ललित सुरजन की कलम से - संशयग्रस्त भारत और ओलंपिक
'एक खिलाड़ी को पर्याप्त आर्थिक प्रोत्साहन मिले यह तो ठीक है, लेकिन अगर वह विज्ञापन से मिलने वाले करोड़ों रुपए की चकाचौंध में खो जाएं

'एक खिलाड़ी को पर्याप्त आर्थिक प्रोत्साहन मिले यह तो ठीक है, लेकिन अगर वह विज्ञापन से मिलने वाले करोड़ों रुपए की चकाचौंध में खो जाएं तो फिर उसका एकाग्रचित्त होकर खेल पाना मुश्किल हो जाता है।
हाल के वर्षों में कुछ नए खिलाडिय़ों ने जो बेहतरीन उपलब्धियां हासिल कीं उनकी चमक कम पड़ जाने का कारण शायद यही है। एक बार-बार कही गई बात मुझे भी दोहराना चाहिए। हमारे खेल संगठनों पर अधिकतर राजनेता व अधिकारी कब्जा करके बैठे हैं। तर्क दिया जाता है कि यह उनका जनतांत्रिक अधिकार है। यह भी कहा जाता है कि उनके रहने से सुविधाएं हासिल हो जाती हैं।
ये दोनों तर्क गलत हैं। राजनेता और अधिकारी दोनों के पास बहुत काम है। उनका प्रमुख काम न्यायसंगत नीति बनाना और उसे ईमानदारी से लागू करना है। अगर वे खेल संगठन में हैं तो उनसे अपने पद का दुरुपयोग करने की आशंका हमेशा बनी रहेगी।
दूसरे प्रत्यक्ष को प्रमाण क्या? ये प्रभावशाली लोग खेल संगठनों का उपयोग निजी लाभ के लिए करते हैं। इन्हें खिलाडिय़ों से वास्तव में कोई लेना-देना नहीं होता। सच तो यह है कि अपने देश में खेल संस्कृति का विकास ही नहीं हुआ है।'
(देशबन्धु में 25 अगस्त 2016 को प्रकाशित)
https://lalitsurjan.blogspot.com/2016/08/blog-post_24.html


