धर्मसंकट में सपा के धुरंधर,सबसे कठिन दौर से गुजर रही 25 साल पुरानी पार्टी
उत्तर प्रदेश में चार बार राज करने वाली समाजवादी पार्टी अपनी 25 साल की उम्र के सबसे कठिन दौर से गुजर रही है।

रतिभान त्रिपाठी
सियासत के चलते मूल्यहीन हो चुके हैं पिता-पुत्र, भाई-भतीजा, मां-बेटे के रिश्ते
लखनऊ ! उत्तर प्रदेश में चार बार राज करने वाली समाजवादी पार्टी अपनी 25 साल की उम्र के सबसे कठिन दौर से गुजर रही है। इस पार्टी के संस्थापक अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव और दूसरे धुरंधर नेता गहरे धर्मसंकट में हैं, जो खुद उन्हीं का पैदा किया हुआ है। जिन आंखों ने कभी नेताजी यानी मुलायम सिंह यादव को प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति बनाने के सपने बुने थे, वही कुर्सी खींच उन्हें औंधे मुंह गिरा चुके हैं। जिन उम्रदराज उम्मीदों ने पार्टी को जवान करते हुए बेटे के लिए सूबे पर राज करने को सबसे बड़ी कुर्सी मुकर्रर की और मुहैया कराई, वह अब अपनी ही कुर्सी बचा पाने में लाचार दिख रहे हैं। यहां माता-पिता, भाई-भाभी, चाचा-भतीजा जैसे सारे रिश्ते मूल्यहीन हो चले हैं। दिख रहा है तो केवल स्वार्थ और कुर्सी का मोह। ‘सियासत में कुछ भी हो सकता है’ का फार्मूला अपने पूरे भौतिक स्वरूप के साथ मौजूद है। आइए, जानने-समझने की कोशिश करते हैं कि लोगों और कार्यकर्ताओं के दिल-ओ-दिमाग में सपा के धुरंधर नेताओं का धर्मसंकट किस-किस और कैसे-कैसे रूप में महसूस किया जा रहा है।
मुलायम सिंह यादव: समाजवादी पार्टी की बुनियाद रखने वाले इस नेता ने अपने सियासी दखल से भले ही पिछले 28 सालों में उत्तर प्रदेश का परिदृश्य बदल दिया हो, अपने संघर्ष से सियासत की नई इबारत लिखी हो और बड़े-बड़े सियासी शूरमाओं को चारों खाने चित कर दिया हो लेकिन पिछले कुछ दिनों से परिवार में ही शिकस्त का सामना करना पड़ रहा है। उनका धर्मसंकट यह है कि बेटे को खुश करें तो सहोदर भाई और पत्नी नाराज, भाई को खुश करने पर बेटा हाथ से जाएगा और पार्टी दो टुकड़े हो जाएगी। जिन कठिन परिस्थितियों में तिनका-तिनका जोडक़र मजबूत पार्टी खड़ी की, वह उनकी आंखों के सामने खंडित होती नजर आ रही है। वह बेबस हैं, बेटे को वह सब कुछ देने को तैयार हैं, जिसकी चाहत है पर बेटा मानने को तैयार नहीं। इस धुरंधर ने ऐसी जगहंसाई की कल्पना भी नहीं की होगी। ऐसे दिन भी देखने होंगे, कभी सोचा तक न होगा। जिस बेटे को पाल-पोसकर बड़ा किया। सियासत की एबीसीडी सिखाई, उसी के हाथों.मात मिले, उनके लिए यह भी अकल्पनीय है लेकिन सियासत ने यह दिन भी दिखा दिए।
अखिलेश यादव : उनके साफ-सुथरे चेहरे पर भले ही सपा ने पांच साल राज किया है और उन्हीं की सरकार की उपलब्धियों के सहारे आगे की जीत मुकम्मल करने का मंसूबा है लेकिन उन्हें टिकट बांटने का अधिकार नहीं है। यह कोई कम नाइंसाफी नहीं है। चुनाव से कुछ समय पहले वह प्रदेश अध्यक्ष पद से हटा दिए गए। साढ़े चार साल तक साढ़े तीन और साढ़े चार मुख्यमंत्री का जुमला सुनते सुनते उनके कान पक गए थे। अगर वह अब भी अपनी ताकत का प्रदर्शन न करते तो जनता के बीच कमजोर नेता की छवि बन जाएगी। पिता को अपदस्थ करने और मुगलिया सुल्तानों जैसा व्यवहार करने का इल्जाम उन पर भले ही चस्पा हो रहा है लेकिन बदले दौर में पार्टी में साफ-सुथरे चेहरों का आगे न बढ़ाने से छविसुधार का उनका सियासी सफर कमजोर हो सकता है। अगर वह पिता और चाचा की मानें तो पार्टी कमजोर पड़ेगी, उनकी सियासत कमजोर पड सकती है और न मानें तो इल्जाम सिर पर दिख ही रहे हैं।
