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गांधी और क्रांति के मूल को नष्ट करने की कवायद

एनसीईआरटी की कक्षा 10वीं की राजनीति शास्त्र की किताब में एक अध्याय है (अगर अब तक न हटाया गया हो) सत्ता की साझेदारी

गांधी और क्रांति के मूल को नष्ट करने की कवायद
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- अमन

सर्व सेवा संघ की आत्मा तो बहुत पहले ही इसे छोड़कर जा चुकी थी। आत्मा के निकलने के बाद जिस तरह शरीर धीरे-धीरे गलता चला जाता है, लगभग वही हाल इस संस्थान का भी हुआ है। ऐसे में यह कहना ज्यादा मुफीद होगा कि सुप्रीम कोर्ट से अगर राहत नहीं मिली तो शायद इस मृतप्राय संस्थान को दफना दिया जाएगा। एक मायने में यह ठीक ही होगा।

एनसीईआरटी की कक्षा 10वीं की राजनीति शास्त्र की किताब में एक अध्याय है (अगर अब तक न हटाया गया हो) सत्ता की साझेदारी। इसी के एक प्रश्न का उत्तर कुछ इस तरह दिया जाता है, सत्ता की साझेदारी के अभाव में शासन कुछ चुनिंदा लोगों की मुट्ठीयों मे रह जाता है। इससे तानाशाही पनपती है और लोकतंत्र की हत्या हो जाती है। इसलिए ऐसा कहा जाता है कि लोगों के हाथों में सत्ता सौंपना ही लोकतंत्र की मूल भावना है। इसलिए हम कह सकते हैं कि सत्ता की साझेदारी हर समाज में ज़रूरी है।
अब इस कथन को 1975 के आपातकाल के संदर्भ में देखिए।

चुनिंदा लोगों की मुट्ठीयों में शासन रखने की ही एक कोशिश थी देश में आपातकाल लगाना। लेकिन इस तानाशाही की कोशिश को तब देश की जनता ने जबर्दस्त आंदोलन के जरिए उखाड़ फेंका था। जयप्रकाश का बिगुल बजा तो, जाग उठी तरुणाई है और हमला चाहे जैसा होगा, हाथ हमारा नहीं उठेगा, जैसे नारों के साथ पूरा देश लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में आंदोलित हो उठा था। इसी संपूर्ण क्रांति की एक अहम धुरी के तौर पर उस वक्त बनारस में गंगा के किनारे राजघाट पर बना- बसा सर्व सेवा संघ बेहद सक्रिय था। 1948 में गांधी की प्रेरणा से बनाया गया यह संस्थान उस दौर में संपूर्ण क्रांति और सर्वोदय आंदोलन का प्रेरणा स्रोत ही नहीं, शिक्षण, प्रशिक्षण और आंदोलन से जुड़े साहित्य के प्रकाशन का भी अहम केंद्र था। सरकार की बंदिशों के बावजूद तब यहां से तरुणमन जैसी पत्रिकाएं छापी, बांटी जा रही थीं। इन्हीं तमाम कोशिशों का नतीजा था कि 1977 में तानाशाही की बेलगाम कोशिश पर अंकुश लगा दिया गया। और इंदिरा गांधी को इस्तीफा देकर दोबारा चुनाव कराना पड़ा।

आखिर इस कहानी की आज क्या प्रासंगिकता है। जरूर है और बहुत ध्यान देकर इसे जानने की भी जरूरत है। दरअसल आज 48 साल बाद यकायक देश की राजनीति उस मुकाम पर आ पहुंची है, जहां सर्व सेवा संघ को ही गांधी और सर्वोदयी विचारों को दफनाने की मुहिम का एक नया पड़ाव बनाया जा रहा है। अगर 14 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट में होने वाली सुनवाई से राहत नहीं मिली या यूपी अथवा केंद्र सरकार में किसी का हृदय परिवर्तन नहीं हुआ तो आने वाले कुछ दिनों में गांधी विचारों की ही तरह सर्व सेवा संघ के तमाम भवन भी ध्वस्त कर दिए जाएंगे।(आप पूछेंगे कि इसका जेपी के आंदोलन से भला क्या लेना-देना? तो इसके लिए चाणक्य का एक सूत्र प्रासंगिक होगा। वे कहते हैं, 'जैसे ही भय आपके करीब आए, उस पर आक्रमण कर उसे नष्ट कर दीजिये।' आखिर यह भय किस बात का है। कहीं यह भय तो नहीं कि अगर फिर से तानाशाही की कोशिश की गई तो 1975 की ही तरह एक बार फिर सर्व सेवा संघ देश में जनांदोलन की धुरी बन सकता है। ऐसे में इसे जड़ से खत्म करना ही बेहतर होगा। संभवत: ऐसे ही किसी खतरे को भांपकर सत्ता पक्ष और उससे जुड़े तमाम बौद्धिक, वैचारिक संगठनों ने सर्वोदयी संगठनों में घुसपैठ कर उन्हें अंदर से खोखला करने की मुहिम काफी पहले ही शुरू कर दी थी। शायद यही वजह है कि जब सर्व सेवा संघ परिसर के तमाम भवनों पर उन्हें ढहाने का नोटिस लगाया गया तो बहुत हैरानी नहीं हुई। दरअसल सत्ता की सोच अब उन प्रतीकों को भी ढहा देने की है जो किसी भी तरह लोगों को सत्ता को चुनौती देने की सफल कोशिशों की याद दिलाते हैं।

