इन चुनावी संकेतों से उभरती भावी सियासी तस्वीर
छत्तीसगढ़ की 90 में से 20 तथा मिजोरम की सभी 40 सीटों के लिये मंगलवार को मतदान होने के साथ ही पांच राज्यों के लिये निर्धारित विधानसभा के चुनावों को लेकर जो कयास लगाये जा रहे हैं

- डॉ. दीपक पाचपोर
हिन्दी पट्टी के तीनों राज्यों में छत्तीसगढ़ सबसे छोटा राज्य है जिसके बारे में इसलिये सबसे कम चर्चा हो रही थी क्योंकि वहां एकतरफा मुकाबला माना गया था। कांग्रेस सरकार बहुत मजबूत स्वीकारी जा चुकी थी। ऐसा इसलिये क्योंकि इस राज्य में 90 की विधानसभा में उसके 71 विधायक हैं और सरकार का काम भी शानदार माना जाता है जिसका उल्लेख कांग्रेस द्वारा अपने वादों व गारंटियों की विश्वसनीयता साबित करने के लिये किया जाता है।
छत्तीसगढ़ की 90 में से 20 तथा मिजोरम की सभी 40 सीटों के लिये मंगलवार को मतदान होने के साथ ही पांच राज्यों के लिये निर्धारित विधानसभा के चुनावों को लेकर जो कयास लगाये जा रहे हैं; और जो संकेत मत सर्वेक्षणों (ओपिनियन पोल) से मिल रहे हैं, उनसे देश की एक नयी भावी तस्वीर स्पष्टता के साथ उभरती नज़र आ रही है। इसके अलावा जमीनी हकीकतों से रूबरू हो रहे तमाम राजनीतिक पण्डित तथा विश्लेषक भी इशारे कर रहे हैं कि इन राज्यों के नतीजे जो आएंगे उसके बाद देश की सियासत वैसी नहीं रहगी जैसी आज है। उपरोक्त दो प्रदेशों के अलावा राजस्थान, मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ में भी चुनाव हो रहे हैं जो अलग-अलग तारीखों पर निपट जायेंगे। सारे के सारे इसी माह होंगे और उनके परिणाम आयेंगे 3 दिसम्बर को।
यह ऐसा चुनाव है जिसमें पांचों राज्य विभिन्न कारणों से बेहद महत्वपूर्ण हो गये हैं। महत्ता की दृष्टि से इसका क्रम नहीं ठहराया जा सकता जो सामान्य तौर पर एक साथ कई राज्यों में होने वाले चुनावों के समय निर्धारित किये जा सकते हैं। मसलन, फरवरी 2022 में जब पांच सूबों की विधानसभाओं के चुनाव हुए थे तो उन पर होने वाली चर्चाओं के दौरान प्रकारान्तर से उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर का क्रम सियासी महत्व के अनुसार निर्धारित होता था। हिन्दी पट्टी का प्रमुख राज होने के नाते और एक अलग तरह की राजनीति व प्रशासन चलाने वाले उप्र को सर्वाधिक अहमियत थी, तो हिन्दुत्व की नयी प्रयोगशाला के रूप में बन रहे उत्तराखंड का क्रमांक दूसरा था। कांग्रेस की उथल-पुथल और भारतीय जनता पार्टी व अकाली दल के अलगाव के बाद होने तथा आम आदमी पार्टी के वहां जोर-शोर से चुनाव लड़ने के कारण उस चुनाव का भी महत्व था परन्तु वह राज्य तीसरे ही नंबर पर था। पहले 2017 में बनी जहां की सरकार (गोवा) को भाजपा ने कांग्रेस से छीनकर बनाया था, उसकी ओर लोग उत्सुकता से देख तो रहे थे पर वह चौथा ही महत्वपूर्ण राज्य था। पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर को आखिरी क्रमांक पर रखा गया था।
इस बार ऐसा बिलकुल नहीं किया जा सकता। अब कोई नहीं कह सकता कि कौन सा राज्य सर्वाधिक महत्वपूर्ण है और कौन सा सबसे कम। मिजोरम को ही लें! जब चुनावों की घोषणा हुई थी तो लगता था कि यह इन सभी में सबसे कम महत्वपूर्ण है, परन्तु जैसे-जैसे मणिपुर की घटनाओं की आंच उस राज्य ने महसूस की, वहां राहुल गांधी का दो दिवसीय दौरा हुआ, सभी राज्यों में धुंआधार प्रचार करने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उससे दूरी बना ली तथा मुख्यमंत्री जोरामथांगा ने साफ कर दिया कि वे मोदी के साथ मंच साझा नहीं करेंगे- मिजोरम भी अपने मायनों में यह छोटा
राज्य होने के बावजूद बेहद महत्वपूर्ण हो उठा क्योंकि इन घटनाक्रमों के आलोक में वह समग्र पूर्वोत्तरवासियों की मानसिकता का अक्स बन बैठा- सात राज्यों का भी। दक्षिणी राज्य तेलंगाना की बात करें तो यहां पहले सत्तारुढ़ भारत राष्ट्रीय समिति (बीआरएस) और भाजपा के बीच मुख्य मुकाबला था लेकिन जब वहां भी राहुल ने कई दिन बिताए तत्पश्चात बीआरएस व वहीं की आल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन (एआईएमआईएम) के साथ भाजपा की सांठ-गांठ को उजागर किया तो भाजपा दौड़ से ही बाहर हो गई। अब बीआरएस सत्ता बचाने के लिये कांग्रेस से संघर्षरत है। लोगों का कहना है कि अगर वहां बीआरएस हारती है तो आश्चर्य नहीं होना चाहिये। पिछले साल सितम्बर से निकाली अपनी भारत जोड़ो यात्रा में राहुल ने तेलंगाना में करीब 16 दिन बिताए थे, जिसका असर वहां पहले से मौजूद था।
