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असली सवाल गांधी की डिग्री का नहीं है

अगर आप विपक्ष के नेता हैं तो आपके चुनावी भाषण पर मानहानि के लिए जेल की सजा और संसद की सदस्यता रद्द हो सकती है. लेकिन अगर आप एक उपराज्यपाल हैं तो आप राष्ट्रपिता के खिलाफ भी दुष्प्रचार कर सकते हैं और आपको कुछ नहीं होगा.

असली सवाल गांधी की डिग्री का नहीं है
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संघ परिवार का गांधी विरोध नई बात नहीं है. गांधी का हत्यारा नाथूराम गोडसे आरएसएस का सदस्य था. विवाद सिर्फ इस बात पर है कि गांधी की हत्या के समय वो आरएसएस में था या नहीं. इसी विषय पर अपनी किताब "गांधीज असैसिन" में पत्रकार धीरेंद्र झा ने दावा किया है कि गोडसे उस समय भी आरएसएस का सदस्य था.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हर साल राजघाट पर श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं लेकिन संसद में उनकी सीट के पास ही उन्हीं की पार्टी की सांसद प्रज्ञा ठाकुर बैठती हैं जो कई बार गोडसे को "देशभक्त" बता चुकी हैं.

मोदी ने एक बार कहा था कि वो ठाकुर को उनके बयान के लिए माफ नहीं कर पाएंगे, लेकिन इस बात को चार साल बीत चुके हैं और ठाकुर आज भी सांसद हैं.

गांधी विरोध का नया आयाम

"दे दी हमें आजादी बिना खडग बिना ढाल" एक मिथक है, यह कहने वाले संघ परिवार के लोग भी आपको राह चलते मिल जाएंगे. मैं तो बीजेपी के एक ऐसे नेता से भी टकरा चुका हूं जिन्होंने गर्व भरी मुस्कुराहट के साथ मुझसे कहा था कि उनके नाना उन लोगों में से थे जिनके खिलाफ गांधी की हत्या का मुकदमा चला था.

कभी दबी आवाजों में तो कभी बुलंद बयानों में, संघ परिवार हमेशा गांधी के प्रति अपनी नफरत का प्रदर्शन करता आया है. अब गांधी को झूठा और फर्जी वकील बताना इस सिलसिले की नई कड़ी है.

जम्मू और कश्मीर के उपराज्यपाल मनोज सिन्हा का भाषण सुन कर लगता तो यह है कि वो कहना चाह रहे थे कि गांधी की उपलब्धियां डिग्री की मोहताज नहीं थीं, लेकिन सिन्हा की पृष्ठभूमि इस समझ को आकार लेने से रोकती है.

गांधी जब जिंदा थे तब भी उनके कई आलोचक थे और आज भी कई लोग उनके विचारों, उनकी विचारधारा, उनके फैसलों आदि की आलोचना करते हैं. लेकिन शायद पहली बार किसी ने गांधी की शैक्षणिक योग्यता पर सवाल उठाया है.

तथ्य क्या कहते हैं

गांधी को उनकी शैक्षणिक योग्यता के लिए नहीं जाना जाता, लेकिन फिर भी इतना तो जगजाहिर है कि उन्होंने इंग्लैंड से वकालत की पढ़ाई की थी और फिर उन्हें वहां वकालत के लिए बार की सदस्यता लेने का निमंत्रण भी दिया गया था.

आइंस्टाइन ने एक बार कहा था कि भविष्य की पीढ़ियां शायद ही यह मान पाएंगी कि गांधी जैसा कोई व्यक्ति वाकई धरती पर था. इसके बावजूद गांधी कोई भूत नहीं हैं. गांधी कोई मिथक भी नहीं है और ना ही वो आस्था का विषय हैं.

गांधी एक तथ्य हैं. गांधी ठोस इतिहास हैं. जैसा कि आज गांधी के प्रपौत्र तुषार गांधी याद दिला रहे हैं, गांधी के जीवन के अहम दस्तावेज सार्वजनिक रूप से उपलब्ध हैं. कोई भी उन्हें पढ़ सकता है और गांधी की असलियत और उनके बारे में झूठे दावों के बीच फर्क कर सकता है.