सामान्य तौर पर ऐसी किसी ख़बर से हैरान, परेशान होना चाहिए। पर न जाने क्यों, ऐसा अहसास हुआ कि सर्व सेवा संघ की आत्मा तो बहुत पहले ही इसे छोड़कर जा चुकी थी। आत्मा के निकलने के बाद जिस तरह शरीर धीरे-धीरे गलता चला जाता है, लगभग वही हाल इस संस्थान का भी हुआ है। ऐसे में यह कहना ज्यादा मुफीद होगा कि सुप्रीम कोर्ट से अगर राहत नहीं मिली तो शायद इस मृतप्राय संस्थान को दफना दिया जाएगा। एक मायने में यह ठीक ही होगा। मृत शरीर से संक्रमण ज्यादा फैलने की आशंका होती है। और सत्ताधारी दल के लिए तो यह और भी चिंताजनक बात होगी। लेकिन दूसरी चिंता की बात यह भी है कि जहां कुछ गांधीवादी, सर्वोदयी लोग अभी भी इसे बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। यहां 53 दिनों से सविनय अवज्ञा सत्याग्रह भी जारी है। वहीं कुछ ऐसे भी सर्वोदयी हैं जो इस विध्वंस के बदले वैसे ही मुआवजे की मांग कर रहे हैं जैसा अहमदाबाद में साबरमती आश्रम के पुराने कई मकानों को ढहाने के बदले में दिया गया था। यानी, गांधी और सर्वोदयी विचारों पर बनी संस्था को खत्म करने के बदले सरकार कम से कम मुआवजा तो दे ही दे। गजब ही है। आश्चर्य होता है कि ऐसे लोग भी आखिर कब, क्यों और कैसे गांधी या सर्वोदयी विचारों से जुड़े और अब तक कैसे इसका आडंबर ओढ़कर रह पाए? बहुत संभव है कि कल को ये सरकार से कहें कि अगर वह आधिकारिक तौर पर गांधी विचारों को दफ़न करने जा रही है तो इसके बदले भी कुछ मुआवजा दे दे।

यह अमृतकाल का स्वसर्वोदय है। जी हां, स्वयं का उदय। गांधी, विनोबा, जेपी जिस सर्वोदय यानी सर्व के उदय की बात करते थे और जिनके हितों के संघर्ष करते-करते विदा हो गए, उनके बहुत से अनुयायी अब सर्वोदय से स्वसर्वोदय की ओर बढ़ चुके हैं। ऐसे में इन संस्थानों का बंद होना ही शायद गांधी और सर्वोदयी विचारों को श्रद्धांजलि देने का सही मौका होगा।

इसी संदर्भ में आज यह भी सोचने का सही अवसर है कि आखिर ऐसा क्यों हुआ। इसकी एक बड़ी वजह तो यही है कि सर्वोदयी और ज्यादातर गांधीवादी संस्थाओं ने खुद को समय के साथ नहीं बदला, न उनके आगे बढ़ने की कोई दिशा थी ना ही प्रेरणा। उनका देश की जनता के साथ संवाद भी नहीं बन पाया और ना ही वे अपनी साख बना या बचा पाए। छोटे-छोटे टुकड़ों में देश में कहीं-कहीं गांधी मूल्यों को ईमानदारी से जीने की कोशिश जरूर हो रही है, पर उनसे सत्ता को कोई खतरा नहीं है। क्योंकि वे सत्ताविरोधी संघर्ष के लिए किसी तरह का सिंबल या प्रतीक चिन्ह नहीं बन पाए हैं। उधर सर्वोदय और सर्व सेवा संघ का बीते चार दशक में देश की राजनीति, अर्थनीति या सामाजिक अथवा बौद्धिक विकास में कितना सक्रिय योगदान रहा, यह सोचने का विषय है। देश के बढ़ने और गढ़ने में सर्वोदयी या गांधीवादी विचारकों, चिंतकों की हिस्सेदारी सेमिनार, सम्मेलन या लेख और भाषणों से आगे नहीं बढ़ पाई।

