ललित सुरजन की कलम से - 'रोशनी का घोषणापत्र'
'दुनिया की आधी आबादी जब तक अंधेरे की कैद में रहेगी तब तक एक रोशन दुनिया की कल्पना साकार नहीं हो सकती

'दुनिया की आधी आबादी जब तक अंधेरे की कैद में रहेगी तब तक एक रोशन दुनिया की कल्पना साकार नहीं हो सकती। हमारे देश में स्त्री जाति की जो स्थिति है वह किसी से छिपी नहीं है। कहने के लिए कानून तो बहुत बन गए हैं और यही नहीं, कानूनों को कठोर से कठोरतम बनाने की मांग भी हमेशा उठती रहती है; लेकिन जब तक समाज के नज़रिए में आमूलचूल परिवर्तन नहीं होगा तब तक कानून बेमानी रहे आएंगे।
प्रश्न उठता है कि समाज की सोच में परिवर्तन लाने के लिए क्या सचमुच आवश्यक परिवर्तन किए जा रहे हैं; क्या उनमें तकनीकी विकास के चलते आ रहे सामाजिक बदलावों का ध्यान रखा जा रहा है; क्या देश के राजनीतिक दल गौर करेंगे कि घिसी-पिटी युक्तियों से बात नहीं बनेगी। मैं देखता हूं कि मूल रूप में मातृसत्तात्मक रहे आदिवासी समाजों में भी पितृसत्ता की पकड़ मजबूत हो रही है। यह चिंताजनक है।
ध्यान देना होगा कि बचपन से स्त्री और पुरुष के बीच बराबरी के भाव को बढ़ाया जाए, पुरुष वर्चस्व को नकारा जाए, लड़के-लड़की दोनों का लालन-पालन, शिक्षा-दीक्षा इत्यादि में भेद न किया जाए, उन्हें एक-दूसरे का सम्मान करना सिखाया जाए। हमारी स्कूली किताबें भेदभाव को बढ़ाती हैं। विशेषज्ञ इनका परीक्षण करें और वर्चस्ववाद के बजाय नर-नारी समता का संदेश देने वाले पाठ पुस्तकों में रखें जाएं।
सिनेमा और टीवी में आदर्श भारतीय नारी की जो कपोल-कल्पित छवि बना दी गई है उसे तोड़ा जाए। मैं यहां तक कहूंगा कि लड़के के लिए बंदूक और लड़की के लिए गुड़िया जैसे खिलौने की मानसिकता का भी त्याग किया जाए।'
(देशबन्धु में 05 नवंबर 2018 को प्रकाशित )
https://lalitsurjan.blogspot.com/2018/11/blog-post.html