हिन्दी पट्टी के तीनों राज्यों में छत्तीसगढ़ सबसे छोटा राज्य है जिसके बारे में इसलिये सबसे कम चर्चा हो रही थी क्योंकि वहां एकतरफा मुकाबला माना गया था। कांग्रेस सरकार बहुत मजबूत स्वीकारी जा चुकी थी। ऐसा इसलिये क्योंकि इस राज्य में 90 की विधानसभा में उसके 71 विधायक हैं और सरकार का काम भी शानदार माना जाता है जिसका उल्लेख कांग्रेस द्वारा अपने वादों व गारंटियों की विश्वसनीयता साबित करने के लिये किया जाता है। यहां भाजपा का ध्रुवीकरण, साम्प्रदायिकता और धर्मांतरण का मुद्दा लाख कोशिशों के बावजूद नाकाम रह गया है। उसे यहां उग्र बयान देने वालों की फौज उतारनी पड़ी है। साथ ही, केन्द्रीय जांच एजेंसियों का जिस कदर मुकाबला कांग्रेस कर रही है उसने भी अन्य राज्यों की इकाइयों को बताया कि भाजपा से ऐसे भी लड़ा जा सकता है। अब छग का राजनैतिक मॉडल हर चुनावी चर्चा का अनिवार्य हिस्सा बन गया है। इसने छग का महत्व यकायक बढ़ा दिया है। अब रही बात मध्यप्रदेश व राजस्थान की तो यह अलग-अलग संदर्भों में और व्यक्ति-व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह दोनों में किसे अधिक महत्व देता है।
दोनों ही राज्यों में अनेक एक सरीखे तथ्य हैं, बावजूद इस फर्क के कि एक जगह पर (मप्र) भाजपा सत्ता बचाने की जद्दोजहद में है तो दूसरी जगह (राजस्थान) सरकार बनाने की। दोनों राज्यों में दोनों प्रमुख दलों- कांग्रेस व भाजपा में कम या ज्यादा बगावतों व भीतरघातों का सिलसिला जारी है लेकिन उनका खामियाजा भाजपा के ही अधिक भुगतने के संकेत साफ हैं। दोनों राज्यों में आलाकमान ने बड़े पैमाने पर केन्द्रीय मंत्रियों एवं नेताओं को विधायकी के रणक्षेत्र में उतारकर स्थानीय नेतृत्व व काडर की मुश्किलें बढ़ा दी हैं जिसका दोनों जगहों पर कांग्रेस को फायदा होता दिख रहा है। वैसे यह भी सच है कि जहां कांग्रेस अपने अंदरूनी झगड़ों को सम्भालने में नाकाम रहेगी वहां उसकी मुश्किलें बढ़ेंगी। अलबत्ता, उसकी बेहतर होती स्थिति उसे अपने आंतरिक मतभेदों पर काबू पाने या उसके असर को घटाने में सहायक साबित हो रही है।
इस तरह एक साथ सारे के सारे राज्यों के महत्वपूर्ण कहे व माने जा चुके इन चुनावों की श्रृंखला में किसी भी कड़ी को कमजोर नहीं कहा जा सकता। कुल जमा, सभी राज्यों में कांग्रेस की बढ़त बनी हुई है और भाजपा की पतली हालत है। इन सभी प्रदेशों में राहुल गांधी, कांग्रेसाध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे और प्रियंका गांधी की होने वाली सभाओं और रोड शो ने रातों-रात फर्क पैदा किया है।
इन चुनावों के परिणामों के बाद बामुश्किल छह माह के भीतर ही देश आम चुनावों में जायेगा। पहले दिन से तय है कि उसकी नियति को ये नतीजे निर्धारित करेंगे। इसलिये हाल ही में कांग्रेस की अगुवाई में बने संयुक्तप्रतिपक्ष 'इंडिया' (इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इनक्लूज़िव एलाएंस) में उठे कुछ विवादों व मतभेदों से भाजपा को काफी उम्मीद थी। अब भी होगी कि इन राज्यों के चुनावों के दौरान अगर गठबन्धन में कोई टूट-फूट होती है तो उसका उसे 2024 के लोकसभा चुनावों में फायदा मिल सकता है परन्तु उसे निराशा ही हाथ लगी होगी क्योंकि मतभेद होते भी हैं तो तत्परता से सुलझाये जा रहे हैं। अब भी साथ काम करने का आश्वासन भी सभी सम्बन्धित दल दे रहे हैं। मसलन, समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के बीच मध्यप्रदेश के कुछ चुनावी मसलों पर तनातनी हुई परन्तु उसे सुलझा लिया गया। ऐसे ही, बिहार के सीएम नीतीश कुमार को शिकायत थी कि कांग्रेस के पास इंडिया गठबन्धन की ओर ध्यान देने का समय नहीं मिल रहा नहीं है। मल्लिकार्जुन खरगे ने आश्वस्त कर दिया कि विधानसभा चुनावों के बाद वे सभी को साथ लेकर 'इंडिया' को आगे बढ़ाएंगे। यही नयी तस्वीर अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा की कमजोर स्थिति को लेकर उभरेगी।
(लेखक देशबन्धु के राजनीतिक सम्पादक हैं)