फिर वो क्या कारण हो सकता है जिसकी वजह से उपराज्यपाल जैसे उच्च संवैधानिक पद पर बैठने वाला कोई व्यक्ति यह कह दे कि दुनिया को लगता है कि गांधी के पास वकालत की डिग्री थी लेकिन यह सच नहीं है? यह निरा गांधी विरोध और गांधी के खिलाफ दुष्प्रचार नहीं तो और क्या है?

दुष्प्रचार का अभियान

दुष्प्रचार संघ परिवार का चुनिंदा हथियार है. बीजेपी के आईटी सेल को राजनीतिक लाभ के लिए सोशल मीडिया के जरिए तरह तरह का दुष्प्रचार फैलाने की रणनीति का जनक माना जाता है.

चुनावी लाभ के लिए दूसरी पार्टियों के नेताओं के खिलाफ "जर्सी गाय" और "50 करोड़ की गर्लफ्रेंड" जैसी अपमानजनक बातें कहने में खुद मोदी संघ परिवार के नेताओं में सबसे आगे हैं.

दिलचस्प है कि "मोदी" उपनाम पर दिए गए एक बयान की वजह से राहुल गांधी को जेल की सजा सुना दी गई है और उनकी संसद की सदस्यता रद्द कर दी गई है. लेकिन क्या यही मानदंड "नेहरू" उपनाम पर चुटकी लेने के लिए मोदी पर लागू नहीं होते?

फरवरी 2023 में गांधी परिवार को निशाना बनाते हुए मोदी ने संसद में कहा था, "मेरी समझ में नहीं आता इस परिवार में सब नेहरू उपनाम रखने से डरते क्यों हैं? क्या नेहरू उपनाम रखने में कोई शर्म की बात है?"

आज सावरकर के वंशज उनकी ओर से भी मानहानि का मुकदमा करने की चेतावनी दे रहे हैं. तुषार गांधी शायद मानहानि में विश्वास नहीं रखते, नहीं तो गांधी के वंशज होने के नाते उनके पास भी आज गांधी के खिलाफ अनर्गल बयान देने वालों के खिलाफ मानहानि का मुकदमा करने का अधिकार है.

मूल्यों का सवाल

सवाल मानहानि का नहीं है. राहुल गांधी की महात्मा गांधी से तुलना नहीं की जा सकती है लेकिन इस समय राहुल गांधी को शांत करा देना और महात्मा गांधी के खिलाफ दुष्प्रचार करना एक ही सिक्के के दो पहलूहैं.

महात्मा गांधी को निशाना बनाना उन मूल्यों पर हमला करना है जिन पर आजादी की लड़ाई लड़ी गई और फिर आजाद भारत के भविष्य की नींव रखी गई. लेकिन संघ परिवार खुद को इन मूल्यों से जुड़ा हुआ नहीं मानता है.

"हिंदू राष्ट्र" की संघ परिवार की नफरत भरी परिकल्पना में इन मूल्यों के लिए जगह ही नहीं है. इसलिए वो इन मूल्यों के चिन्हों और उनसे जुड़ी सभी कड़ियों को मिटा देना चाहता है.

आजादी के बाद देश में लोकतंत्र के इतिहास में कांग्रेस पार्टी का नाम भी कोई सुनहरे अक्षरों से नहीं लिखा हुआ है. लेकिन इस समय रोज थोड़ा और सत्तावादी होती जा रही बीजेपी के खिलाफ आवाज उठाने में कांग्रेस और राहुल गांधी की एक अहम भूमिका है.

आगे भी कांग्रेस यह लड़ाई लड़ती रहेगी इसकी भी कोई गारंटी नहीं है, लेकिन इस समय वो लड़ रही है और इसलिए बीजेपी उसे कमजोर करने के हर तरीके को अपना रही है.

कांग्रेस को दूसरी पार्टियों का साथ मिले ना मिले लेकिन गांधी तो सबके हैं. जिन मूल्यों के वो प्रतीक हैं वो देश में सभी की साझी विरासत है. और इस समय यह विरासत खतरे में है.


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