ललित सुरजन की कलम से- कविता : अमेरिका को फिर अमेरिका बनने दो
विख्यात अफ्रीकी-अमेरिकी कवि ओह! अमेरिका को फिर बनने दो अमेरिका वह धरती जो अभी तक बन नहीं पाई है

- लैंगस्टन ह्यूज़
(1902-1967)
विख्यात अफ्रीकी-अमेरिकी कवि
ओह! अमेरिका को फिर बनने दो अमेरिका
वह धरती जो अभी तक
बन नहीं पाई है,
लेकिन जिसे बनना ही चाहिए- वह धरती
जहाँ हर मनुष्य हो स्वाधीन
वह धरती जो मेरी हो
गरीब की, आदिवासी की, नीग्रो की
हाँ, वह धरती हो मेरी,
मैं, जिसने बनाया अमेरिका,
बनाया अमेरिका
जिसके स्वेद और लहू ने,
जिसके विश्वास और पीड़ा ने,
मशीन पर चले जिसके हाथ,
बरसात में चला जिसका हल,
वही लौटा कर लाएगा हमारा सुनहरा स्वप्न।
मुझे परवाह नहीं, तुम मुझे गालियाँ दो,
किसी भी भाषा में पुकारो,
स्वाधीनता की इस्पाती चादर पर
दाग नहीं पड़ेंगे,
हमारी ज़िंदगी को चूस लिया
जिन्होंने जोंक बन कर,
उनसे वापिस लेना ही है
हमें हमारी धरती
अमेरिका!
हाँ, सचमुच
मैं साफ-साफ कहता हूँ,
अमेरिका मेरे लिए कभी
अमेरिका नहीं था,
लेकिन मैं शपथ लेता हूँ
अमेरिका होगा।
खूनी गिरोहों के विध्वंस और
मौत के नाच के बावजूद,
बलात्कार, झूठ, कदाचार,
षड़यंत्र और रिश्वत की सड़न के बाद भी,
हम, जो जन हैं, लौटा कर लाएंगे
धरती, खदान, वृक्ष, नदियाँ,
पहाड़ और अंतहीन मैदान और
हरियाली के सारे दृश्य
हाँ, वे सारे दृश्य
और अमेरिका को फिर बनाएंगे ।
रूपांतर-
- ललित सुरजन


