ललित सुरजन की कलम से - परिभाषा और आंकड़ों में उलझी गरीबी
'पिछले पच्चीस साल के दौरान देश में अमीर और गरीब के बीच की खाई बहुत तेजी के साथ बढ़ी है

'पिछले पच्चीस साल के दौरान देश में अमीर और गरीब के बीच की खाई बहुत तेजी के साथ बढ़ी है। यह ठीक है कि बहुत सी कल्याणकारी योजनाओं के चलते अब भूख से मरने की खबर शायद ही कहीं से आती हो, लेकिन बड़े और छोटे के बीच इतना बड़ा फर्क पहले कभी नहीं था।
इसके लिए सारे राजनीतिक दल एक समान दोषी हैं। जिस तरह से अंबानी बंधु इत्यादि सम्पन्न लोग अपने वैभव का अहंकारपूर्ण प्रदर्शन कर रहे हैं वह जुगुप्सा पैदा करता है। मुझे लगता है कि वाम मोर्चा या मेधा पाटकर जैसे सामाजिक कार्यकर्ता यदि अंबानी महल के सामने जाकर प्रदर्शन करते तो वह अधिक कारगर होता। दुर्भाग्य से इस मसले पर कोई राजनेता, कोई बुध्दिजीवी, कोई समाज चिंतक बात ही नहीं करता।
दूसरा गंभीर मसला देश की जनसंख्या का है। मेरी दृष्टि में वह अवधारणा अर्थहीन हो गई है कि ज्यादा बच्चे होंगे तो ज्यादा काम करने वाले हाथ होंगे। इस मुद्दे पर क्या राजनेता, क्या बुध्दिजीवी, सब अपने आपको धोखे में रख रहे हैं। देश के पास जो भी संसाधन हैं- धरती, जल, खनिज, वन-सब सीमित हैं। जबकि बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण आवश्यकताएं तेजी से बढ़ रही हैं। संजय गांधी के अति उत्साह का जो दुष्परिणाम हुआ उसके भय से आज कोई भी जिम्मेदार राजनेता इस बारे में सीधे-सीधे से बात करने में कतराता है, लेकिन सच्चाई से कब तक मुंह छिपाया जाएगा? '
(देशबन्धु में 01 अगस्त 2013 को प्रकाशित)


