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स्वाधीनता आंदोलन और साहित्य- हमारे जीवन मूल्य

स्वाधीनता से बढ़कर इस दुनिया में कोई चीज़ नहीं। स्वतंत्रता है तो सब कुछ है अन्यथा कुछ भी नहीं। पुस्तक का शीर्षक है. स्वाधीनता आंदोलन और साहित्य। इसे अनुज्ञा बुक्स दिल्ली ने प्रकाशित किया है

स्वाधीनता आंदोलन और साहित्य- हमारे जीवन मूल्य
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- सेवाराम त्रिपाठी

अभी तो हमें लोकबोलियों में स्वाधीनता आंदोलन, उसकी अवधारणा को और तमाम संघर्षों और जीवन मूल्यों और धाराओं को ढंग से खोजना है। उसमें लगातार परिवर्तन घटित होते रहे हैं। उसमें अभी भी बहुत कुछ छिपा है और यह सुखप्रद स्थिति है कि संकल्पनिष्ठ श्यामबाबू शर्मा शीघ्र ही इस वास्तविकता को आगे ले जाएंगे। यह जज़्बा अभी भी मौजूद है, स्वाधीनता आंदोलन केवल कुछ वर्षों की परिघटना नहीं है। हमारे पूर्वजों ने इसके लिए अनथक संघर्ष किए हैं। जब इस कि़ताब की तैयारी चल रही थी ।उसी समय शर्मा जी को दो स्लिप डिस्क का आघात हुआ था। दिक्कतों के बाद भी वे बिना थमे, बिना रुके और अविचलित भाव से काम में लगे रहे।

स्वाधीनता से बढ़कर इस दुनिया में कोई चीज़ नहीं। स्वतंत्रता है तो सब कुछ है अन्यथा कुछ भी नहीं। पुस्तक का शीर्षक है. स्वाधीनता आंदोलन और साहित्य। इसे अनुज्ञा बुक्स दिल्ली ने प्रकाशित किया है। इसकी विधिवत योजना 16 मार्च 2022 को श्यामबाबू शर्मा ने बड़े उत्साह के साथ मुझसे साझा की थी। अपने तई मैंने उनका हमेशा उत्साहवर्धन ही किया। वे बेहद उत्साही व्यक्ति हैं और उनकी सक्रियता ने हमें एक ठोस आधार और एक बड़ा नेटवर्क भी दिया है। वे संवाद पर अमल भी किया करते हैं। सक्रियता का आदान.प्रदान भी करते हैं। उन्होंने मुझे जो मान.सम्मान दिया है, वह सामान्य नहीं महत्वपूर्ण है। उन्होंने मेरी अनुशंसाओं को भलीभांति क्रियान्वित भी किया है। उसके बारे में क्या कहूं, सोचता हूं ऐसे आदमी भी इस मायावी महाबाज़ार में ढल रही दुनिया में मौजूद हैं। हम रिश्तों के विखंडन की त्रासदी भी झेल रहे हैं। खैर, यह एक अलग प्रश्न है।

सच मानिए, मैने अपने किसी मित्र को इस विषयक कभी कोई फ़ोन नहीं किया कि आपको लिखना है। सम्पादक को खुला छोड़ दिया था। यह भी आश्चर्य से कम नहीं है। मेरे मित्रों ने मेरे संदर्भ को इतनी अहमियत दी। इसका सचमुच गर्व है मुझे। लेकिन यह गर्व वाकई में हिंदू होने जैसा गर्व नहीं है। मैं अपने तई एक चुप्पा किस्म का, एक अदना सा आदमी रहा हूं। अपनी आत्मा में ही बहता हूं। साहित्य में कभी कोई धूम.धड़ाका करने की कोशिश भी नहीं करता। 28 मार्च को मैंने उन्हें इस बात के लिए प्रोत्साहित किया कि भारत की विविध भाषाओं में स्वाधीनता आंदोलन के अवदान को इसमें शामिल किया जाए तो बेहतर होगा। 4 अप्रैल को मैंने सुझाया कि मेरे मित्र और संस्कृत साहित्य के प्रकांड विद्वान प्रो. राधावल्लभ त्रिपाठी जी को इससे जोड़ा जाए और संस्कृत में स्वाधीनता आंदोलन के जो तमाम रूप रहे हैं उनसे निवेदन किया जाए कि उसे आलेख के रूप में प्रस्तुत करें।

मैंने उन्हें त्रिपाठी जी का फोन नंबर उपलब्ध कराया और उनसे संपर्क करने को कहा। उसी तरह कन्नड़ भाषी मेरे मित्र हिंदी के विद्वान प्रो. धरणेंद्र कुरकुरी से अनुरोध करने के लिए कहा कि कन्नड भाषा में स्वाधीनता आंदोलन को आलेखित करें। 20 अप्रैल को मैंने अपने लिए भी विषय का चयन किया और कई दिक्कतों के बावजूद एक प्रतिज्ञा की तरह उस काम को पूरा किया। अग्रज रामकुमार कृषक जो छंद के भी ज्ञाता है और अत्यंत समझदार भी। सुधीर विद्यार्थी का नाम सुझाते हुए मैंने उन्हें बताया कि वे स्वाधीनता आंदोलन के क्रांतिकारी साहित्य के बारे में बेहतर तरीके से लिख सकते हैं। संपर्क सूत्र दे रहा हूं। बातें करें।

