ललित सुरजन की कलम से- कांग्रेस के शुभचिंतक (!)
मुझे यह बात कुछ अजीब लगती है कि कांग्रेस पार्टी की चिंता जितनी उसके नेताओं को स्वयं नहीं है उससे ज्यादा विरोधियों और मीडिया को हो रही है

मुझे यह बात कुछ अजीब लगती है कि कांग्रेस पार्टी की चिंता जितनी उसके नेताओं को स्वयं नहीं है उससे ज्यादा विरोधियों और मीडिया को हो रही है। जिस पार्टी को तीन-साढ़े तीन माह पूर्व आम चुनावों में मतदाताओं ने स्पष्ट रूप से नकार दिया हो, उसके भविष्य को लेकर लोगों को अपना माथा क्यों खराब करना चाहिए?
1984 के आम चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को मात्र दो सीटें मिली थीं, किन्तु उस वक्त तो किसी ने भी न भाजपा का अंत होने की भविष्यवाणी की थी और न ही सुबह-शाम उस पर बहसें हुई थीं।
भाजपा को अपने आंतरिक ढांचे में जो भी परिवर्तन करने की आवश्यकता महसूस हुई होगी, वे उसने भीतर ही भीतर किए होंगे। अपनी रीति-नीति पर भी खामोशी से पुनर्विचार किया होगा और तब जाकर उसने नए सिरे से ऊर्जा हासिल की जिसकी परिणति आज हमारे सामने है।
यह संभव है कि कांग्रेस में भी इसी तरह से पुनर्विचार और आत्ममंथन चल रहा हो। स्वाभाविक रूप से यह एक दीर्घकालीन प्रक्रिया होगी। कांग्रेस को अपनी रीति-नीति और सांगठनिक ढांचे में जहां भी परिवर्तन करना होंगे वह आगे-पीछे करेगी इसकी उम्मीद की जा सकती है। अभी इसके लिए बहुत समय बाकी है। भारतीय जनता पार्टी व संघ परिवार कांग्रेस को नीचा दिखाने, उसकी हंसी उड़ाने और उस पर वार करने का कोई मौका न छोड़े, यह उससे अनपेक्षित नहीं था। किन्तु राजनीतिक विश्लेषकों एवं पत्रकारों को ऐसी क्या जल्दी है?
(देशबन्धु में 17 सितम्बर 2014 को प्रकाशित)
https://lalitsurjan.blogspot.com/2014/09/blog-post_17.html


