ललित सुरजन की कलम से- मानसरोवर यात्रा पर राहुल
'जनतंत्र बहुमत से चलता है, लेकिन बहुमतवाद से नहीं। किसी संगठित धर्म के प्रति निष्ठा निजी आचरण का विषय हो सकता है

'जनतंत्र बहुमत से चलता है, लेकिन बहुमतवाद से नहीं। किसी संगठित धर्म के प्रति निष्ठा निजी आचरण का विषय हो सकता है, तथापि जनतांत्रिक राजनीति में वह इस मायने में अनर्थ है कि तब अल्पमत की निष्ठा और विश्वास का तिरस्कार होने लगता है।
इसीलिए अमेरिका जैसे अग्रणी देश में भी जहां शपथ ईश्वर के नाम पर ली जाती है किन्तु राजकारण में धर्मनिरपेक्षता का पालन किया जाता है। इसका उल्लंघन होता है तो ऐसा करने वाले को दंडित भी होना पड़ता है।
यही वातावरण इंग्लैंड और यूरोप के अनेक देशों में है। फ्रांस, जर्मनी, स्वीडन, नार्वे, डेनमार्क, इटली ऐसे तमाम देशों में अल्पसंख्यक समुदाय को सिर्फ शरण ही नहीं, बल्कि नागरिकता और नागरिक अधिकार भी दिए गए हैं। वहां यदा- कदा संकीर्ण मतवाद को लेकर संघर्ष होते हैं, किन्तु उस कारण से राज्य की जनतांत्रिक नीतियों में कोई परिवर्तन नहीं होता।'
'पंडित नेहरू और उनके लगभग सभी साथी- सहयोगी भी स्वतंत्र भारत में इन जनतांत्रिक विश्वासों को पुष्ट करना चाहते थे। पाठकों को शायद ध्यान हो कि हर साल 3 जनवरी को इंडियन साइंस कांग्रेस का प्रारंभ होता है जिसमें प्रधानमंत्री उद्घाटनकर्ता होते हैं। यह परंपरा पंडित नेहरू ने ही प्रारंभ की थी।
1954 में जब पहली बार भारत रत्न का सर्वोच्च सम्मान देना प्रारंभ हुआ तो प्रथम तीन व्यक्तियों- चक्रवर्ती राजगोपालाचारी और डॉ. राधाकृष्णन के साथ महान वैज्ञानिक सी.वी. रमन को यह सम्मान मिला। इससे वैज्ञानिक सोच के प्रति तत्कालीन सरकार की प्रतिबद्धता जाहिर होती है।
ध्यान देना चाहिए कि धार्मिक विश्वास को लेकर नेहरू जी से सरदार पटेल व राजेन्द्र बाबू के बीच मतभेद भले रहे हों, लेकिन शासन स्तर पर उन्होंने कोई ऐसा निर्णय नहीं लिया जिससे अन्य धर्मों के मतावलंबियों को कोई आघात पहुंचता हो।'
(देशबन्धु में 06 सितंबर 2018 को प्रकाशित)
https://lalitsurjan.blogspot.com/2018/09/blog-post.html


