि विकसित की

- बाबा मायाराम
गुरूजी ने हिन्दी-अंग्रेजी के अक्षरों से चित्र बनाने की दृष्टि विकसित की। अक्षरों में न जाने कितने सारे जानवर, पक्षी, लोग, घर आदि छिपे हैं। अगर बच्चे इन अक्षरों को प्यार से उल्टा सीधा करके देखेंगे तो उन्हें खुद ही उनमें बहुत सारे नए नए चेहरे दिखेंगे। धीरे-धीरे ये बेजान अक्षर बच्चों के गहरे मित्र बन जाएंगे। वे कल्पना से उनमें नई-नई चीजें देखेंगे, और अपनी परिधि का विस्तार करेंगे।
चित्रकारी भी शिक्षा का एक माध्यम है। यह भी रेखा, रंग, आकारों का खेल है। खेल-खेल में आड़ी-तिरछी, टेढ़ी-मेढ़ी, सरल तथा घुमावदार रेखाओं से कई प्रकार के आकार बन जाते हैं। रंगों के छींटे और धब्बे भी तो अजीबोगरीब आकार बना लेते हैं। शुरू में ये सारे बेमतलब से लगते हैं, परंतु गौर से देखते रहने पर धीरे-धीरे उनमें परिचित शक्लें उभरने लगती हैं। वास्तव में वहां तो होते हैं, केवल धब्बे और बादलों के टुकड़े। शक्लें तो होती हैं देखने वालों के मस्तिष्क में। यह कहना था गुरूजी यानी विष्णु चिंचालकर जी का। आज मैं इस स्तंभ में उनकी कहानी बताने जा रहा हूं।
विष्णु चिंचालकर, ऐसे मशहूर चित्रकार थे, जो कला को जनसाधारण के दैनंदिन जीवन तक ले गए। रोजमर्रा के काम आने वाली ऐसी बेकार चीजों से कला की दुनिया को सजाया संवारा, जिन्हें लोग कबाड़ समझते थे। धीरे-धीरे कला में बुनियादी मूल्यों की समझ के करीब आते हुए गुरूजी कला में पेंट और ब्रश के क्षेत्र से आगे बढ़ गए।
घर-आंगन के आसपास घास का तिनका, पत्ते, फूल, फल, टहनियां, कुल्फी की डंडी, फूटी बोतलें, नारियल की नट्टी, टूटी रबड़ की चप्पल, सुपारी, नारियल की नट्टी, मकई का भुट्टा, सिंघाड़े का छिलका इत्यादि। इन सबमें गुरूजी तरह-तरह की आकृतियां देखते थे। संक्षेप में प्रकृति की विभिन्न वस्तुएं, और बेकार पड़ी कई चीजें, उनके स्पर्श से एक नया आकार ग्रहण कर लेती थीं, एक भिन्नता का आभास देती थीं।
गुरूजी का जन्म मध्यप्रदेश देवास जिले के आलोट में 5 सितंबर, 1917 को हुआ था। उन्होंने इंदौर स्कूल ऑफ आर्टस में अध्ययन किया। बेंद्रे और एम.एफ. हुसैन उनके वरिष्ठ थे। इंदौर में पढ़ाया भी। 'नई दुनिया' से भी जुड़े रहे। लेकिन बाद में प्रकृति में ही चित्रों की तलाश करने लगे, नए रूपाकारों की खोज करने लगे। गुरूजी पर बेवसाइट द्धह्लह्लश्चह्य://222.1द्बह्यद्धठ्ठह्वष्द्धद्बठ्ठष्द्धड्डद्यद्मड्डह्म्.द्बठ्ठ/ भी है, जिसमें उनके काम का विवरण है।
गुरूजी से मैं सबसे पहली बार एक स्वयंसेवी संस्था के परिसर में मिला था। यह 80 के दशक की बात है। वे कोसम पेड़ से टिके एक ब्लैकबोर्ड पर बच्चों को अक्षरों की आकृति से कुछ चित्र बनाकर बता रहे थे। वे शरीर के हाव-भाव से भी चित्र बनाकर बता रहे थे। इसमें बच्चों और गुरूजी दोनों को मजा आ रहा था।
बाद में जब इंदौर गया तो गुरूजी से नियमित मिलना होने लगा। वे ही मुझे उनकी लूना पर बिठाकर 'नई दुनिया' के दफ्तर ले गए थे, संपादक राहुल बारपुते से मिलवाया था। 'नई दुनिया' में कुछ साल काम किया था। राहुल बारपुते ने मुझसे कहा था कि- अगर पत्रकारिता अच्छे से करनी है तो खूब पढ़ना। लिखने के लिए पढ़ना बहुत जरूरी है।
