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ललित सुरजन की कलम से- राजनीति में वंचित समाज के लिए जगह कहाँ?

राष्ट्रपति चुनाव में आदिवासी उम्मीदवार और अपने पुराने मित्र पी.ए. संगमा का खुला समर्थन कर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अरविन्द नेताम ने इस प्रौढावस्था में अपना राजनीतिक भविष्य, जितना भी बाकी है, खतरे में डाल दिया

ललित सुरजन की कलम से- राजनीति में वंचित समाज के लिए जगह कहाँ?
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राष्ट्रपति चुनाव में आदिवासी उम्मीदवार और अपने पुराने मित्र पी.ए. संगमा का खुला समर्थन कर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अरविन्द नेताम ने इस प्रौढावस्था में अपना राजनीतिक भविष्य, जितना भी बाकी है, खतरे में डाल दिया।

कहा जा सकता है कि उन्होंने जानते-बूझते अपने लिए मुसीबत मोल ली। कांग्रेस ने उन्हें पार्टी की सदस्यता से तो निलंबित कर ही दिया है, हो सकता है कि आगे कोई और बड़ी कार्रवाई हो। हम यह समझना चाहते हैं कि 1971 में मात्र उनतीस या तीस वर्ष की आयु में जिस व्यक्ति को इंदिरा गांधी ने अपने मंत्रिमण्डल में शामिल किया उसे आज की कांग्रेस पार्टी संभालकर क्यों नहीं रख सकी! इसी प्रश्न से दूसरा बड़ा सवाल उठता है कि कांग्रेस हो या भाजपा या अन्य कोई दल- उसमें आदिवासियों के लिए कितनी जगह है।'

सच पूछा जाए तो इस प्रसंग से उजागर होता है कि भारत की राजनीतिक दलों में आंतरिक जनतंत्र किस तरह कमजोर है और उसमें समाज के कमजोर वर्गों की हैसियत किस तरह दोयम दर्जे की बना दी गई है।

ऐसा क्यों हुआ है कि किसी भी पार्टी में आदिवासी, दलित व हाशिए के अन्य समुदायों को राजनीति में निर्णायक अथवा प्रबल भूमिका निभाने के लिए या तो तैयार किया ही नहीं गया या उन्हें स्वयं तैयार होने का अवसर नहीं दिया गया।

पी.ए. संगमा, गिरधर गोमांग, अमर सिंह चौधरी और अरविंद नेताम- ये कुछ आदिवासी नेता हैं जो सत्तर के दशक में उभरे। इनमें पी.ए. संगमा ही केन्द्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण हैसियत हासिल कर सके। बाकी के साथ राजनीति के भीतर लगभग वैसा ही व्यवहार हुआ जैसा आम जीवन में प्रभुत्वशाली वर्ग बस्तर या झाबुआ के आदिवासियों के साथ करता है।

(देशबंधु में 05 जुलाई 2012 को प्रकाशित)

https://lalitsurjan.blogspot.com/2012/07/blog-post.html


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