एक बार ही उनसे लघुपत्रिका समन्वय समिति के आज़मगढ़ अधिवेशन में मिलना हुआ था। पांडेय शशिभूषण शीतांशु का भी नाम सुझाया। हालांकि एक बार ही उनसे मिला हूं बनारस में 1994में। उनसे भी मैंने आलेख लिखने के लिए कहने का अनुरोध किया। पूर्व में श्यामबाबू इस पुस्तक में कुछ लिखना नहीं चाहते थे। मैंने उन्हें समझाया कि आप ज़रूर लिखें। मैं मित्रों के नाम सुझाता गया, वे संपर्क करते रहे। कभी सफल हुए कभी असफल। कुछ और मित्रों. जानकारों के नाम सुझाए। जैसे अग्निशेखर और क्षमा कौल जी का। यह ठीक है कि अपनी विशेष व्यस्तताओं के कारण वे आलेख नहीं लिख सके। मैं सूत्र बताता गया और वे अपने उत्साह में अपनी कार्यविधि में उसे परिणत करते रहे।

इस किताब की विशेषता यही है कि हिंदुस्तानी भाषाओं में स्वाधीनता आंदोलन के सिलसिले में जो संघर्ष हुए हैं और साहित्य में उसे जिस तरह रेखांकित किया गया है। जिस प्रकार की उसकी विविध छवियां हैए उसे सामने लाया जाए। हिंदी, संस्कृत, मराठी, बांग्ला, कन्नड़, मलयालम, तमिल, तेलुगू, असमिया, मणिपुरी, गुजराती, पंजाबी, सिंधी, कश्मीरी, उड़िया, संथाली जैसी भाषाओं को इसमें केंद्रित किया जा सका है। इस कि़ताब में लोक साहित्य. संस्कृति, सिनेमा, नाटक, उपन्यास, कविता के साथ पत्रकारिता और उसमें स्वाधीनता आंदोलन के व्यापक परिप्रेक्ष्य को पहचानने का एक विनम्र प्रयास किया गया है। यह मार्च से लेकर जुलाई 22 तक की महत्त्वपूर्ण रचनायात्रा है। इन पाँच महीनों में जिस उत्साह, उमंग, लगन और श्रद्धा से सम्पादक और लेखक मित्रों ने काम को अंजाम दिया है। वह मेरी निगाह में बेमिसाल है। श्याम बाबू ने जो काम किया है उसी का प्रतिफल है यह कि़ताब। इसमें स्वतंत्रता आंदोलन का संघर्ष और समर्पण तो है ही उसकी खुशबू और महत्त्व भी है।

स्वाधीनता आंदोलन में इस देश का प्रत्येक वर्ग शामिल रहा है। जीवन के इस व्यापक रूप में देश के सभी लोगों ने कंधा से कंधा मिलाकर गुलामी से मुक्ति के लिए यह दिलचस्प मारक और अमूल्य लड़ाई लड़ी है। अपने प्राणों की आहुतियां दी. युवा पीढ़ी को जानना होगा कि यह आज़ादी दीवानगी और संघर्ष से ही कमाई गई है। यह फालतू पड़ी हुई कोई वस्तु नहीं है। वे इसकी कीमत समझें और इसकी सुरक्षा के लिए कुछ उठा न रखें। जुनून नहीं तो आज़ादी नहीं। जुनून नहीं तो जीना नहीं। जुनून और समर्पण नहीं तो लेखन भी नहीं। वे गीत हमें आज भी प्रेरणा देते हैं।

आज़ादी के अमृत महोत्सव में उस जज्बे को जीवित और जीवंत रखें। आज़ादी कहीं पड़ी हुई नहीं मिलती। वह लोक कल्याण की असली धुरी है। वह बलिदान मांगती है। वह हमारी अस्मिता है। स्वंतत्रता संग्राम सेनानियों से इसे हमें सीखना चाहिए। आज़ादी कायम है तो हम हैं। आज़ादी कायम नहीं तो हम भी नहीं हैं। वास्तव में यह सेंत-मेंत की दुनिया नहीं है । उसे लाना पड़ता है, निगरानी करनी पड़ती है और सतत कुर्बानी भी देनी पड़ती है। आज़ादी कोई सस्ती चीज़ नहीं है। यह अमूल्य होती है। इसका मूल्य वे जानते हैं जिन्होंने आज़ादी प्राप्ति के लिए गुलामी के खिलाफ़ लड़ाई लड़े थे और जो यह कठिन लड़ाई आज़ादी की सुरक्षा के लिए लड़ रहे हैं। हमें इसकी कदर करनी चाहिए। इसकी अवहेलना नहीं ।

