ललित सुरजन की कलम से- जो हुकुम सरकार
'इस इक्कीसवीं सदी में जनता के वोटों से विजयी या पराजित नेताओं के दरबार में सामंतकालीन कवियों का स्थान पत्रकारों ने ले लिया है

'इस इक्कीसवीं सदी में जनता के वोटों से विजयी या पराजित नेताओं के दरबार में सामंतकालीन कवियों का स्थान पत्रकारों ने ले लिया है। उनमें से जो महाकवि बनने की योग्यता हासिल कर लेते हैं उन्हें या तो राज्यसभा में जगह मिल जाती है या फिर वे किसी नवरत्न कंपनी के डायरेक्टर, एडवाइजर वगैरह भी बन सकते हैं। जो नेता जितना बड़ा, उसके द्वारा दी गई मोतियों की लड़ी भी उतनी ही महंगी।
जो इतने ऊंचे नहीं पहुंच पाते वे अपनी-अपनी काबिलियत के मुताबिक इनाम- इकरार पा जाते हैं। जिन्हें ड्योढ़ी चढ़ना कबूल नहीं है, वे अपने घर में बैठे रहते हैं; सोशल मीडिया पर टिप्पणियां लिखकर अपने मन का गुबार हल्का कर लेते हैं। गो कि खतरा वहां भी कम नहीं है। जब युद्ध चल रहा है तो फिर जो हमारे साथ नहीं हैं वह हमारा दुश्मन ही तो कहलाएगा! रावण के दरबार से सगे भाई विभीषण को भी निकलना पड़ा था, फिर बाकी की तो बिसात ही क्या?'
(देशबन्धु में 18 अक्टूबर 2018 को प्रकाशित)


