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राज्यपाल न बनें सत्तारुढ़ पार्टी के एजेंट

दिल्ली के मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल के बीच लोकतांत्रिक तालमेल पिछले दस वर्षों में टूट गया है, उपराज्यपाल वीके सक्सेना ने 28 अगस्त को इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित अपने विचार लेख में स्वीकार किया है

राज्यपाल न बनें सत्तारुढ़ पार्टी के एजेंट
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- डॉ. ज्ञान पाठक

यह एक सर्वविदित तथ्य है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विपक्ष शासित राज्यों में शत्रुतापूर्ण राज्यपालों का उपयोग करने की रणनीति पर काम कर रहे हैं। सभी विपक्ष शासित राज्यों ने पहले ही अपने राज्यपालों के उनके प्रति शत्रुतापूर्ण और बाधा डालने वाले व्यवहार के बारे में शिकायत की है। दिल्ली, तमिलनाडु और केरल के मामले में तो मामला भारत के सर्वोच्च न्यायालय तक भी गया, जिसने राज्यपालों के खिलाफ बहुत प्रतिकूल टिप्पणी की। पिछले साल नवंबर में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने तमिलनाडु के राज्यपाल द्वारा चुनी हुई सरकार के समक्ष बाधा डालने वाले व्यवहार का उल्लेख किया था, तथा इसे 'गंभीर चिंता का विषय' कहा था।

दिल्ली के मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल के बीच लोकतांत्रिक तालमेल पिछले दस वर्षों में टूट गया है, उपराज्यपाल वीके सक्सेना ने 28 अगस्त को इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित अपने विचार लेख में स्वीकार किया है। वास्तव में दिल्ली ही नहीं, यह उन सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में मौजूद तथ्य की अभिव्यक्ति मात्र है, जहां

विपक्षी राजनीतिक दल या गठबंधन शासन करते हैं, और जहां राज्यपालों या उपराज्यपालों एवं मुख्यमंत्रियों के बीच सम्बंध भारत के संविधान की परिकल्पना के अनुरूप लोकतांत्रिक नहीं रह गये हैं।
उपराज्यपाल वीके सक्सेना ने लिखा, 'कहीं न कहीं, यह लोकतांत्रिक सम्बंध टूट गया है। आज, निर्वाचित सरकार हर दूसरी प्रशासनिक एजेंसी के प्रति सकारात्मक रूप से शत्रुतापूर्ण है।' उन्होंने अपनी ही सरकार के बारे में आगे कहा, 'मुख्यमंत्री न्यायिक हिरासत में हैं। नागरिक बंधक हैं। शासन व्यवस्था में गिरावट आ रही है, क्योंकि मंत्री प्रेस कॉन्फ्रेंस में व्यस्त हैं, जबकि असली आम आदमी (शाब्दिक रूप से आम लोग, लेकिन आम आदमी पार्टी के संदर्भ में इस्तेमाल किया गया है, जो निर्वाचित सरकार का नेतृत्व करते हैं)गुमसुम होकर दुख पा रहे हैं। आत्मनिरीक्षण और सुधार का सही समय आ गया है।'

यह वास्तव में आत्मनिरीक्षण और सुधार का सही समय है, जो पिछले 10 वर्षों में विकसित हुआ है, जिसके लिए एलजी वीके सक्सेना दिल्ली की निर्वाचित सरकार को दोषी ठहराते हैं। यह आरोप केवल आंशिक रूप से ही सही हो सकता है, क्योंकि वह स्वयं संशोधित एनसीटी दिल्ली अधिनियम 2021 के तहत दिल्ली के प्रशासक हैं, जिनके पास पूर्ण शक्ति है, और दिल्ली में सरकार का मतलब एलजी है, निर्वाचित मुख्यमंत्री नहीं। उनके पास अधिकारियों पर वास्तविक शक्ति है, और यदि उनके अधिकारी ठीक से काम नहीं करते हैं, तो उन्हें पूरी तरह से निर्वाचित सरकार पर दोष मढ़ने के बजाय शालीनता से दोष अपने ऊपर भी लेना चाहिए।

