वैश्विक वित्तीय सुनामी और हम
जब यह महीना अर्थात मार्च शुरू हुआ तो अमेरिकी सिलिकॉन वैली बैंक के सीईओ ग्रेग बेकार अपने संगठन की तरफ से 'बैंक आफ द ईयर' का पुरस्कार लेने के लिए लंदन गए थे

- अरविन्द मोहन
अकेले इस सौदे से इतना बड़ा बैंक, जिसे 'बैंक आफ द ईयर' का पुरस्कार देने के लिए चुना जाए, ध्वस्त हो जाए तो उसके सारे कामकाज पर भी सवाल उठाने चाहिए। लेकिन इससे बड़ा सवाल अमेरिकी रेगुलेटरों पर उठता है जिनकी निगरानी में फेडरल रिजर्व ने बांड जारी किए, बांड की मात्रा और सूद की दर तय किए। आज अगर सिलिकॉन बैंक को घाटा हुआ है तो इसका मतलब अकेले उसी का घाटा नहीं है।
जब यह महीना अर्थात मार्च शुरू हुआ तो अमेरिकी सिलिकॉन वैली बैंक के सीईओ ग्रेग बेकार अपने संगठन की तरफ से 'बैंक आफ द ईयर' का पुरस्कार लेने के लिए लंदन गए थे। 220 बिलियन डालर के मूल्य वाला यह बैंक दुनिया में सबसे तेज बढ़ाने वाले बैंकों में माना जाता था। अमेरिकी बैंकों में इसका नंबर 16 वां था और चीन, भारत, डेनमार्क, जर्मनी, इजरायल और स्वीडेन समेत की सारे देशों में इसके साझा उपक्रम चल रहे हैं। और सबसे बड़ी बात यह है कि यह दुनिया भर के स्टार्ट अप उद्यमियों का दुलारा बैंक था। वे यहां से न सिर्फ पूंजी और उधार लेते थे बल्कि अपनी रकम भी जमा करते थे। पर हफ्ता नहीं लगा बैंक भरभरा कर गिर गया।
पिछले बुध और बृहस्पति अर्थात 8 और 9 मार्च को बैंक के सामने अपना पैसा मांगने वालों की लाइन लग गई और शुक्र को बैंक ने हाथ खड़े कर दिए। सरकार सक्रिय हुई और रेगुलेटरों ने इसे अपने कब्जे में ले लिया। अमेरिकी वित्त मंत्री ने इतवार को कहा कि यह ज्यादा मुश्किल स्थिति नहीं है और हम कोई बड़ा बेलऑउट पैकेज नहीं देने जा रहे हैं तो मामला और बिगड़ा। फिर राष्ट्रपति बाइडन को सामने आकार आश्वासन देना पड़ा कि सबका पैसा सुरक्षित है। लेकिन सोमवार आते ही एक और अमेरिकी बैंक, सिग्नेचर बैंक धराशायी हो गया और भारी बारिश और खराब मौसम की परवाह न करते हुए जमाकर्ता उग्र होकर प्रदर्शन ही नहीं तोड़फोड़ करने लगे।
फिर तो दुनिया भर के वित्तीय बाजार में भूचाल आया हुआ है। यह कहां तक जाएगा यह भविष्यवाणी करना मुश्किल है। एक ओर अमेरिका में एक के बाद एक बैंक धराशायी हो रहे हैं (दो हो चुके हैं और तीसरे के कभी भी गिरने का अंदेशा है) और दूसरी ओर दुनिया भर के शेयर बाजार हलचल से परेशान हैं। भारत के बाजार का मुख्य सूचकांक सेनसेक्स तो करीब दो हजार अंक गिरा लेकिन चीन वगैरह में तेजी भी दिखी। तेल की कीमतें गिर रही हैं और सोना चढ़ने लगा है। शेयर बाजार में भी बैंकिंग के शेयर गोता लगा रहे हैं तो स्टार्ट अप कंपनियों की हालत खराब है। कई देशों में ज्यादा हलचल है (क्योंकि वहां की पूंजी का जुड़ाव इन बैंकों से था)। भारत में सूचना तकनीक राज्य मंत्री राजीव चंद्रशेखर ने (क्योंकि बाकी सीनियर लोग राजनैतिक युद्ध में लगे हैं) ने कहा कि हमारे स्टार्ट अप उद्योगों पर इसका न्यूनतम असर होगा। उल्लेखनीय है कि देश के करीब 200 ऐसे उद्योगों का इस बैंक में खाता है। और जाने किस भरोसे एक निजी बैंक ने इन खातों को अपने यहां लाने की मुहिम भी शुरू कर दी है।
