ललित सुरजन की कलम से- अंतिम सच का सामना कैसे करें
इस पुस्तक में काफी विस्तार से वृद्धावस्था की स्थितियों व परिचर्या पर बात की गई है, किन्तु जिस बिन्दु पर लेखक ध्यान केन्द्रित करना चाहते हैं वह है कि मनुष्य अपनी अवश्यंभावी नश्वरता के सच का सामना कैसे करे

'इस पुस्तक में काफी विस्तार से वृद्धावस्था की स्थितियों व परिचर्या पर बात की गई है, किन्तु जिस बिन्दु पर लेखक ध्यान केन्द्रित करना चाहते हैं वह है कि मनुष्य अपनी अवश्यंभावी नश्वरता के सच का सामना कैसे करे। वे कहते हैं कि इसके लिए दो तरह के सत्य का साक्षात्कार करना होगा।
पहले कि मृत्यु अंतिम सत्य है और दूसरा इस सत्य को जानकर स्वयं को मानसिक रूप से तैयार करना है। इसमें एक चिकित्सक की क्या भूमिका हो सकती है? वे कहते हैं कि एक चिकित्सक को भी यह स्वीकार करना चाहिए कि उसकी शक्ति अनंत नहीं है। डॉक्टर सोचते हैं कि उनका काम स्वास्थ्य और जीवन देना है, लेकिन सच्चाई इसके आगे है कि जितना भी जीवन है वह सुखद रूप से कैसे जिया जाए! यदि सुख नहीं है तो जीवन का आधार क्या है? यह ऐसा प्रश्न है जिससे डॉक्टरों को लगातार जूझना है।'
'अतुल गवांडे की यह पुस्तक अपने किस्म की एक अनूठी किताब है। यह सिर्फ वृद्धजनों और बीमारों के बारे में नहीं है बल्कि मनुष्य के अपने अस्तित्व को लेकर दार्शनिक धरातल पर एक नए ढंग से सोचने के लिए प्रेरित करती है। मुझे लेखक की जो उक्ति सबसे अच्छी लगी वह यह कि मनुष्य के जीवन में संयुक्त परिवार का खासा महत्व है और वृद्धजनों की आश्वस्ति तब बढ़ जाती है जब उनकी फिक्र करने के लिए कम से कम एक बेटी जरूर हो।'
(अक्षर पर्व मार्च 2015 अंक की प्रस्तावना)
https://lalitsurjan.blogspot.com/2015/03/blog-post_6.html


