Top
Begin typing your search above and press return to search.

बच्चों को नई पट्टी पढ़ाने पर तुल जाती हैं सरकारें!

पाठ्य पुस्तक में लोकतंत्र का पाठ कहता था कि डेमोक्रेसी को किसी परिभाषा में नहीं बांधा जा सकता

बच्चों को नई पट्टी पढ़ाने पर तुल जाती हैं सरकारें!
X

- वर्षा भम्भाणी मिर्ज़ा

पाठ्य पुस्तक में लोकतंत्र का पाठ कहता था कि डेमोक्रेसी को किसी परिभाषा में नहीं बांधा जा सकता। यह वक्त के साथ जनता की ज़रूरतों से जुड़ते हुए उदार मूल्यों के साथ खुद ब खुद परिभाषित होती जाती है। शिक्षक और विद्यार्थियों के बीच बड़ा ही दिलचस्प संवाद कक्षा नौंवीं के इस एनसीईआरटी की पुस्तक में था।

इन दिनों एक देश के लिहाज़ से हम (और हमारी व्यवस्था) अजीब और दयनीय किस्म के द्वन्द्व में फंसे हुए हैं। ऐसा केवल राजनीतिक दलों और सरकारें बदलने तक सीमित हो तो कोई दिक्क़त नहीं लेकिन यह कुछ ऐसा है कि मंज़िल की तलाश में आप चले हों, अच्छी-खासी दूरी भी तय कर ली हो कि अचानक किसी ने मुंडी घुमाई और कहा कि यह रास्ता गलत है, फिर चलो। सफर में जो लोग थे वे भी हैरान कि आखिर जो ये रास्ता सही नहीं था तो फिर इस पर चलाया क्यों गया? जवान चेहरे थकने लगे थे, बुज़ुर्गों को लग रहा था कि इस उम्र में उन्हें इस तरह क्यों छला जाना था। अबोध बच्चों को कोई तकलीफ़ नहीं थी। उनका सच वही था जो घट रहा था। इस द्वन्द्व और दुविधा के बीच कई और भी लड़ाइयां पनप रही थीं।

हालात ऐसे कि इन लड़ाइयों में हमारा अब तक का हासिल भी ख़र्च हो रहा था और हम एक नागरिक के तौर पर अपने कर्तव्य और लक्ष्य की ओर बढ़ने की बजाय बेवजह की बहस और झगड़ों में उलझ रहे थे। कला, साहित्य, मनोरंजन से दूर निरर्थक विवादों में अपनी ऊर्जा जाया करते हुए। पिछले सप्ताह एक ऐसा बदलाव सरकार ने किया जिस पर बेहतर होता कि बड़ी बहस होती लेकिन सब चुप जबकि वह बच्चों के पाठ्यक्रम से जुड़ा फ़ैसला था। नए नागरिक तैयार होने की प्रक्रिया से जुड़ा था। उस सोच से जुड़ा हुआ था जो सही अर्थों में भारत के लोकतांत्रिक नागरिक तैयार करता, ऐसे नागरिक जो उसे प्रगतिशील देशों की सूची में खड़ा करते थे। वैश्विक नागरिक समुदाय में उसकी स्वीकार्यता बढ़ाते थे। तब भी जब भारत एक बेहद ग़रीब और फटेहाल देश है जहां दो वक्त की रोटी के लिए इंसान अपनी जान से भी समझौता कर लेता है।

पार्टियां बदलते ही यहां बच्चों की पढ़ाई भी बदल जाती है। एक दल कहता है यह पढ़ो ,दूसरा कहता है ये सब बकवास था, हम इसे हटा रहे हैं। आखिर देश में लोग यह पूछने का साहस क्यों नहीं जुटा पा रहे हैं कि आखिर बार-बार पढ़ाई (शिक्षा) की किताबों में तुम हेर-फेर क्यों करते हो? तुम कन्फ्यूज क्यों हो? ऐसा करने से पहले तुम क्यों नहीं अपना माथा जोड़कर तय कर लेते कि बच्चों को क्या पढ़ाना है और क्या नहीं? यूं भी तुम चुनकर तो थोड़े से वोट के अंतर से आते हो लेकिन नागरिक के जीवन में पूरी ताकत से दखल देते हो।

