ललित सुरजन की कलम से- तीसरा मोर्चा बनाम वामदल
'सच पूछिए तो वामपंथ की राजनीतिक ताकत इस लंबे अरसे में सिर्फ तीन प्रांतों में ही देखने मिली है

'सच पूछिए तो वामपंथ की राजनीतिक ताकत इस लंबे अरसे में सिर्फ तीन प्रांतों में ही देखने मिली है। केरल जहां 1957 में पहली बार कम्युनिस्ट पार्टी ने चुनाव जीतकर सरकार बनाई यद्यपि उसे दो साल बीतते न बीतते कांग्रेस सरकार ने भंग कर दिया, फिर बंगाल जहां 1967 में ज्योति बसु एक मिलीजुली सरकार में उपमुख्यमंत्री बने तथा आगे चलकर वाममोर्चे के मुख्यमंत्री, और फिर त्रिपुरा जहां अभी भी वाममोर्चे का राज है। इनके अलावा कम्युनिस्ट पार्टियों ने समय-समय पर देश के अनेक प्रांतों में अपनी उपस्थिति का परिचय दिया ज् ारूर है, लेकिन उन्हें अपना जनाधार मजबूत करने में कोई खास सफलता नहीं मिली। इस वास्तविक स्थिति की अतीत राग से मुक्त होकर सम्यक विवेचना की जाए तभी आगे की राह निकल सकती है।
यह फिर से याद करना उचित होगा कि 1996 में प्रधानमंत्री पद वाममोर्चे के हाथ से आकर निकल गया। अटल बिहारी वाजपेयी व ज्योति बसु के बीच चयन होना था, लेकिन देश की जनता के एक बड़े हिस्से के प्रबल आग्रह की अनदेखी माकपा ने कर दी और ज्योति बसु प्रधानमंत्री बनने से रोक दिए गए। इस तरह वाममोर्चे को अपने सीमित प्रभावक्षेत्र से बाहर निकलकर राष्ट्रीय स्तर पर पहचान स्थापित करने का जो ऐतिहासिक अवसर मिला था वह उसने गंवा दिया। इसके बरक्स जब राष्ट्रीय मोर्चा सरकार में भाकपा के इन्द्रजीत गुप्त गृहमंत्री बने तो उन्होंने थोड़े ही समय में अपनी सादगी और कार्यक्षमता से जनता को प्रभावित कर लिया था।
केरल में सी.के. अच्युत मेनन और ई.के. नयनार को लोग आज भी याद करते हैं। इसी तरह जब वामदलों के नेता टीवी पर आते हैं तो उनकी स्पष्ट और तार्किक बातों से श्रोता प्रभावित हुए बिना नहीं रहते। मेरे कहने का आशय यह है कि विचारों की इस पूंजी का निवेश एक बेहतर राजनीतिक विकल्प तैयार करने के लिए जिस तरह से किया जाना चाहिए था वह नहीं किया गया। अपनी ही शक्ति से अपरिचित वामदल बिना जरूरत दूसरों का कंधा पकड़कर ऊपर चढ़ने की कोशिश में लगे हुए हैं।'
(देशबन्धु में 16 मई 2013 को प्रकाशित )
https://lalitsurjan.blogspot.com/2013/05/blog-post_15.html