जब एलजी वीके सक्सेना कहते हैं कि 'आत्मनिरीक्षण और सुधार के लिए यह सही समय है' तो इसका मतलब यह है कि वे खुद को और केंद्र में बैठे उन लोगों को छोड़कर बोल रहे हैं, जिन्होंने उन्हें उपराज्यपाल के पद पर नियुक्त करके दिल्ली का प्रशासक बनाया है। वे '10 साल पहले' की अवधि के बारे में बात करते हैं और आम आदमी पार्टी (आप) के शासन को दिल्ली में गिरावट का कारण बताते हैं।

किसी को अब अटकल लगाने की जरूरत नहीं क्योंकि उनका यह कथन स्पष्ट रूप से राजनीतिक है। लेफ्टिनेंट गवर्नर ने खुद को संवैधानिक प्रमुख से घटाकर पीएम नरेंद्र मोदी और भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र की सत्ताधारी सरकार का एजेंट बना लिया है, जो पिछले 10 सालों से देश पर शासन कर रही है। यह ठीक वही अवधि है, जिसके दौरान दिल्ली में गिरावट आई, जिसे उन्होंने 'लोकतांत्रिक सम्बंध के टूटने' के रूप में संक्षेप में प्रस्तुत किया है, परन्तु आम आदमी पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार पर दोष मढ़ते हुए।

एलजी ने लोकतांत्रिक सम्बंध के टूटने के लिए विपक्ष को जिम्मेदार ठहराया है, जो विपक्षी राजनीतिक दलों के आरोपों के बिल्कुल विपरीत है। विपक्ष का आरोप है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शासन में सभी लोकतांत्रिक संस्थाओं का पतन हो गया है, जिसमें राज्यों के राज्यपाल और केंद्र शासित प्रदेशों के उपराज्यपाल भी शामिल हैं। उपराज्यपाल वीके सक्सेना द्वारा इस्तेमाल किया गया 'लोकतांत्रिक सम्बंध टूट गया' वाक्यांश सिर्फ इस बात की याद दिलाता है कि कैसे संवैधानिक रूप से प्रदान किया गया 'संघीय ढांचा टूट गया है' न केवल दिल्ली में बल्कि मोदी शासन के पिछले 10 वर्षों में सभी विपक्षी शासित राज्यों में।

चूंकि राज्यपाल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार के राजनीतिक एजेंट के रूप में काम कर रहे हैं, जबकि उन्हें राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के संवैधानिक प्रमुख के रूप में व्यवहार करना चाहिए था, इसलिए उपराज्यपाल वीके सक्सेना जिस आत्मनिरीक्षण और सुधार की बात करते हैं, वह सिर्फ विपक्षी राजनीतिक दलों और उनकी चुनी हुई सरकारों तक ही सीमित नहीं है। सभी उपराज्यपालों, राज्यपालों और केंद्र में सत्तारूढ़ प्रतिष्ठान को आत्मनिरीक्षण करना चाहिए और खुद को सुधारना चाहिए। उपराज्यपाल द्वारा संवैधानिक पद के पीछे से भाजपा की ओर से राजनीति करना, खासकर ऐसे समय में जब दिल्ली में जल्द ही चुनाव होने वाले हैं, एक चिंताजनक घटनाक्रम है।

