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ललित सुरजन की कलम से- स्थानीय स्वशासन कितना सार्थक?

सिंहदेवजी ने एक दिन कहा कि चुनाव के समय दूरदराज के मतदाता भी रातभर अपनी झोपड़ी की फटकी को आधा खुला रखते हैं और ढिबरी जलने देते हैं

ललित सुरजन की कलम से- स्थानीय स्वशासन कितना सार्थक?
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'सिंहदेवजी ने एक दिन कहा कि चुनाव के समय दूरदराज के मतदाता भी रातभर अपनी झोपड़ी की फटकी को आधा खुला रखते हैं और ढिबरी जलने देते हैं। यह बताने के लिए कि हम जाग रहे हैं, प्रतीक्षा कर रहे हैं, मतदान के पहले जो देना हो दे जाओ।

मतलब यह कि चुनावों के समय उम्मीदवार अगर साड़ी, शराब, रुपया बांट रहे हैं तो उसे लेने से वे इंकार नहीं करते, फिर भले ही वोट किसी को भी दें। इतना तय है कि जिसने कुछ नहीं दिया उसे वोट पाने की उम्मीद भी नहीं करना चाहिए।'

'यह किस्सा इसलिए ध्यान में आया क्योंकि रायपुर नगर निगम के चुनाव में ही मुझे यहां-वहां से बहुत सारी खबरें सुनने मिलीं। मसलन, जुलूस निकालने और पर्चियां बांटने का रेट दो सौ-ढाई सौ रुपए प्रतिदिन था, भाजपा के उम्मीदवारों ने गरीब बस्तियों में तीन-तीन सौ रुपया बांटे, तो कांग्रेसियों ने दो सौ। कहीं-कहीं पांच सौ रुपए तक बांटने की खबरें आईं।

चेपटी याने देशी दारू के पाउच तो बांटे ही गए। इस बार कुछ उम्मीदवारों ने अक्ल का परिचय देते हुए पैसा ब्राह्म मुहूर्त में बांटा जब विरोधी भी सोए हों, रात को जब पकड़े जाने की आशंका न हो। एम्बुलेंस गाडिय़ों का उपयोग भी इस वितरण के लिए किया गया जिन पर सामान्यत: शंका नहीं होती और कई जगह पुलिस वालों ने देखकर भी नहीं देखा।

जो रायपुर में हुआ वही अन्यत्र भी हुआ होगा। जब ये हाल हैं तो आने वाले दिनों की तस्वीर क्या होगी? इसकी कल्पना करना कठिन नहीं है। जो राजनीतिक कार्यकर्ता स्थानीय चुनावों में ऐसे पाठ पढ़ा रहे हैं उनका भविष्य कितना उज्जवल होगा इसका भी अनुमान किया जा सकता है।'

(देशबन्धु में 1 जनवरी 2015 को प्रकाशित)

https://lalitsurjan.blogspot.com/2014/


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