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ललित सुरजन की कलम से - सेंसरशिप: प्लेटो से अब तक

नेशनल जियोग्राफिक' मासिक व 'द इकॉनामिस्ट' साप्ताहिक दो ऐसे पत्र हैं जिनमें पाठक कभी त्रुटियों की ओर इशारा करें तो संपादक की ओर से उसका बाकायदा जवाब दिया जाता है व सौ में निन्यानबे बार यह सिद्ध होता है कि संपादक की जानकारी अद्यतन है

ललित सुरजन की कलम से - सेंसरशिप: प्लेटो से अब तक
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'नेशनल जियोग्राफिक' मासिक व 'द इकॉनामिस्ट' साप्ताहिक दो ऐसे पत्र हैं जिनमें पाठक कभी त्रुटियों की ओर इशारा करें तो संपादक की ओर से उसका बाकायदा जवाब दिया जाता है व सौ में निन्यानबे बार यह सिद्ध होता है कि संपादक की जानकारी अद्यतन है, जबकि पाठक स्वयं गलती करते हैं। ऐसे सजग संपादक भारत में दुर्लभ हैं।

अखबारों के संदर्भ में ही एक व्यवस्था ओम्बुड्समैन याने लोकपाल की है। पाठक यदि संपादक के उत्तर से संतुष्ट नहीं है तो वह लोकपाल को अपील कर सकता है। भारत में एकाध ही अखबार ने इस व्यवस्था को अपनाया है।

एक अन्य उदाहरण एक ऐसी संस्था के बारे में है जिसके बारे में जनसामान्य को कम जानकारी है। यदि अखबार अथवा टीवी पर प्रसारित विज्ञापन आपत्तिजनक, अविश्वसनीय, स्तरहीन या कुरुचिपूर्ण प्रतीत हो तो कोई भी व्यक्ति एडवरटाइजिंग स्टैंडर्ड्स कौंसिल ऑफ इंडिया को शिकायत कर सकता है।

यह संस्था विज्ञापनदाताओं और विज्ञापन एजेंसियों ने मिलकर बनाई है। अगर शिकायत में दम है तो संस्था उस विज्ञापन को हटा लेने का निर्देश दे देती है। ऐसे कई दृष्टांत हैं जब कौंसिल ने नागरिकों की शिकायत पर अपने सदस्य विज्ञापनदाताओं के खिलाफ निर्णय दिए हैं।

(अक्षर पर्व अप्रैल 2015 अंक की प्रस्तावना)
https://lalitsurjan.blogspot.com/2015/04/blog-post_7.html


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