उन दिनों मैं नई दुनिया में काम करने के साथ कॉलेज की पढ़ाई भी कर रहा था। नवलखा के पास बापना हॉस्टल में रहता था। गुरूजी संवाद नगर में रहते थे, जो पास ही था। जैसे ही मुझे मौका मिलता था, गुरूजी से मिलने पहुंच जाता था। उनसे बात करने व काम देखने का मौका मिलता था। उनके साथ कई यात्राएं भी कीं। वे बच्चों की कई कार्यशालाएं करते थे, बच्चों के बीच बच्चों जैसे बन जाते थे।
उनसे बातचीत के दौरान वे एक एक चित्र के बारे में विस्तार से बताते थे। वे बेकार पड़ी चीजों से चित्र बनाते थे। टूथ ब्रश, पलंग की निबार, पेड़ों की टहनियां, सूखी पत्तियां जैसी बेजान पड़ी चीजों को स्पर्श देकर नया आकार दे देते थे, जो उनके घर की दीवार पर जगह पा जाती थीं। फटी बनियान से ईसा मसीह का चित्र मैं भूल नहीं पाता हूं। टूटी से चप्पल से मोनालिसा भी बनाई थी। आम की गुठली से टेगौर, सुपारी और पीपल के पत्तों में गणेश जी, केतली में मुकुटधारी गजानन के दर्शन करवाने लगे। वे कहते थे कि मटेरियल ही फार्म को डिक्टेट करता है।
उनके घर की छत ही उनकी 'प्रयोगशाला' थी। वे सुबबूल जैसे पेड़ों से कुछ टहनी छांट लेते थे। उसे अलग रख लेते थे और बाद में उनमें से कुछ को नया आकार दे देते थे। हर चीज को पकड़ने का नजरिया खुद का हो। अपना हो। चुराया न हो तो चीजें स्पष्ट समझ आती हैं।
वे कहते थे कि एक हाथ से ताली नहीं बजती। उसी तरह चित्रों के आकार भी हैं। वे प्रकृति में मौजूद हैं, उन्हें हमें ढूंढना पड़ता है। यानी इस प्रकार की टकराहट के लिए और अंदर की छिपी शक्तियों को प्रकट करने के लिए हमारे आसपास के वातावरण की हरेक चीज तैयार है। बशर्ते हममें संवाद स्थापित करने की संवेदन क्षमता हो।
गुरूजी कहते थे कि सिखाने के प्रयास में कोई सीखता नहीं है। वह तो सीखता है स्वयं के प्रयास से। उसके अन्त:प्रेरित प्रयास को आसान करने के लिए हम केवल सहयोग दें, तो सही ढंग से विकास होने की संभावना अधिक है। वे याद करते थे उनके गुरू की बात जो उन्होंने बताई थी- टीजिंग इज़ चीटिंग, रियल टीचिंग इज़ नेचर। यानी प्रकृति ही सबसे बड़ी गुरू है। प्रकृति में देखिए- पत्ते, टहनियां, पत्थर, बादल कितने तरह के आकार हैं। रंग इतने कि एक हरे की सैकड़ों छटाएं देख लो।
अक्षरों से चित्र बनाने की उनकी कल्पना बहुत आकर्षक थी। वे हिन्दी-अंग्रेजी के अक्षरों से कई तरह के चित्र बनाते थे। वे कहते थे कि कबूतर का पढ़ते हैं, उसमें कबूतर कहां है, आ आम का पेड़ हैं, उसमें आम कहां हैं। हर अक्षर में कई चित्र छिपे हैं,उन्हें ढूंढ़कर आकार दें तो चित्र बन जाता है।
गुरूजी ने हिन्दी-अंग्रेजी के अक्षरों से चित्र बनाने की दृष्टि विकसित की। अक्षरों में न जाने कितने सारे जानवर, पक्षी, लोग, घर आदि छिपे हैं। अगर बच्चे इन अक्षरों को प्यार से उल्टा सीधा करके देखेंगे तो उन्हें खुद ही उनमें बहुत सारे नए नए चेहरे दिखेंगे। धीरे-धीरे ये बेजान अक्षर बच्चों के गहरे मित्र बन जाएंगे। वे कल्पना से उनमें नई-नई चीजें देखेंगे, और अपनी परिधि का विस्तार करेंगे।
गुरूजी, यारों के यार थे। उनके दो दोस्त अपने-अपने क्षेत्र में उच्चतर शिखर पर थे। एक कुमार गंधर्व जो संगीत में जाना माना नाम था और राहुल बारपुते, जो पत्रकारिता के गुरू थे। चित्रकला, संगीत और साहित्य की अनूठी तिकड़ी।