जैसे वे कोई गिनीपिग हों, तुम्हारे बिना शोध के आए आदेशों पर अपना सब कुछ खोने को मजबूर। सच है कि जनहित में इंसान ख़ुद को प्रयोग के लिए भी समर्पित करता है। कोरोना वैक्सीन के लिए दुनिया भर में कई वालंटियर्स ने खुद को सबसे पहले इसे लगाया ताकि एक बड़ी आबादी को इस महामारी से बचाया जा सके। यहां तो यह प्रयोजन भी नहीं। बस बदलना है। वर्ना क्या कारण है कि नौंवीं से बारहवीं कक्षा के केंद्रीय शिक्षा माध्यमिक बोर्ड (सीबीएसई) की किताबों से मेंडलीफ की आवर्त सारिणी यानी पीरियाडिक टेबल, डार्विन की थ्योरी ऑफ़ इवोलुशन और लोकतंत्र से जुड़े पाठ हटा दिए जाते हैं।

रसायन शास्त्र विषय से जुड़ी पीरियाडिक टेबल में ज्ञात 118 तत्वों की सूची में सभी तत्व अपने एटॉमिक भार और संख्या के हिसाब से सिलसिलेवार व्यवस्थित है। जैसे सभी धातुएं एल्युमीनियम, लोहा, तांबा, जस्ता एक साथ तो अक्रिय गैसें हीलियम नीऑन, रेडोन एक साथ। एक साथ ही सभी रेडियोधर्मी या रेडियो एक्टिव तत्व भी हैं। आशय यह कि आगे की कक्षाओं में विस्तार से पढ़ने से पहले बच्चों को तत्वों की बुनियादी जानकारी मिल जाती थी जो अब नहीं मिलेगी। मेंडलीफ ने अपनी इस सूची में कई तत्वों के लिए जगह भी छोड़ी जिनकी खोज बाद के सालों में होती रही और अब भी हो रही है। ऐसे ही प्रदूषण से जुड़े ब्योरे भी हटाए गए हैं।

जैव विकास के सन्दर्भ में डार्विन की 'थ्योरी ऑफ़ इवोल्यूशन' बहुत मायने रखती है। इसके मुताबिक मनुष्य का विकास एक कोशिकीय प्राणी अमीबा से हुआ है और करोड़ों वर्ष (400 करोड़ ) के विकास क्रम में मनुष्य तैयार हुआ। जैसे बंदर से मनुष्य बनने की विकास प्रक्रिया ने भी लगभग एक करोड़ साल का रास्ता तय किया। इस क्रमगत विकास में जो उसके लिए ज़रूरी था वह उसने लिया और बाकी छोड़ दिया। जैसे जिराफ प्राणी की लम्बी गर्दन का विकास यूं हुआ कि ऊंचे पेड़ों की पत्तियां खाने की लिए उनकी रीढ़ की हड्डी बढ़ती गई। यह उन्हें अधिक ताकतवर और 'सर्वाइवल ऑफ़ द फिटेस्ट' के सिद्धांत के तर्क को मज़बूती देता था। ऐसे ही, मनुष्य के विकास में पूंछ हटती गई लेकिन आज भी उसकी रीढ़ की अंतिम हड्डी में उसके अवशेष हैं।

वर्तमान केंद्र सरकार ने इस पाठ को भी हटा दिया है। नहीं भूलना चाहिए कि पांच साल पहले भारत के उच्च शिक्षा मंत्री सत्यपाल सिंह ने कहा था कि किसी ने बंदर से मनुष्य बनते आज तक नहीं देखा इसलिए पाठ्यक्रम की किताबों से डार्विन की 'थ्योरी ऑफ़ इवोल्यूशन' हटा दी जाएगी और अब अंतत: इसे हटा ही दिया गया। अपने तर्क में मंत्री ने कहा था कि वे इस पर दुनिया के वैज्ञानिकों को एक मंच पर लाकर बड़ी बहस कर सकते हैं और उनके पास ऐसे दस-पन्द्रह वैज्ञानिकों की सूची है जिनका दावा है कि 'थ्योरी ऑफ़ इवोल्यूशन' गलत है।

तमाम विज्ञान पत्रिकाओं और जर्नल्स ने इस बयान की तीखी भर्त्सना की थी और अब पांच साल बाद तो पानी सर से और भी ऊपर चला गया है। तब राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी के पूर्व अध्यक्ष और इकालॉजिस्ट राघवेंद्र ने कहा था कि यह अब विज्ञान और वैज्ञानिकों के धु्रवीकरण की बारी है और इस खतरे को समझना सबसे ज़्यादा ज़रूरी है। बहरहाल देश-दुनिया मंत्री महोदय की उस बहस का इंतज़ार आज भी कर रहे हैं। दरअसल विज्ञान की बुनियाद ही स्वीकारने और रद्द करने के सिद्धांत पर आधारित है। इसी पर चलकर विज्ञान ने अपनी राह तय की है लेकिन जैसी व्याख्या मंत्री जी ने की, इस तरह तो शायद असहमत वैज्ञानिक भी झेंप जाएंगे। खुद हमारे देश के दो हज़ार से भी ज़्यादा वैज्ञानिकों के बयान के विरोध में किये गए हस्ताक्षरों पर भी धूल की मोटी परत जमा दी गई है ।