शिवपाल सिंह यादव: अपने बड़े भाई के एक इशारे पर ‘स्याह को सफेद और सफेद को स्याह’ कहने-करने की कूवत भले ही उनकी खासियत है पर यही उनकी छवि को दागदार भी किए है। जगजाहिर है कि उन पर चस्पा किए जाने वाले ज्यादातर इल्जाम भातृभक्ति के चलते हैं और पार्टी को आगे बढ़ाने के लिए हैं। पार्टी के लिए उनके संघर्ष और सांगठनिक क्षमता को भला कौन नहीं जानता। अगर वह भतीजे की मान लें तो उनका सब कुछ चला जाएगा, जिसे जोडऩे में उन्होंने भी उतना ही वक्त दिया है जितना कि मुलायम सिंह यादव ने और अगर न मानने पर अपदस्थ कर ही दिए गए हैं। अगर पार्टी तोड़ दें तो भातृभक्ति खंडित होगी और न तोड़ें तो उनकी सारी राजनीतिक तपस्या व्यर्थ जाने को है। उनके सामने उस चचेरे भाई का खुलकर विरोध करने की मजबूरी है, जिसे पार्टी का दिमाग कहा जाता है, पर अगर विरोध न करें तो वह भाई उनके ही सियासी वजूद को खत्म करने पर तुला है।
राम गोपाल यादव: वह पार्टी का पढ़ा-लिखा चेहरा जरूर हैं पर अपने ज्ञान का इस्तेमाल उसी के खिलाफ कर रहे हैं, जिस भाई ने सियासत में उन्हें ‘सड़क़ की धूल से माथे का चंदन’ बनाया। उन्हें सहोदर भाई से कम ओहदा नहीं दिया लेकिन उन्होंने उनके ही बेटे को उनके खिलाफ खड़ा कर दिया। खुद मुलायम सिंह यादव और शिवपाल यादव सरेआम यह कह चुके हैं कि वह भाजपा के इशारे पर खुद को और बेटे को सीबीआई से बचाने के लिए यह जुगत लगा रहे हैं। पार्टी कार्यकर्ताओं और लोगों के बीच भले ही वह शकुनि की भूमिका में हैं पर अखिलेश यादव के लिए वह सबसे अहम किरदार हैं। वह दो महीने में तीन बार पार्टी से निकाले जा चुके हैं। पार्टी का विवाद जिस स्तर पर पहुंच गया है, उसमें यह सब कर रहे हैं तो लोग उन पर इल्जामों की बौछार कर रहे हैं और नहीं करें तो उनका खुद का वजूद खत्म हो जाएगा।
साधना सिंह यादव: वह पार्टी का चेहरा नहीं हैं फिर भी सियासत के इस वितंडावाद में चारो तरफ चर्चा में हैं। अखिलेश की सौतेली मां हैं पर उन्हें सगे बेटे से कम नहीं मानतीं। सच क्या है, कोई नहीं जानता पर इस पूरे झगड़े में उनकी भी भूमिका मानी जा रही है। उनके बेटे प्रतीक की पत्नी अपर्णा सियासत में कदम रख चुकी हैं लेकिन अखिलेश शायद ऐसा नहीं चाहते कि वह सियासत में आगे बढ़ें। अब बहू की खातिर सास को कुछ करना पड़े तो हो सकता है वह कर रही होंगी। कहा जाता है कि यह विवाद बढ़ा ही उनकी वजह से। अखिलेश यादव ने अपने भाषण में कहा भी था कि वह अदृश्य शक्तियों से लड़ रहे हैं। इशारा उन्हीं की ओर था। अब अगर नेताजी और बहू का बचाव न करें तो वह क्या करें।
पार्टी के वरिष्ठ नेता: वह सब बरसों से अपना तन-मन-धन खपाकर सपा को इस मुकाम तक ले आए लेकिन चुनाव के ऐन मौके पर जब सरकार की उपलब्धियां गिनाने और कुछ कर दिखाने का वक्त आया तो अलग-अलग खेमों में खड़े होने का मजबूर हैं। सैफई परिवार में एकता तो चाहते हैं पर दो खेमों में बंट चुकने के बाद अब सामने यह सवाल भी है कि अगर दोनो पक्ष एक हो गए तो उनका क्या होगा। ज्यादातर ने नए खून के साथ नाता जोड़ा है, भले ही वह मुलायम सिंह यादव को आदर्श मानते हैं। उन्हें लगने लगा है कि देर-सबेर ही सही, नेताजी अपने बेटे के पहलू में बैठेंगे। जैसा कि उन्हें मुख्यमंत्री बनाकर अपना मंतव्य जाहिर किया था लेकिन फिलहाल ऐसी सूरत बनती नहीं दिख रही, इसलिए उनका धर्मसंकट बढ़ता जा रहा है।