27 अगस्त को भी पश्चिम बंगाल के राज्यपाल सीवी आनंद बोस ने भाजपा की ओर से राजनीति की। गौरतलब है कि कोलकाता में डॉक्टर के साथ बलात्कार और हत्या के मुद्दे पर भाजपा मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और उनकी तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) के खिलाफ आंदोलन चला रही है। राज्यपाल बोस ने कहा कि राज्य सरकार शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों को दबा नहीं सकती। प्रदर्शनकारियों पर कार्रवाई के बारे में बोस ने कहा, 'यह जानलेवा खेल बंद करो।' उन्होंने यहां तक कहा कि प्रदर्शनकारियों पर पुलिस की कार्रवाई ने 'राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रीय भावनाओं और राष्ट्र का अपमान किया है,' और कहा, 'कोलकाता की सड़कों पर हमने जो देखा वह सबसे खराब स्थिति थी, जिसकी लोकतांत्रिक रूप से चुनी हुई सरकार से उम्मीद नहीं थी।' इससे पश्चिम बंगाल में भाजपा की ओर से राजनीति की बू आती है। वैसे राज्य में राज्यपाल और राज्य में निर्वाचित टीएमसी सरकार के बीच लंबे समय से खींचतान चल रही है।

यह एक सर्वविदित तथ्य है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विपक्ष शासित राज्यों में शत्रुतापूर्ण राज्यपालों का उपयोग करने की रणनीति पर काम कर रहे हैं। सभी विपक्ष शासित राज्यों ने पहले ही अपने राज्यपालों के उनके प्रति शत्रुतापूर्ण और बाधा डालने वाले व्यवहार के बारे में शिकायत की है। दिल्ली, तमिलनाडु और केरल के मामले में तो मामला भारत के सर्वोच्च न्यायालय तक भी गया, जिसने राज्यपालों के खिलाफ बहुत प्रतिकूल टिप्पणी की। पिछले साल नवंबर में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने तमिलनाडु के राज्यपाल द्वारा चुनी हुई सरकार के समक्ष बाधा डालने वाले व्यवहार का उल्लेख किया था, तथा इसे 'गंभीर चिंता का विषय' कहा था। तमिलनाडु सरकार ने शिकायत की थी कि राज्यपाल राज्य विधानसभा द्वारा पारित 12 विधेयकों पर बैठे हैं, जिनमें से कुछ 2020 के हैं।

पिछले साल तेलंगाना, पंजाब और केरल ने भी सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था और आरोप लगाया था कि राज्यपाल विधायी और कार्यपालिका के कार्यों में बाधा डाल रहे हैं। पिछले साल अक्टूबर में ही सुप्रीम कोर्ट ने पश्चिम बंगाल के राज्यपाल को राज्य विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की नियुक्ति करने से रोक दिया था। दिल्ली सरकार भी हाल ही में एलजी के बाधा डालने वाले व्यवहार के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट गई थी। 2022 में महाराष्ट्र में विपक्षी सरकार को गिराने में राज्यपाल की भूमिका की भी आलोचना की गई है। यह खुला रहस्य है कि पिछले 10 वर्षों में मोदी सरकार ने राज्यों में कई निर्वाचित सरकारों को गिराने के लिए राज्यपालों का इस्तेमाल किया है।
राज्यपालों को विपक्ष शासित राज्य सरकारों से निपटने में टकराव का रास्ता अपनाते देखा गया है। पश्चिम बंगाल में टीएमसी के नेतृत्व वाली सरकार के प्रति जगदीप धनखड़ का अत्यधिक टकराव वाला रवैया इसका एक बड़ा उदाहरण है। तमिलनाडु की डीएमके सरकार ने राज्यपाल आरएन रवि पर भाजपा और आरएसएस की कठपुतली की तरह काम करने का आरोप लगाया था, जबकि संविधान में प्रावधान है कि राज्य के राज्यपालों से अपेक्षा की जाती है कि वे संवैधानिक प्रावधानों के संरक्षक के रूप में काम करें और केवल मंत्रिपरिषद की 'सहायता और सलाह' के अनुसार काम करें।

पीएम मोदी के राज्यपाल विपक्ष के नेतृत्व वाली निर्वाचित सरकारों से निपटने के लिए टकरावपूर्ण तरीके अपनाते पाये गये हैं। अगर च्च्लोकतांत्रिक सम्बंध टूट गया है' तो उसे दुरुस्त करने की जिम्मेदारी भी एलजी और राज्यपालों पर है, जिन्हें संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार काम करना चाहिए और भाजपा की ओर से राजनीति नहीं करनी चाहिए।


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