जबकि जेपी के संपूर्ण क्रांति आंदोलन में ही सर्व सेवा संघ ने अपने जीवन काल की सबसे सक्रिय भूमिका निभाई थी और शायद उसी दौर में कमाई गई साख, सम्मान, लोकप्रियता के बल पर इस सर्वोदयी संगठन से जुड़े लोग पूरी जिंदगी बिताना चाहते थे पर ऐसा नहीं होता है। गांधी के बाद जेपी और कुछ लोगों को लगा कि जेपी के बाद वीपी, यानी विश्वनाथ प्रताप सिंह देश की राजनीति में गांधीवादी मूल्यों को आगे बढ़ाने का काम करेंगे। वीपी सिंह ने शिक्षा नीति के बड़े बदलाव के लिए आचार्य राममूर्ति को शिक्षा समीक्षा समिति का अध्यक्ष बनाकर शायद इसकी कोशिश की भी थी, पर यह असफल रही। देश की बागडोर अंतत: कांग्रेस और भाजपा के ऐसे नेताओं के हाथ में ही बारी-बारी से आती-जाती रही जिनके लिए गांधीवादी मूल्य और सर्वोदयी विचार कोई मायने नहीं रखते थे।

कांग्रेस तो फिर भी अपनी वैचारिक पृष्ठभूमि और गांधी, नेहरू, विनोबा की विरासत के चलते इन संस्थाओं में दखल देने से बचती रही। लेकिन सर्व सेवा संघ हो या साबरमती आश्रम या फिर सेवाग्राम, इन सभी ने मान लिया कि वे अजर, अमर हैं। वे देश की ऐसी धरोहर हैं कि कैडबरी चॉकलेट के विज्ञापन 'कभी-कभी कुछ नहीं करना बेहतर होता है' को ही अपना मूल मंत्र मान बैठे। उनके कुछ न करने से देश की बागडोर उन हाथों में गई, जिनकी विचारधारा गांधी के हत्यारों से मेल खाती थी। ज़ाहिर है कि गांधी के विचारों से नफरत करने वाली सत्ता गांधी के अस्तित्व को बचाने के लिए भला कुछ भी क्यों करेगी। और कुछ भी न करके गांधीवादी, सर्वोदयी नेताओं ने सत्ता का काम और भी आसान कर दिया। अगर गांधीवादी या सर्वोदयी संस्थाएं, कार्यकर्ता या नेता सामाजिक या राजनीतिक तौर पर मुखर या सक्रिय होते और देश के तमाम जन मुद्दों पर खुलकर जनता के साथ खड़े होते तो शायद वर्तमान सत्ता को उनके खिलाफ कुछ करने के लिए दो बार सोचना पड़ता। लेकिन उनका कुछ न करना, सत्ता के लिए बहुत कुछ करने का मजबूत आधार बन गया।

बहरहाल, पहले गांधी जी का अहमदाबाद स्थित साबरमती आश्रम और अब बनारस का सर्व सेवा संघ सरकार की अलिखित, अघोषित गांधी विचार मिटाओ नीति की भेंट चढ़ने जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट इसे ढहाने पर कब तक रोक लगाने में कामयाब होगा, यह 14 जुलाई को पता चलेगा। लेकिन यह रोक स्थायी होगी, ऐसा लगता नहीं है। ऐसे में अब गांधीवादियों, सर्वोदयी लोगों को सरकार को यह सुझाव जरूर देना चाहिए कि अगर वे क्रांति और गांधी विचारों के प्रतीक चिन्ह को ढहाना ही चाहते हैं कि वहां होने वाले नए निर्माण में कम से कम एक छोटा सा संग्रहालय जरूर बनाएं जिसमें लिखा हो, निर्माण 1948,विध्वंस 2023। इस संग्रहालय में गांधी विचार से जुड़े इस शीर्ष संगठन के हिस्से रहे नेताओं के फोटो, उनकी किताबें, उनके लेख आदि भी होने चाहिए। इनमें महात्मा गांधी, भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद, तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू, आचार्य कृपलानी, आचार्य विनोबा भावे, मौलाना अबुल कलाम आजाद, जयप्रकाश नारायण, उनकी पत्नी प्रभावती, जेसी कुमारप्पा, आचार्य राममूर्ति, अच्युत पटवर्धन, नारायण देसाई, विमला ठकार, निर्मला देशपांडे, कृष्णराज मेहता, शंकर राव देव जैसी हस्तियां जरूर शामिल की जाएं। विश्व विख्यात अर्थशास्त्री प्रोफेसर ई.एफ. शुमाखर की किताब 'स्मॉल इज़ ब्यूटीफुल' (Small is Beautiful) भी इसका हिस्सा होनी चाहिए, जो उन्होंने यहीं लिखी थी।


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