लेकिन दुनिया में ऐसा नहीं है। ब्रिटेन में 250 ऐसी कंपनियों ने प्रधानमंत्री ऋषि सुनक को पत्र लिखकर चौकस रहने और हमें बचाने की अपील की है। यह अंदाजा किया जा रहा है कि अगले एक महीने में दुनिया भर की करीब दस हजार स्टार्ट अप कंपनियों को, जिनका आकार-प्रकार ही छोटा नहीं है, वित्तीय बल भी कम है, अपने कर्मचारियों को वेतन देना होगा। तब संकट असली रूप में दिखेगा। करीब एक लाख लोगों का रोजगार भी प्रभावित होगा। तब तक दूसरा और तीसरा बैंक बैठने से और क्या-क्या मुश्किलें आएंगी इसका हिसाब लगाने का अभी समय नहीं है। पर यह कहा जाने लगा है कि 2008 के सब संकट के बाद यह दुनिया का सबसे बड़ा बैंकिंग संकट है। अभी ही सिर्फ बैंकिंग कंपनियों को लाखों करोड़ का नुकसान हो चुका है। और इसका प्रभाव संभवत: उससे ज्यादा बड़ा और गहरा होगा क्योंकि यह नए तरह से चल रहा था और इसके अचानक बैठने का खतरा लगभग शून्य माना जाता था।
और यही चीज इस बार के संकट को ज्यादा बड़ा बना रही है। पहली बात तो यही है कि अमेरिकी रेगुलेटरों ने सब प्राइम संकट और लेहमैन ब्रदर्स जैसी विशाल वित्तीय संस्था के डूबने से कोई सबक नहीं लिया है। वह संकट भी रेगुलेटरों के लोभ और वित्तीय उपकरणों की घटिया रेटिंग के चलते आया था और कुछ सड़े आमों के चलते सारी टोकरी को फेंकना पड़ा था। पर इस बार का संकट इस मायने में उससे बड़ा और ज्यादा डरावना है कि इस बार कुछ कमजोर वित्तीय उपकरणों की खराब रेटिंग या सौदे भर का मामला नहीं है। सिलिकन वैली बैंक के हाथ तो फेडरल रिजर्व के बांड के सौदे में जले हैं जिनकी दुनिया भर के वित्तीय बाजार में सबसे ऊंची साख रही है। हम जानते हैं कि हाल के दिनों में अपने यहां की मुद्रास्फीति और आर्थिक सुस्ती को दूर करने के लिए अमेरिकी फेडरल रिजर्व ने कई किस्तों में अपने बांड जारी किए और सूद की दर को शून्य से बढ़ाकर पांच फीसदी किया। इसका अमेरिका समेत दुनिया भर में असर हुआ। हमारे यहां भी रेट बढ़े। सिलिकॉन वैली के मैनेजरों ने अपने जमाकर्ताओं की पूंजी को इन बॉन्डों में लगाकर अच्छा रिटर्न कमाना चाहा क्योंकि अमेरिका के लिए पांच फीसदी का सुनिश्चित रिटर्न काफी अच्छा माना जाता है। पर जब बांड का बाजार गड़बड़ लगा और अपनी जरूरत हुई तो उन्होंने अपने बांडों को भुनाने के लिए बाजार की शरण ली। इसमें भारी घाटा आ गया। संकट यहीं से शुरू हुआ।
जाहिर है यह गलती (सौदे का समय और आकार-प्रकार का चुनाव) तो सिलिकॉन वैली के मैनेजरों की है। लेकिन अकेले इस सौदे से इतना बड़ा बैंक, जिसे 'बैंक आफ द ईयर' का पुरस्कार देने के लिए चुना जाए, ध्वस्त हो जाए तो उसके सारे कामकाज पर भी सवाल उठाने चाहिए। लेकिन इससे बड़ा सवाल अमेरिकी रेगुलेटरों पर उठता है जिनकी निगरानी में फेडरल रिजर्व ने बांड जारी किए, बांड की मात्रा और सूद की दर तय किए। आज अगर सिलिकॉन बैंक को घाटा हुआ है तो इसका मतलब अकेले उसी का घाटा नहीं है। ये बांड जिस-जिस के पास होंगे सबको घाटा हो चुका है। वे क्या प्रतिक्रिया देते हैं यह देखने की चीज है। लेकिन उनको इस घाटे को मैनेज करना ही पड़ेगा। और अगर बाइडन सरकार कहती है कि वह किसी का नुकसान न होने देगी तो क्या बांड के साथ यही बात लिखित रूप में नहीं कही गई है। और अगर वह किसी का घाटा नहीं होने देगी और इस संकट को निपटाने में करदाताओं का पैसा भी नहीं लगाएगी तो कौन सा जादू करेगी। असल में आज के वित्तीय प्रबंध को यही जादूगरी भारी पड़ रही है।