तीसरा महत्वपूर्ण पाठ जिसे सरकार ने पढ़ना-पढ़ाना ज़रूरी नहीं समझा, वह है लोकतंत्र का। कोविड के दौरान बच्चों पर पढ़ाई का भार कम करने के लिए कक्षा नौंवीं से इसे हटा दिया गया था और अब इसे स्थायी रूप से पुस्तक से फाड़ लिया गया है। आपदा में यह कौन सा अवसर था समझना मुश्किल है। पता नहीं कि लोकतंत्र की पढ़ाई का बोझ इन बच्चों पर भारी था या सरकार पर। हटाने से पहले किताब के लेखक से कोई बात नहीं हुई और न ही किसी विशेषज्ञ से। जैसे कि सरकार की तहज़ीब भी है कि किसी भी विषय के विशेषज्ञों को तरजीह या महत्व देने के बजाय वह अपने मन को तवज्जो देती है। लोकतंत्र से जुड़े इस पाठ में 1950 के बाद से आए तमाम बदलावों को दज़र् किया गया था। पश्चिम की दुनिया से लेकर भारत के पड़ोसी देश पाकिस्तान, म्यांमार और नेपाल का ज़िक्र भी था। बेशक लोकतंत्र के इन पन्नों का हटाने का अर्थ लोकतंत्र की विदाई का संकेत नहीं होना चाहिए लेकिन हक़ीक़त के धरातल पर तो यही दिखाई दे रहा है। जनता की आवाज़ पर बने आंदोलनों के पैर उखाड़ने का लम्बा सिलसिला चल पड़ा है। शाहीन बाग़, किसान आंदोलन और अब महिला पहलवानों के शांतिपूर्ण विरोध को कुचलने की कोशिश पूरे देश ने देखी है। सरकार को लगता है कि उसने पहलवानों के तंबू को उखाड़ फेंका लेकिन असलियत में उसकी अपनी साख के शामियाने उखड़ रहे हैं।

पाठ्य पुस्तक में लोकतंत्र का पाठ कहता था कि डेमोक्रेसी को किसी परिभाषा में नहीं बांधा जा सकता। यह वक्त के साथ जनता की ज़रूरतों से जुड़ते हुए उदार मूल्यों के साथ खुद ब खुद परिभाषित होती जाती है। शिक्षक और विद्यार्थियों के बीच बड़ा ही दिलचस्प संवाद कक्षा नौंवीं के इस एनसीईआरटी की पुस्तक में था। पाठ का सार यही था कि बदलाव की गुंजाईश हमेशा रहती है इसलिए परिभाषाएं भी बदलती हैं। डेमोक्रेसी ग्रीक शब्द है जिसमें डेमोस का अर्थ है लोग और करतोस यानी शासन या शक्ति। जनता के इस शासन के पाठ में सरकार की दिलचस्पी नहीं होने को दुनिया के शिक्षाविद अंधकार की तरफ जाना भी बता रहे हैं। कांग्रेस गठबंधबन की यूपीए सरकार को भी कुछ कार्टूनों पर दिक्कत थी लेकिन फिर इसे विशेषज्ञों और पाठ के लेखकों से बातचीत के बाद सुलझाया गया। बातचीत यहां भी हो सकती थी। इतिहास की किताबों के साथ भी यही हो रहा है। बदलाव अपनी विचारधाराओं के अनुसार ऐसे होता है जैसे ये ऐतिहासिक तथ्य नहीं बल्कि किसी घर की आतंरिक सज्जा का बदलाव हो। ये सरकारें जो देश की किस्मत लिखती हैं, वे अपनी ढपली अपना राग नहीं बल्कि अपने नगाड़े और अपना फरमान बजाती आ रही हैं। जनता को इन दलों से केवल इतना कहना है कि आप पहले तय कर लो कि देश के नायक कौन होंगे और इतिहास क्या रहेगा? मारा समय मत बर्बाद करो! (लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं )


Next Story

Related Stories

All Rights Reserved. Copyright @2019
Share it