गुरूजी के बारे में उनके मित्र कुमार गंधर्व ने कहा था कि सिर्फ कलाकृति ही नहीं, ठेठ प्रकृति की ओर कैसे देखा जाए, ये गुरूजी ने ही उन्हें सिखाया है। भीमबेटका, अजंता एलोरा, दक्षिण के मंदिर, गुरूजी के साथ देखते -देखते उन्हें नई दृष्टि मिली। यानी गुरूजी ने उन्हें देखना सिखाया
जैसे कुमार गंधर्व कहते थे कि गुरूजी ने उन्हें देखना सिखाया, गुरूजी भी कहते थे-कुमार गंधर्व जी ने उन्हें सुनना सिखाया। सुर की समझ दी। ज्ञान की सीख होती है कि यह एकतरफा नहीं होती। इसमें सीखना सिखाना चलता रहता है। उनके साथ पढ़े एम.एफ.हुसैन ने कहा था कि उनकी गहरी रेखाएं विष्णु चिंचालकर की देन हैं। तीनों ने एक दूसरे से सीखा और समृद्ध किया।
उनके खुद के जीवन में मोड़ जब आया तब उन्होंने गांधी जी का एक किस्सा सुना। गांधी जी एक बार मैसूर गए थे। तब किसी ने उनसे जोग फाल्स देखने को कहा। गांधी जी ने इसका जवाब दिया- वे आकाशीय प्रपात यानी बारिश देखते हैं। गुरूजी ने इसका अर्थ निकाला कि नैसर्गिक चीजें अनुपम हैं। इसके बाद से रंगों की दुनिया को छोड़कर प्रकृति में ही उसके मूल रूप खोजने लगे।
गुरूजी हमेशा कहते थे कि उन्होंने राजमार्ग छोड़, पगडंडी पकड़ ली है। यानी रंगों की दुनिया को छोड़ प्रकृति में ही उसके मूल रूप को ढूंढ़ लिया है। राजमार्ग सपाट है, वहां ढाबा है, दुर्घटनाएं हैं, टेंशन है पर पगडंडी का रास्ता खुद बनाना पड़ता है। वहां पेड़ हैं, उनकी छाया है, नदी है, झरने हैं। पगडंडी का आनंद ही अलग है। हालांकि वे कहते थे उन्होंने रंग व ब्रश की दुनिया छोड़ी थोड़ी है, प्रकृति के कलर बॉक्स को ही इस्तेमाल करने लगा हूं। यह एक नई शुरूआत है।
गुरूजी के साथ काम कर चुके टॉयमेकर अरविंद गुप्ता ने बताया कि गुरूजी ने बरसों गर्मी की छुट्टियां बाबा आमटे के गढ़चिरौली जिले में स्थित आनंदवन में बिताईं। गर्मियों में बाबा आमटे श्रम छावनी का आयोजन करते थे, जिसमें महाराष्ट्र के सैकड़ों छात्र भाग लेते थे। सुबह से दोपहर तक छात्र बारिश के पानी को रोकने और उसके भंडारण के लिए जमीन में गड्ढे खोदते थे। फिर दोपहर से रात तक सांस्कृतिक कार्यक्रम चलता था, जिसमें पु.ला. देशपांडे, नीलू फुले, गुरूजी, कुमार गंधर्व और अन्य प्रगतिशील कलाकार भाग लेते थे। उनके गहरे सामाजिक सरोकार थे।
मैं उनके आखिरी दिनों में जब मिलता था, तब वे थोड़े कमजोर हो गए थे। उनके बगीचे में बैठे रहते थे। मैंने उनसे पूछा- गुरूजी इन दिनों आप क्या करते हैं? उन्होंने आकाश की ओर देखकर कहा- अब ज्यादा आनंद में हूं, मुझे कुछ नहीं करना पड़ता, बैठे -बैठे देखते रहता हूं आसमान में कई रंग। नीम का पेड़ दिखाते हुए बोले इसमें कई आकृतियां हैं। ये भी तो हमारी तरह हैं, इनके हाथ, पैर सब कुछ तो हैं। ये सब भी अपने तो है। ऐसा गुरूजी ही सोच सकते थे।
कुल मिलाकर, गुरूजी ने चित्रकला का नया नजरिया दिया। पेंट-ब्रश की सीमित दुनिया से आगे प्रकृति की मुक्त दुनिया से जुड़ने की दृष्टि दी है। खेल-खेल में शिक्षा का मंत्र दिया है। कला को आसपास के जनसाधारण, वातावरण और परिवेश से जोड़ा। पर्यावरण के प्रति बच्चों व बड़ों को जागरूक बनाया। कलाबोध व सौंदर्यबोध कराया। कला को भी एक सीमित दायरे से हटकर जनजीवन को जोड़ने का जतन किया है। वे ऊंचे दर्जे के चित्रकार, शिक्षक तो थे ही, बहुत ही सरल व सहज इंसान थे। उनका निधन 30 जुलाई 2000 को हो गया। लेकिन उनके काम व सोच के माध्यम से सदैव पीढ़ियों को प्रेरणा देते रहेंगे।


