ललित सुरजन की कलम से- विकलांग चेतना का दौर
'मुझे लगता है कि वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में सारा देश 'थियेटर ऑफ द एब्सर्ड' में तब्दील हो गया है

'मुझे लगता है कि वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में सारा देश 'थियेटर ऑफ द एब्सर्ड' में तब्दील हो गया है। मैं इसके लिए हिन्दी में पर्याय सोच रहा था। नौटंकी से बेहतर और कोई संज्ञा समझ नहीं आई, लेकिन जो दृश्य बना हुआ है उसे व्यक्त करने के लिए नौटंकी कहना पर्याप्त नहीं है।
हरिशंकर परसाई ने काफी पहले विकलांग श्रद्धा का दौर शीर्षक से निबंध लिखा था। इसे थोड़ा बदलकर कह सकते हैं कि अब हम विकलांग चेतना के दौर से गुजर रहे हैं। हमें समझ नहीं आ रहा है कि आगे का रास्ता क्या है तथा किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति में सब बैठे हुए हैं। जो सत्ता में हैं उनकी जीभ पर लगाम नहीं है।
जिसकी जब जो मर्जी आती है कह देता है और जिन्हें प्रतिकार करना चाहिए वे घिसे-पिटे बयानों से आगे नहीं बढ़ते। अपने आप को उदारवादी, जनतंत्रवादी मानने वाले अनेकानेक बुद्धिजीवी तो तात्कालिक लाभ की प्रत्याशा में प्रतिगामी शक्तियों के सामने दंडवत तक करने लगे हैं। हमारे आसपास नित्यप्रति दिल दहलाने वाले अपराध घटित हो रहे हैं, लेकिन उनको रोकने में आज हम अपने आपको जितना असहाय पा रहे हैं ऐसा शायद पहले कभी नहीं हुआ।
(देशबन्धु में 15 अक्टूबर 2024 को प्रकाशित)
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