ललित सुरजन की कलम से- विराट व्यक्तित्व को समझने की अधूरी कोशिश
'वर्तमान में गांधी की क्या कोई प्रासंगिकता है? क्या भारत को या दुनिया को उनकी वैसी ही ज़रुरत है जो उनके जीवनकाल में थी

'वर्तमान में गांधी की क्या कोई प्रासंगिकता है? क्या भारत को या दुनिया को उनकी वैसी ही ज़रुरत है जो उनके जीवनकाल में थी? आज के वैश्विक परिदृश्य में क्या उनसे उसी तरह प्रेरणा ली जा सकती है, जैसी आज से चालीस-पचास साल पहले तक ली जाती थी? फिल्मों में कोर्टरूम और पुलिस थाने के दृश्यों में गांधी की तस्वीर लगभग अनिवार्य तौर पर देखने मिलती है, सरकारी दफ्तरों और इमारतों में भी उनके चित्र दीवार पर बदस्तूर टांगे जाते हैं।
इस औपचारिकता का निर्वाह वे सत्ताधीश भी करते हैं जिनके मन में गांधी नहीं, गोडसे बसता है। इसीलिए वे मजबूरी का नाम महात्मा गांधी का मुहावरा चलाते हैं, जिसका प्रतिउत्तर मित्र लेखक पुरुषोत्तम अग्रवाल 'मजबूती का नाम महात्मा गांधी' से देते हैं।
आज भी चरखा चलाने और खादी पहनने वाले अनेकानेक जन मजबूरी और मजबूती के बीच के भारी अंतर को नहीं समझ पाते। गांधी एक छाया और छायाचित्र की तरह हमारे राष्ट्रीय जीवन में मौजूद हैं।
उन्हें शायद किसी दिन कल्कि अवतार भी घोषित कर दिया जाए!किंतु बुनियादी प्रश्न तो गांधी के विचारों को समझने व आत्मसात करने का है। वे सब जो गांधी के नाम पर यत्र-तत्र-सर्वत्र समारोह कर रहे हैं, वे गांधी जीवन दर्शन को यदि यत्किंचित भी समझ पाएंगे तो स्वयं अपना भला करेंगे।'
(देशबन्धु में 2 अक्तूबर 2019 को प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित विशेष संपादकीय)
https://lalitsurjan.blogspot.com/2019/10/blog-post.html


