ललित सुरजन की कलम से- युद्ध नहीं, शांति चाहिए
'एक कटु सत्य है कि भारत ने युद्ध की विभीषिका का बहुत सीमित अनुभव किया है। बातें हम भले ही बड़ी-बड़ी कर लें

'एक कटु सत्य है कि भारत ने युद्ध की विभीषिका का बहुत सीमित अनुभव किया है। बातें हम भले ही बड़ी-बड़ी कर लें। अभी दिल्ली में राष्ट्रीय युद्ध स्मारक का उद्घाटन हुआ। राष्ट्रपति देश के सशस्त्र बलों के सर्वोच्च सेनापति हैं, लेकिन एक ऐतिहासिक कार्यक्रम उनकी अनुपस्थिति में सम्पन्न हो गया।प्रधानमंत्री हमारे सुप्रीम लीडर जो ठहरे!
इस युद्ध स्मारक में 1947 से अभी हाल तक मारे गए छब्बीस हजार सैनिकों के नाम उत्कीर्ण हैं। एक दृष्टि में लग सकता है कि देश की अखंडता और सार्वभौमिकता की रक्षा के लिए इतनी बड़ी संख्या में सैनिकों ने प्राणोत्सर्ग किया है। लेकिन जब हम विश्व के कुछ अन्य देशों को देखते हैं तो एक नई तस्वीर उभरती है। अमेरिका ने वियतनाम युद्ध में कोई एक लाख सैनिक खोए होंगे। कोरिया में चीन और अमेरिका ने बहुत बड़ी संख्या में सैनिकों की बलि दी। खाड़ी युद्ध में मरने वालों की संख्या भी एक लाख के आस-पास ही है। और क्या आज कोई विश्वास करेगा कि द्वितीय विश्वयुद्ध में अकेले सोवियत संघ ने अपने दो करोड़ सैनिकों को खोया था। इन आंकड़ों को पेश करने का मकसद यह बतलाना है कि युद्ध किस तरह से किसी भी देश में तबाही ला सकता है। यह आंकड़े प्रकारांतर से यही दर्शाते हैं कि भारत अब तक इस मामले में सौभाग्यशाली रहा है कि हमें अब तक किसी लंबी चलने वाली लड़ाई का सामना नहीं करना पड़ा और लड़ाई का भूगोल भी सीमित रहा आया।'
(देशबन्धु में 07 मार्च 2019 को प्रकाशित)
https://lalitsurjan.blogspot.com/2019/03/blog-post.html


