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ललित सुरजन की कलम से- न्यायमूर्ति दवे के उद्गार

श्री दवे का ध्यान मैं बहुचर्चित अर्थशास्त्री और राजनैतिक विश्लेषक लॉर्ड मेघनाद देसाई की हाल में प्रकाशित पुस्तक ''हू रोट द श्रीमदभागवत" की ओर दिलाना चाहता हूं

ललित सुरजन की कलम से- न्यायमूर्ति दवे के उद्गार
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श्री दवे का ध्यान मैं बहुचर्चित अर्थशास्त्री और राजनैतिक विश्लेषक लॉर्ड मेघनाद देसाई की हाल में प्रकाशित पुस्तक ''हू रोट द श्रीमदभागवत" की ओर दिलाना चाहता हूं। इसमें विद्वान लेखक ने बड़ी बेबाकी के साथ स्थापना की है कि 'गीता आज की जनतांत्रिक व्यवस्था के अनुकूल नहीं है। हम देखना चाहेंगे कि श्री दवे श्री देसाई के तर्कों को किस तरह काटते हैं।

रामायण और महाभारत में भी जो कथाएं और अन्तर्कथाएं हैं वे भी बहुत सारे ऐसे प्रश्न खड़े करती हैं जो आधुनिक समाज की न्याय की अवधारणा से टकराते हैं। ऐसे कुछ सवाल हम बिना किसी प्राथमिकता क्रम के सामने रख रहे हैं-

1. युधिष्ठिर को धर्मराज की पदवी दी गई है, लेकिन क्या द्यूत क्रीड़ा धर्मसम्मत है और अगर है तो कौरव सभा में द्रौपदी को दांव पर लगाना धर्म है या अधर्म?
2. इसी तरह युद्ध क्षेत्र में युधिष्ठिर ने द्रोणाचार्य को मारने के लिए असत्य का आश्रय क्यों लिया?
3. द्रौपदी के चीरहरण के समय भीष्म पितामह सहित किसी भी सभासद ने विरोध क्यों नहीं किया?
4. रामायण में शूर्पणखा के साथ परिहास कहां तक उचित था?
5. बालीवध को कैसे न्यायोचित ठहराया जा सकता है?
6. सीता की अग्निपरीक्षा और बाद में सीता का परित्याग आज की स्थितियों में क्या न्यायपूर्ण माना जाएगा?
7. शंबूक वध का औचित्य कैसे सिद्ध किया जा सकता है?

(देशबन्धु में 07 अगस्त 2014 को प्रकाशित)

https://lalitsurjan.blogspot.com/2014/08/blog-post.html


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