भारतीय जीवन में इस दौर में अस्मिता की खोज और पहचान एक बेहद ज़रूरी मुद्दा है। भारत ने कभी भी नफ़रत फ़ैलाने का महासंग्राम नहीं लड़ा था। अवहेलना तो देखी थी, अब यह साक्षात हमारे सामने है। संभवत: इसीलिए स्वतंत्रता और मानवीय मूल्यों की सांसें फूल रही हैं। कभी प.जवाहर लाल नेहरू ने एक तथ्य की ओर हमारा ध्यान केंद्रित किया था कि मेरे भीतर पश्चिम और पूर्व का तनाव है, मेरे भीतर प्राचीन और आधुनिकता का तनाव है। इस मार्के की बात को हमें निरंतर अनुभव करते रहना होगा। इसमें स्वतंत्रता की वास्तविकता के बीज निहित हैं। इसी से हम वर्तमान और भविष्य की चुनौतियों का सामना कर सकते हैं। स्वाधीनता की लौ मद्धिम पड़ती जा रही है। उसके कारकों को लगातार खोजना होगा।

अभी तो हमें लोकबोलियों में स्वाधीनता आंदोलन, उसकी अवधारणा को और तमाम संघर्षों और जीवन मूल्यों और धाराओं को ढंग से खोजना है। उसमें लगातार परिवर्तन घटित होते रहे हैं। उसमें अभी भी बहुत कुछ छिपा है और यह सुखप्रद स्थिति है कि संकल्पनिष्ठ श्यामबाबू शर्मा शीघ्र ही इस वास्तविकता को आगे ले जाएंगे। यह जज़्बा अभी भी मौजूद है, स्वाधीनता आंदोलन केवल कुछ वर्षों की परिघटना नहीं है। हमारे पूर्वजों ने इसके लिए अनथक संघर्ष किए हैं। जब इस कि़ताब की तैयारी चल रही थी ।उसी समय शर्मा जी को दो स्लिप डिस्क का आघात हुआ था। दिक्कतों के बाद भी वे बिना थमे, बिना रुके और अविचलित भाव से काम में लगे रहे।

लोक बोलियों के साहित्य में वह वाचिक हो या गैरवाचिक यानी लिखित, वह हमारी वार्ताओं में रहा हो या यूं ही अन्य किसी माध्यमों में, कुछ लोगों के अवदान हमारे खोजने, खंगालने के बावजूद इतनी जल्दी में मिल नहीं पाए। एक कसक रह. रह कर टीस रही है कि उर्दू, अरबी, फारसी और अन्य भाषाओं को तत्काल हम रेखांकित नहीं कर पाए। उस दौर में कितना साहित्य जब्त किया गया था। उसे भी परिश्रम से खोजना और हर हाल में पाना यानी उपलब्ध करना है। यह आसान काम नहीं है बल्कि बेहद गंभीर और मुश्किल है। क्योंकि आज की तरह हमारे पूर्व समयों में स्वाधीनता आंदोलन की लड़ाइयां नाम कमाने के लिए यश प्राप्ति के लिए और किसी तरह के लाभ. लोभ के लिए नहीं लड़ी जाती थीं, जो इस दौर में अभूतपूर्व प्रशंसा के रूप में विकसित हुआ है। साथ ही अपने आपको चमकाने के रूप में संपन्न हो रहा है।

स्वतंत्रता हमारा जीवन मूल्य भी होती है। मौन आराधना भी है और उसको सुरक्षित रखना हमारे जिंदा रहने से ज्यादा ज़रूरी है। यह अमृत महोत्सव हमें आज़ादी के जश्न मनाने का जितना अवसर देता है। उससे कहीं ज्यादा उसको नए सिरे से पहचानने और पुनर्विचार करने का दायित्व भी सौंपता है। देखना यह है कि यदि हम अपनी सामासिकता, बहु आयामिता को नहीं बचा पाए और वह नफ़रत, क्रूरता, निर्लज्जता की भेंट चढ़ गई तो हमारे पुरखों का किया धरा अर्थहीन हो सकता हैघ। इधर बढ़ती कॉरीडोर संस्कृति ने दिखावे के जलसों ने आत्माओं तक को छलनी करना शुरू कर दिया है। अभी तो कहने को बहुत कुछ है और सहने को बहुत कुछ है। स्वतंत्रता के तमाम बिखरे सूत्रों को उसके विविध रंगों, सपनों और यथार्थ को विस्तार से समझने की ज़रूरत है। उसकी असलियत जड़ों, संस्कृति और लोकबोलियों के आयामों को विराट संदर्भों में टटोलने, सहेजने का भगीरथ प्रयास करना है और उसके लिए गंभीर जतन भी करना हैघ। ये बहुत उलझा हुआ सा मामला है। ठीक-ठीक कहा नहीं जा सकता कि कितना उसे कर पाएंगे। क्योंकि यह तो समय, परिस्थितियों और हमारी कार्यविधि में ही निर्णय हो पाएगा।


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